जाने-माने लेखक संजय कुंदन की सीरीज जीरो माइल की पहली कड़ी “जीरो माइल पटना” में पटना के बुनियादी चरित्रों को पहचानने की कोशिश की गई है.
संजय कुंदन बॉस की पार्टी और श्यामलाल का अकेलापन नाम की कहानी संग्रह के साथ टूटने के बाद और तीन ताल नाम की उपन्यास लिख चुके है. उन्होंने जॉर्ज ऑरवेल की एनिमल फार्म, रिल्के की लेटर्स ऑन सेज़ां और विजय प्रशाद की वॉशिंगटन बुलेट्स का हिंदी में अनुवाद भी किया है.
भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, विद्यापति पुरस्कार और बनारसी प्रसाद भोजपुरी पुरस्कार से सम्मानित लेखक एवं अनुवादक संजय कुंदन की इस पुस्तक में इतिहास, संस्मरण और समाजशास्त्रीय विवेचन की रोचकता समाहित हैं.
जीरो माइल पटना में उन्होंने पटना के जनजीवन की एक झाँकी पेश की है. उन्होंने शहर में आ रहे बदलावों को रेखांकित किया है और इसकी कुछ स्थायी समस्याओं की चर्चा भी की है.
इस पुस्तक के लोकार्पण के पूर्व बातचीत में उन्होंने कई महत्वपूर्ण सवालों के जवाब दिए हैं –
1. पटना पर किताब लिखने का विचार कैसे आया? इसका प्रारूप कैसे तय किया?
पचीस-छब्बीस साल पहले पटना छोड़ने के बाद भी यह शहर मेरे दिल में बसा हुआ है. ऐसा लगता ही नहीं कि मैं अपने शहर से दूर चला गया हूँ. दिल्ली-एनसीआर में मुझे रोज़ी-रोटी और दूसरी कई सहूलियतें मिलीं, लेकिन मैं ऐसे दोस्त नहीं बना पाया जिनसे अपने मन की बात कह सकूं, जिनके साथ रहते हुए अपने को भावनात्मक रूप से सुरक्षित महसूस कर सकूं. संभवतः इसके लिए मेरी नौकरी और ज़िंदगी की आपाधापी जवाबदेह रही. मुझे पटना की स्मृतियां लगातार परेशान करती थीं. मेरा लंबा समय यहां सांस्कृतिक गतिविधियों, विमर्शों और बहस-मुबाहिसों में बीता था. मैं उन्हें दर्ज करना चाहता था. अकसर सोचता था, उन दिनों के बारे में लिखूं. फिर दूसरी बात यह कि दिल्ली में पटना को लेकर जिस तरह की बातें सुनने को मिलीं, जो सवाल किये जाते रहे, उससे लगा कि लोगों के मन में मेरे शहर को लेकर कई तरह की गलतफहमियां और पूर्वाग्रह हैं. तो मन में आता था कि उन सबको पटना की सच्चाई बताने के लिए एक किताब लिखनी होगी. लेकिन लिखने का संयोग नहीं बन पा रहा था. जब वाम प्रकाशन में बतौर संपादक जुड़ा, तो यहां हमारी चर्चा में यह बात उभर कर आई कि सामाजिक-आर्थिक बदलाव की परख का एक तरीका यह भी हो सकता है कि शहरों को केंद्र में रखकर उन पर बात की जाए. तभी ज़ीरो माइल सिरीज की अवधारणा सामने आयी. मैंने इसकी शुरुआत का ज़िम्मा लिया और पटना पर यह किताब लिखी
इसके प्रारूप को लेकर भी उलझन बनी रही. सिर्फ़ इसे एक संस्मरण की तरह लिखने में तटस्थ विश्लेषण की गुंजाइश कम हो सकती थी. फिर मैंने सोचा कि मुझे इस बात की चिंता छोड़ देनी चाहिए कि यह किस विधा की किताब होगी. मैंने बस लिखना शुरू कर दिया. जो कुछ भी मन में था, लिख डाला. कुछ हिस्सा इसका संस्मरण जैसा है तो कुछ निबंध जैसा या पत्रकारीय विश्लेषण जैसा. विधा अहम नहीं है महत्त्वपूर्ण वह है कि यह पाठकों को रोचक लगे और वे इस शहर से जुड़ा हुआ महसूस करने लगें.
2. करीब ढाई दशकों के बाद अपने शहर पर लिखते हुए आपने शहर को नए सिरे से देखा. इस क्रम में क्या ऐसे कुछ खास पहलू दिखे, जिन पर आप उस वक़्त ग़ौर नहीं कर पाए थे?
दरअसल इसे लिखना एक तरह से अपने शहर की दोबारा खोज है. मैंने पटना को री-डिस्कवर किया. मैं सोचता रहता था कि कौन सी चीज़ है, जो पटना को औरों से अलग बनाती है या वे कौन सी बातें हैं, जिनकी कमी मुझे इसके बाहर खलती रही है? पटना की ख़ासियत है इसकी सहजता. यहां अब भी बहुत दिखावे या आडंबर ने सामाजिक जीवन में अपनी जगह नहीं बनाई है. कम से कम उस समय तक तो नहीं ही बनाई थी, जब तक मैं था. यहां साधारण होना कमज़ोर या पिछड़ा होना नहीं समझा जाता जैसा कि अन्य शहरों में समझा जाता है, खासकर दिल्ली में. यहां साधारण आदमी भी ठसक के साथ रहता है. फिर यहां किसी एक विचार का दबदबा नहीं है, यहां एक साथ कई तरह के विचार या मतों को जगह मिली है, इसलिए यह मूलतः सौहार्द या मेलजोल का शहर है.
