आदिवासियों के अस्तित्व मिटने की चेतावनी और मेरे मन का डर

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह की जनजातियाँ कोरोना वायरस की वजह से गंभीर ख़तरे में हैं. यह बात दुनिया भर के 13 संस्थानों के वैज्ञानिकों की एक टीम ने कही है. इन वैज्ञानिकों ने इन आदिवासियों के जीनोमिक विश्लेषण (genomic analysis) के आधार पर यह चेतावनी जारी की है.

वैज्ञानिकों ने भारत में क़रीब 1600 लोगों के जीनोमिक डेटा (genomic data) की जाँच के बाद यह बात कही है. इस टीम के अनुसार अंडमान निकोबार के जारवा, ओंग और सेंटनली जैसे आदिवासी समुदायों की आनुवंशिक बनावट (genetic structure) की वजह से उन्हें कोविड से ज़्यादा ख़तरा है.

अंडमान निकोबार के अलावा भारत में करीब 70 ऐसी जनजातियां हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वो अलग थलग रहते हैं. यानि या तो उनका आधुनिक दुनिया से संपर्क नहीं के बराबर है या फिर बेहद सीमित संपर्क है.

यह उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार और वैक्सीन अभियान से जुड़े लोग इस चेतावनी को गंभीरता से लेंगे. वैसे सरकार और शासन को इस बात की जानकारी नहीं है कि आदिवासी और उनमें भी पीवीटीजी यानि आदिम जनजातियों को किसी भी सूरत में कोरोना वायरस की पहुँच से दूर रखा जाना चाहिए.

अंडमान निकोबार के कम से कम तीन ऐसे समुदायों के बारे में कई शोध हुए हैं. ये समुदाय हैं ग्रेट अंडमानी, जारवा और ओंग. इन समुदायों पर किए गए वैज्ञानिक शोध के तथ्यों पर सरकार ने इन आदिवासी इलाक़ों में बाहरी लोगों के प्रतिबंध की नीति बनाई है.

इस सिलसिले में कोरोना की पहली लहर से ही मेरे मन में यह आशंका थी कि कहीं आदिवासी इलाक़ों में वायरस ना पहुँच जाए. क्योंकि देश के बाक़ी इलाक़ों की तुलना में इस वायरस की मार ज़्यादा ख़तरनाक हो सकती है.

यह आशंका सिर्फ़ इसलिए नहीं थी कि मैंने अंडमान के आदिवासियों से जुड़े शोध पढ़ें हैं. इसलिए भी नहीं कि मैं अंडमान के आदिवासियों से मिला हूँ और उन पर बरसों काम करने वाले लोगों से लंबी बातचीत की है.

बल्कि यह आशंका इसलिए थी कि पिछले कुछ सालों में आदिवासी भारत में घूमते हुए मुझे थोड़ा बहुत अनुभव हुआ है कि आदिवासियों के प्रति सरकार और शासन का रवैया कैसा होता है. इस दौरान मुझे यह भी देखना का मौक़ा मिला है कि आदिवासी इलाक़ों में स्वास्थ्य सेवाओं का क्या हाल है.

अंडमान की ही एक घटना आपको बताता हूँ. हम लोग अंडमान के आदिवासियों से मिलने के सिलसिले में पोर्टब्लेयर पहुँचे थे. उस समय मैं राज्य सभा टीवी में काम करता था. इसलिए वहाँ उपराज्यपाल या वरिष्ठ अधिकारियों से मुलाक़ात संभव थी.

इसी सिलसिले में मैं वहाँ के सबसे ताक़तवर अधिकारी यानि वन विभाग के सचिव से मिलने पहुँचा. जब मैं उनके कमरे में पहुँचा तो वहाँ उनके अलावा देश के एक जाने-माने एंथ्रोपोलोजिस्ट भी मौजूद थे. मुझे अपनी बात कहने के लिए इनकी बातचीत ख़त्म होने का इंतज़ार करना था.

दोनों के बीच जारवा रिज़र्व यानि उस इलाक़े के बारे में बात हो रही थी जहां जारवा समुदाय के लोग रहते हैं. एंथ्रोपोलोजिस्ट महोदय सचिव को कह रहे थे कि पिछली बार जब वो पोर्ट ब्लेयर आए थे तो उन्होंने कहा था कि तीरूर इलाक़े में रह रहे जारवा ग्रुप को एक डोंगी दे दी जाए. लेकिन वो अभी तक नहीं दी गई है. इस पर सचिव महोदय मुस्करा कर कहते हैं, “ आप लाट साब (उपराज्यपाल) को कहिए ना, उन्हें तो मरीन ड्राइव बनवाने से ही फ़ुरसत नहीं है.” फिर दोनों ही हंस देते हैं.

