बिहारी खानपान का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है. प्राचीन मगध साम्राज्य से शुरू हुआ सिलसिला आजतक चला आ रहा है. यहां के स्वाद में देसीपन का छौंक भी है, बेतहाशा प्रयोग भी है और उनमें जिह्वा से दिल तक उतरने वाली खासियत भी मौजूद है. इस कारण कोई भी दौर रहा हो बिहारी स्वाद की चर्चा पूरे देश में अनवरत होती रही है. बिहार के व्यंजनों की इन्हीं खासियतों को लेकर एक किताब आयी है जिसका नाम है बिहार के व्यंजन: संस्कृति और इतिहास. इसमाद प्रकाशन से आयी इस किताब में बिहार के व्यंजनों के इतिहास और बिहारी खानपान की संस्कृति के बारे में जानकारी दी गयी है. लेखक ने इस किताब में बताया है कि मगध साम्राज्य में जब बिहार लंबे समय तक सत्ता का केंद्र रहा तो यहां से शासन करनेवाले महान सम्राटों ने यहां के व्यंजनों को राज्याश्रय प्रदान किया था. इसी कारण प्राचीन राजगृह के इर्दगिर्द आज भी व्यंजनों पर निर्भर कस्बे मौजूद हैं, चाहे वह खाजा के बेमिसाल स्वाद वाला सिलाव हो या पेड़ा बनाने वाला निश्चलगंज. गया में चावल और तिल के साथ कितना प्रयोग कर तिलवा-तिलकुट से लेकर अनरसा जैसा प्रयोगधर्मी स्वाद बनाया गया. प्राचीन पाटलिपुत्र यानी आज का पटना देख लिजिए. यहां पर पुराने शहर में खुरचन थोडी दूर पर बाढ-बख्तियारपुर और धनरूआ में लाई तो मनेरशरीफ में नुक्ती वाले लड्डू हैं. बडहिया में रसगुल्ले हैं. ये वैसे कस्बे हैं जिनका पूरा आर्थिक हिसाब-किताब व्यंजनों के कारोबार से चल रहा है. भोजपुर इलाके में प्रयोगधर्मी मिष्ठान्नों की भरमार है. उदवंतनगर में खुरमा, ब्रह्मपुर में गुडई लड्डू, गुड की ही जलेबी तो बक्सर में सोनपापडी है. थावे, गोपालगंज चले जाइए तो वहां पर आपको पेडुकिया मिलेगा. ये उदाहरण तो बस बानगी हैं, आप राज्य के जिस किसी हिस्से में चले जाइए वहां पर आपको कोई न कोई बेमिसाल स्वाद मिल जाएगा.
बिहार के स्वाद परंपरा का लिखित इतिहास चौथी शताब्दी से शुरू होता है
बिहार के स्वाद परंपरा का लिखित इतिहास चौथी शताब्दी से शुरू होता है जो आजतक जारी है. पाली साहित्य में बताया गया है कि भगवान बुद्ध को यहीं बोधगया में खीर का स्वाद सुजाता ने चखाया था. महान सम्राट अशोक ने पाटलिपुत्र में अशोक राजपथ के किनारे आम के पेड लगवाए थे. जिसे चौथी शताब्दी में भारत पहुंचा चीनी तीर्थयात्री फाह्यान आमलन वन बताता है. छठी शताब्दी ई में बिहार आने वाले ह्वेनसांग वैशाली के केले का जिक्र करते हैं. इन दोनों ने बिहार के कई स्वाद की चर्चा अपने यात्रा वृतांत में की है. दोनों ने लिखा है कि यहां मांसाहार बहुत कम था, यहां तक कि प्याज लहसुन भी बहुत कम लोग खाते थे. मुगलों के राज में इसे आगे विस्तार दिया गया, अकबर ने दरभंगा में लाखी बाग लगाया था, जिसमें एक लाख आम के पौधे लगाए गए थे.