इसके बौद्धिक जगत की एक खास बात यह है कि यहां बहुत सारे लोगों ने अपना जीवन ही बौद्धिक-सांस्कृतिक कार्यों के लिए समर्पित कर दिया है. यहां जितने पूर्णकालिक कार्यकर्ता मिलते हैं, उतने शायद ही किसी अन्य शहर में होंगे. और ये लोग दिल्ली की तरह महान बौद्धिक कहलाने या पुरस्कार-सम्मान, पद-सहूलियतें पाने के लिए लालायित नहीं रहते.
3. शहर का एक सांस्कृतिक नक़्शा किताब में दिखता है। इस मानचित्र में वह कौन सी एक चीज़ है जिसके प्रति आज भी सबसे ज़्यादा नास्टैल्जिया बना हुआ है?
पटना में मैंने अपने जीवन के बेहतरीन वर्ष गुज़ारे -बचपन और युवावस्था. यहां के बौद्धिक जीवन में एक खदबदाहट हमेशा बनी रहती है. पटना जैसे छोटे शहर में लगातार इतनी सारी सांस्कृतिक गतिविधियां होते रहना और इनमें शामिल लोगों के बीच निरंतर संवाद बना रहना बड़ा दिलचस्प है. मुझे पटना की साहित्यिक बैठकी, अड्डेबाजी और अपने कुछ मित्रों के साथ निरंतर बहस-विमर्श को लेकर आज भी नॉस्टैल्जिया बना हुआ है.
4. शहर के हाशिए के भी कई चित्र आपने किताब में खींचे हैं. उसके बारे में कुछ बताइए.
पटना शहर के हाशिए को लेकर पहले भी सोचता रहा था. किताब लिखने के क्रम में उन पर फिर से ध्यान गया. इस बारे में फिर से जानने की कोशिश की तो कई बातों का पता चला. जैसे मुझे पहले यह नहीं मालूम था कि पटना में भी लेबर चौक हैं. मैं नोएडा में लेबर चौक देखता था. बाद में पता चला कि पटना में निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले जितने मज़दूर हैं वे शहर में नहीं रहते बल्कि आसपास के क़स्बों से डेली पैसेंजर के रूप में आते हैं और यहां कुछ ख़ास ठिकानों पर बैठकर काम मिलने का इंतज़ार करते हैं फिर काम करके वे वापस अपने कस्बों में लौट जाते हैं. यहां कई तरह के फेरीवाले पटना सिटी जैसे शहर के पुराने इलाके से आते हैं. शहर के ट्रांसजेंडर समुदाय के लोगों में काफ़ी बदलाव आया है और वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो रहे हैं। उन्हें लेकर बड़े आयोजन शहर में होने लगे हैं। यह अच्छी बात है.
5. तालाबों का ग़ायब होना, नदी का दूर होना आदि शहर की पहचान पर कितना असर डाल रहे हैं? इसके पीछे जो तंत्र है उसको किस तरह देखते हैं?
तालाबों का गायब होना या नदी की धारा का दूर होना यह सब आज की विकास प्रक्रिया की विडंबनाएं हैं. ऐसा नहीं कि पटना ही इसका शिकार है. पूरे देश का यही हाल है. पिछले एक-दो दशकों में कई बड़े शहरों और महानगरों में भारी बारिश से जल-जमाव का प्रकोप देखने को मिला है और उसके पीछे की वजह एक ही है-तालाबों-झीलों का गायब होना. सीवर प्रणाली का अपग्रेडेशन न होना. सीमेंट-कंक्रीट, प्लास्टिक से नालियों का मार्ग अवरुद्ध होना. दिक़्क़त यह है कि नागरिक समाज में भी पर्यावरण को लेकर कोई चिंता नहीं है. नदियों को लेकर कोई जागरूकता नहीं है. विकास के इस मॉडल को फिलहाल जनता का भी समर्थन हासिल है, लेकिन लोगों को समझ में नहीं आ रहा है कि यह उनके लिए एक बड़ा संकट पैदा कर रहा है। पटना में हर दो-तीन साल पर बाढ़ का संकट आ जाता है.
6. किताब परोक्ष अपरोक्ष शहर के सामाजिक ढाँचे पर भी विस्तार से बात करती है. इस ढाँचे को पिछले दो तीन दशकों में किस तरह से बदलता देखते हैं?
निश्चित रूप से शहर के सामाजिक ढांचे में बड़ा बदलाव आया है. करीब ढाई दशकों से मैं इसे बाहर से भी देख रहा हूं. बहुत कुछ बदला है. जैसे महिलाओं की स्थिति बदली है. अब सड़क पर औरतें बड़ी संख्या में दिखाई देती हैं. पुलिस जैसे महकमे में उनकी व्यापक उपस्थिति बहुत कुछ कहती है. महिलाओं का ठेले पर सब्ज़ी बेचना या ऑटो चलाना इसी परिवर्तन का सूचक है. लड़कियां दूसरे शहरों से कोचिंग करने आ रही हैं और यहां गर्ल्स पीजी में रहती हैं, यह सब हमारे समय में लगभग असंभव था. महंगे रेस्टोरेंट और कैफे खुलना लोगों के आर्थिक जीवन में आए बदलाव को दर्शाता है. अब सड़क पर झुंड के झुंड लड़के-लड़कियाँ बेफिक्र होकर आपस में गप मारते जाते दिखाई देते हैं. हमारे समय में यह संभव नहीं था.