ये एंथ्रोपोलोजिस्ट महोदय अंडमान प्रशासन को जारवा और दूसरे पीवीटीजी समुदायों पर सलाह देते हैं. लेकिन उनका असली काम है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन समुदायों के बारे में मचने वाले शोर का जवाब दें. उनकी ज़िम्मेदारी है कि जब भी इन समुदायों के बारे में प्रशासन की नीति पर कोई सवाल उठे तो उसका माकूल जवाब वो पत्र पत्रिकाओं में लिखें.

यह काम वो बख़ूबी करते भी हैं. इनको अंडमान निकोबार ट्राइबल रिसर्च इंस्टीट्यूट में बड़े पद पर रखा गया है. हालाँकि ये साहब अहमदाबाद की एक यूनिवर्सिटी में फ़िल्म मेकिंग पढ़ाते हैं. अंडमान प्रशासन को जब ज़रूरत होती है तो हवाई जहाज़ का टिकट भेज कर इन्हें पोर्ट ब्लेयर बुला लेता है.

इसी दौरान मेरी मुलाक़ात ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट के एक और अधिकारी से हुई. उनसे बातचीत में मैनें उनसे पूछा कि जारवा और उनके इलाक़ों के आस-पास बसा दिए गए लोगों के बीच क्या कोई संपर्क नहीं होता है. उन्होंने बताया कि संपर्क भी होता है और संघर्ष भी होता है.

उन्होंने ने यह भी बताया कि उन्होंने इस तरह की घटनाओं के आँकड़े और तथ्य जुटाए हैं. लेकिन इन तथ्यों या आँकड़ों को हमारे साथ शेयर करने से साफ़ इंकार कर दिया. मैंने उनसे पूछा कि आख़िर जारवाओं के बारे में इतना रहस्य क्यों बना कर रखा जाता है. वो इस पर मुस्करा देते हैं.

इसके बाद जब मैंने जारवा और अंडमान के आदिवासियों से जुड़ी कुछ किताबें ख़रीदने का मन बनाया तो पाया कि ज़्यादातर किताबें इन्हीं एंथ्रोपोलोजिस्ट और अधिकारियों की लिखी हुई हैं. जिनकी क़ीमत 1500 रूपये से 4500 रूपये के बीच है. कई किताबें तो इनसे भी महँगी मिल थीं.

अंडमान के अलावा भी देश के कई आदिवासी इलाक़ों में घूमने के सिलसिले में कई सरकारी अधिकारियों से मुलाक़ात होती रही है. इस दौरान ज़्यादातर मैंने यही पाया कि आदिवासी इलाक़ों में पोस्टिंग को ज़्यादातर अधिकारी या तो सज़ा मानते हैं या मजबूरी. ये अधिकारी किसी तरह से समय काटते हैं और चलते बनते हैं.

ऐसा कम ही पाया है कि कोई अधिकारी आदिवासियों के बारे में बहुत शिद्दत से सोचता है और कुछ करना चाहता है. कोरोना वायरस महामारी या वैक्सीन के मामले में भी हमने यही पाया है कि प्रशासन और अधिकारी बहानेबाज़ी करते रहते हैं.

इसमें मीडिया सरकार का भरपूर साथ देता है. आदिवासियों में वैक्सीन के बारे में भ्रम और डर की ख़बरों को उछाला जाता है. मीडिया भी इस बात की पड़ताल नहीं करता कि इस भ्रम और डर को दूर करने के लिए सरकार की तरफ़ से क्या किया गया. मीडिया यह भी नहीं बताता कि वैक्सीन के बारे में भ्रम तो मुख्यधारा कहे जाने वाले समाज में भी थे.

सबसे ज़रूरी बात ये कि आदिवासी इलाक़ों में वैक्सीन कितनी उपलब्ध कराई गई. आदिवासी समुदाय के लोगों में वैक्सीन के प्रभावों पर क्या कोई शोध हुआ है. इसलिए इस नए शोध और चेतावनी के बाद भी मेरे मन में यह आशंका बनी हुई है कि कोरोना से आदिवासी कैसे बचेंगे.

ये लेखक के निजी विचार है

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *