आदिवासी मसले और लोकतंत्र
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अमेरिका से लौटते ही नए संसद भवन (Central Vista) की साइट पर पहुँच गए. उन्होंने साइट पर चल रहे कामकाज का जायज़ा लिया. संसद के नए भवन के साथ साथ नए प्रधानमंत्री आवास और कुछ और सरकारी इमारतों के निर्माण के फ़ैसले पर काफ़ी बहस हुई है. क्योंकि मोदी सरकार ने कोविड महामारी के दौरान सेंट्रल विस्टा प्रॉजेक्ट को शुरू कराने का फ़ैसला लिया था.
इस महामारी के दौरान लोग इलाज और दवा तो छोड़िए ऑक्सीजन तक के लिए मोहताज हो गए. ऐसे दौर में एक भव्य संसद भवन या प्रधानमंत्री निवास का काम शुरू करना, अखरता तो ज़रूर है. यह भी कहा जा रहा है कि अमेरिका यात्रा में मीडिया में पर्याप्त कवरेज नहीं होने से भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी शायद बेचैन थे, इसलिए उन्होंने सेंट्रल विस्टा की साइट का दौरा किया था.
नए संसद भवन और प्रधानमंत्री के फ़ोटो खिंचवाने के चस्के की जायज़ आलोचनाओं को भी नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. क्योंकि ये आलोचना नैतिकता से ज़्यादा जुड़ी हैं और जवाबदेही से कम. संसद की भूमिका, जिम्मदारियों और वर्तमान सरकार के रवैये से जुड़े कुछ ज़रूरी सवाल हैं जो पूछे जाने चाहिएँ.
नए और एक भव्य संसद भवन से जुड़ा जो अहम सवाल है कि क्या एक भव्य इमारत एक मज़बूत और प्रगतिशील लोकतंत्र का प्रतीक होगा. भारत के संविधान में संसद की जो भूमिका और ज़िम्मेदारी तय है, क्या उसके प्रति नरेन्द्र मोदी सरकार गंभीर है.
भारत के संविधान में देश के कमज़ोर (vulnerable) तबकों की पहचान की गई है. संविधान संसद को यह ज़िम्मेदारी देता है कि इन तबकों के लिए क़ानून बनाए और साथ साथ सरकार की नीतियों और योजनाओं की जवाबदेही तय करे.
मसलन भारत में आदिवासी समुदायों में से 705 आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति के श्रेणी में रखा गया है. इन समुदायों में से 75 आदिवासी समुदायों को आदिम जनजाति (Particularly Vulnerable Tribal Groups) के तौर पर पहचाना गया है. यानि ये वो समुदाय हैं जो आदिवासियों में भी पिछड़े हुए हैं. इन समुदायों में से कई समुदायों की आबादी लगातार घट रही है और उनके वजूद को ख़तरा बना हुआ है.
लेकिन देश की इस 10 प्रतिशत आबादी के मसले जब संसद में आते हैं तो सरकार का रवैया क्या होता है? हाल के मानसून सत्र पर नज़र डालेंगे तो हालात समझने में आसानी होगी.
मानसून सत्र के दौरान लोक सभा में तमिलनाडु के सांसद डीएम कातिर आनंद (DM Kathir Anand) ने सरकार से पूछा था कि तमिलनाडु में अभी तक आदिवासी समुदायों में कुल कितने लोगों को वैक्सीन दी जा चुकी है.
इसके जवाब में सरकार ने कहा है कि कोविड वैक्सीन के मामले में धर्म, जाति या समुदाय के आधार पर कोई भेद-भाव नहीं किया जाता है. इसलिए अलग से इसकी जानकारी भी दर्ज नहीं की जाती है.
तमिलनाडु में 2011 की जनगणना के अनुसार आदिवासियों की कुल जनसंख्या क़रीब 2.5 लाख है. इसमें 6 आदिवासी समुदायों को विशेष रूप से पिछड़े आदिवासी समुदायों (PVTG) के तौर पर पहचाना गया है.
मानसून सत्र में ही गुजरात से सांसद राजेश नारणभाई चुड़ासमा ने लोक सभा में जनजातीय मंत्रालय से एक सवाल किया. इस सवाल में उन्होंने पूछा कि पिछले 3 सालों में विस्थापित हुए आदिवासियों या आदिवासी परिवारों की संख्या क्या है? इसके साथ ही उन्होंने पूछा कि देश में राज्यवार कितने आदिवासी परिवार विस्थापित हुए हैं? सांसद ने इस सिलसिले में सरकार से पिछले 3 साल के आँकड़े और सरकार की नीति के बारे में पूछा था.
इसी सत्र में एक और सवाल कोविड महामारी के दौरान आदिवासी छात्रों के लिए बने एकलव्य मॉडल स्कूलों में पढ़ाई के वैकल्पिक इंतज़ाम पर भी पूछा गया. सरकार ने जवाब दिया कि यूट्यूब से आदिवासी छात्र पढ़ सकते हैं.
लेकिन अगर आप संसद में जनजातीय कार्य मंत्रालय की तरफ़ से दिए जवाब को पढ़ेंगे तो आपको यह समझ नहीं पाएँगे की आप हालात पर हंसे या रोएँ. जनजातीय कार्य राज्य मंत्री की तरफ़ से इस सवाल का काफ़ी विस्तार से जवाब दिया गया. यह जवाब कई पेज का था, लेकिन बात बस इतनी सी है कि उन्होंने इस सवाल के जवाब में बताया कि सरकार के पास पिछले 3 साल में विस्थापित हुए आदिवासियों की संख्या की जानकारी नहीं है.
संसद के मानसून सत्र में आदिवासियों की जीविका और रोज़गार, शिक्षा और स्वस्थ्य के अलावा विस्थापन और हिंसा पर कई सवाल हुए. इन सवालों के कई कई पेज के जवाब सरकार की तरफ़ से पेश किये गए. लेकिन मसला सिर्फ़ इतना है कि जो बात पूछी गई उसका जवाब नहीं दिया गया.
13 मई 2014 को प्रोफ़ेसर वर्जिनयस खा़ख़ा (Prof. Xaxa) की अध्यक्षता वाली हाइ लेवल कमेटी ने देश के आदिवासियों की स्थिति और उसे सुधारने के सिलसिले में एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी. 400 पेज से ज़्यादा की इस रिपोर्ट में कमेटी ने संविधान की अनुसूची 5 और अनुसूचित 6 के दायरे में आने वाले आदिवासी क्षेत्र, पेसा (PESA) और फ़ॉरेस्ट राइट्स एक्ट (FRA) जैसे क़ानूनों की ज़मीनी हक़ीक़त का अध्ययन पेश किया.
इसके अलावा आदिवासियों की जीविका, रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा के अलावा उन पर ज़बरदस्ती विस्थापन थोपने के बारे में भी तथ्य पेश किए थे. इस रिपोर्ट में पीवीटीजी यानि आदिम जनजातियों के मसलों को अलग से रखा गया है.
इस रिपोर्ट में हर मसले को तथ्यों और आँकड़ों के साथ समझाया गया है. इसके अलावा हर मसले का संभावित हल भी सुझाया गया है. लेकिन क्या आपने कभी सुना कि संसद में इस रिपोर्ट पर बहस हुई. बहस छोड़िए कोई संक्षिप्त चर्चा ही रखी गई है.
आदिवासी मंत्रालय में कुछ दिन पहले हुई रिव्यू मीटिंग के विवरण से पता चलता है कि इस कमेटी की रिपोर्ट पर अभी तक चर्चा और फ़ीडबैक का प्रोसेस का कुछ अता पता नहीं है.
सरकार के अलग अलग मंत्रालयों के काम काज की निगरानी के लिए संसद में विभाग संबंधित स्थायी समितियों की स्थापना की गई. इन समितियों की ख़ासियत ये होती है कि आमतौर पर यहाँ सांसद दल की निष्ठा से उपर उठ कर सरकार की नीतियों, योजनाओं और प्रस्तावित क़ानूनों पर अपनी राय रखते हैं.
स्थायी समितियों में सत्ताधारी दल के सांसद अगर प्रस्तावित क़ानूनों की आलोचना नहीं करते हैं तो भी कम से कम संशोधन का सुझाव ज़रूर देते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की वर्तमान सरकार क़ानूनों को स्थायी समिति को भेजने में विश्वास ही नहीं रखती है. स्थायी समितियों की कद्र अगर सरकार करती तो शायद आज किसान सड़कों पर ना पड़ा होता.
लेकिन स्थायी समितियों के बारे में एक और चिंताजनक ट्रेंड नज़र आ रहा है. इस ट्रेंड को समझने के लिए जनजातीय कार्य मंत्रालय की अनुदान माँगो पर सामाजिक न्याय विभाग से संबंधित स्थायी समिति की रिपोर्ट को पढ़ा जाना चाहिए. यह रिपोर्ट 12 फ़रवरी को लोकसभा और राज्य सभा में पेश की गई है.
इस कमेटी की अध्यक्ष रमा देवी हैं जो बिहार से बीजेपी की सांसद हैं. कमेटी ने नोट किया है कि सरकार की तरफ़ से आदिवासी मंत्रालय के बजट में कटौती की गई है. इस मसले पर सरकार के फ़ैसले की आलोचना करने की बजाए कमेटी की अध्यक्ष की तरफ़ से पेश रिपोर्ट में सरकार के कदम को जस्टिफ़ाई करने की कोशिश की जा रही है.
जब स्थायी समितियों की बात चल ही रही है तो यहाँ यह तथ्य बताना भी ठीक होगा कि अलग अलग मंत्रालयों से संबंधित कमेटियों में आदिवासियों या दलितों का प्रतिनिधित्व भी उनकी संख्या के अनुपात में नहीं है.
संसद में आदिवासी सांसदों को बोलने और अपने क्षेत्र या समुदाय के मसलों को उठाने और चर्चा करने का कितना अवसर मिलता है? इसका जवाब देते हुए पश्चिम बंगाल के झारग्राम के सांसद कुनार हेम्ब्रम ने हमें दिया था. उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी यानि बीजेपी के संसद में 300 से ज़्यादा सांसद हैं, उसमें उनका नंबर कैसे आए? इसके अलावा उन्होंने कहा कि आदिवासी सांसद के लिए तो भाषा और उच्चारण भी एक मसला रहता है.
भारत की संसद में अगर भाषाई और क्षेत्रिय विविधता नज़र नहीं आएगी. अगर सबसे कमज़ोर तबके के प्रतिनिधियों को संसद में बोलने का मौक़ा नहीं मिलेगा. आदिवासी और कमज़ोर तबकों का प्रतिनिधित्व करने वाले अगर संसद में बोलने में झिझकते हैं. तो फिर आप संसद की इमारत को भव्य तो बना सकते हैं, लेकिन उस भव्य इमारत को मज़बूत लोकतंत्र का प्रतीक नहीं बना सकते हैं.
ये लेखक के अपने विचार है
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