16 वीं शताब्दी ई में गोस्वामी तुलसीदास जी ने विस्तार से बिहार की स्वाद परंपरा के बारे में लिखा है. रामचरितमानस के दोहों के माध्यम से यह जानना बेहद दिलचस्प है कि कैसे दही-चूड़ा मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामजी के बारात का शान थी और जब वे मिथिला पहुंचते हैं तो उनको राजमहल में आने पर शादी की अगली सुबह चावल-दाल-गाय का घी परोसा जाता है. मिथिला हो या मगध, अंग हो या वैशाली सभी जगह पर भिंडी को रामतोरई, बेसन की सब्जी को रामरूच और नमक को रामरस कहा जाता है. रामदाने की लाई को भला कौन भूल सकता है. दरअसल यह भगवान राम के प्रति बिहारवासियों का प्यार है. श्री राम पूरी दुनिया के लिए ईश्वर हैं लेकिन बिहारियों के लिए दामाद भी हैं क्योंकि उनकी बारात अयोध्या से यहीं मिथिला में आयी थी. जब वे यहां आए तो उनको कई खाद्य पदार्थ भोजन सामग्री में दिए गए. जो उन्हें पसंद आए वे उन्हीं के नाम से हमारे खास व्यंजन हो गए. रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने बताया है कि भगवान राम को चावल और दाल भी बेदह पसंद थे. जब दशरथ जी अपने पुत्रों के साथ बारात आने के बाद जनक जी के राजमहल में पधारते हैं तो बालकांड में गोस्वामी जी कहते हैं कि
सुपोदन सुरभि सरपि सुंदर स्वादु पुनीत।
छन महुं सबके परूसि, गे चतुर सुआर बिनित।। 328।।
चतुर और विनित रसोइए सुंदर, स्वादिष्ट और पवित्र दालभात और गाय का सुगंधित घी क्षणभर में सबके सामने परोसे गए। यह सभी को बेहद पसंद आता है। आगे गोस्वामी जी लिखते हैं कि
पंच कवल करि जेवन लागे, गारि गान सुनि अति अनुरागे।।
भांति अनेक परे पकवाने। सुधा सरसि नहिं जाहिं बखाने।।
सबलोग पंचकौर करके मंत्रों का उच्चारण करते हुए पहले पांच ग्रास लेकर भोजन करने लगे। गाली का गाना सुनकर वे अत्यंत प्रेममग्न हो गए। अनेकों तरह के स्वादिष्ट पकवान परोसे गए, जिनका बखान नहीं हो सकता है।
परूसन लगे सुआर सुजाना। बिंजन विविध नामको जाना। ।
चारि भांति भोजन विधि गाई। एक एक विधि बरनि न जाई।।
चतुर रसोइए नाना प्रकार के व्यंजन परोसने लगे, उनका नाम कौन जानता है? चार प्रकार के चर्व्य यानी चबाकर के, चोष्य यानी चूसकर खाने वाले, लेह्य यानी चाटकर और पेय यानी पीने वाले पदार्थ दिए गए।
दधि चिउरा उपहार अपारा, भरि–भरि कांवरि चले कहारा
बालकांड में दही चूड़ा का बहुत सुंदर जिक्र करते हुए तुलसीदास लिखते हैं कि ‘मंगल सगुन सुगंध सुहाये, बहुत भांति महिपाल पठाये, दधि चिउरा उपहार अपारा, भरि–भरि कांवरि चले कहारा।‘ श्रीरामचरितमानस के बालकांड में राम-विवाह का यह वह प्रसंग है. जब राम की बारात अयोध्या से चलती है तो राजा जनक रास्ते में बारातियों के लिए कई जगह ठिकाने बनवाते हैं, जहां तरह-तरह के खानपान का प्रबंध होता है. जब बारात राजा जनक के इलाके में पहुंचती है. यहां बहुत प्रकार के सुगंधित और सुहावने मंगल द्रव्य और सगुन पदार्थ राजा ने भेजे. दही चिउरा और अगणित उपहार की चीजें कांवरों में भर भर कर कहार चले. यानी जनमासे पर तमाम खाद्य पदार्थों के साथ दही चूड़ा भी भेजा गया था.
पीढ़ियों से यह हमारे राज्य में लोक-परंपरा का हिस्सा रहा है. हमारी नयी फसल का सबसे पहला आहार चूड़ा है. दही-चूड़ा थोड़ी आसानी से तैयार होता है. दही और चूड़ा आसानी से मिल जाते हैं. इसे बनाने का कोई खास झंझट नहीं होता. एक वजह यह भी हो सकती है कि चूंकि यह एक लोकपर्व मकर संक्रांति से जुड़ता है, इसलिए भी इसका महत्व काफी बढ़ जाता है.
नजीर अकबराबादी ने 17 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मगध के मिष्ठान्न पर पूरी कविता ही लिख डाली थी. मगध के मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग, दुकां-दुकां पर तमाशे देखते हैं लोग, खिलौने नाचें हैं, तस्वीरें गत बजाती है, बताशे हंसते हैं और खीलें खिलखिलाती है, जो बालूशाही भी तकिया लगाए बैठे हैं तो लौंज खजले यही मसनद लगाते बैठे हैं, उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहनभोग, यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग.
यह भी जानना जरूरी है कि किस प्रकार 1872 ई. में यहां घूमने आया आर्कियोलॉजिस्ट जोसेफ डेविड बेगलर खाजा का स्वाद पाकर अभूतपूर्व रूप से खुश हो गया. उसने ए टूर थ्रू बंगाल प्रोविंस में इसके बारे में लिखा है. 19 वीं शताब्दी शुरू होने के ठीक पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी लिखा, अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा. आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ने इसे नालंदा के भग्न महाविहार का प्रतीक बताया था.