समय का वह सफ़हा है जब हवाई जहाज़ से लोग नीचे गिरते हैं, जहाँ मध्य एशिया के अधिकांश देश ध्वंस और निराशा के बिम्ब बन चुके हैं, जहाँ अपने ही नागरिकों से नागरिकता साबित करने के काग़ज़ माँगे जा रहे है , जहाँ एक यूरोपीय देश के समंदर तट पर औंधे पड़े बच्चे की तस्वीर दुनिया भर की स्मृति से तुरंत धूमिल हो जाती है, जहाँ अपने ही देश के नागरिकों पर पत्थर बरसाए जाते हैं, उन्हें महीनों कर्फ़्यू में रखा जाता है. यह समकालीनता जिस इतिहास की वजह से नुमायाँ है उस इतिहास के अन्वेषक अब्दुलरज्ज़ाक गुर्ना को नोबेल पुरस्कार मिलने के क्या मायने हैं?
अब्दुलरज्ज़ाक गुर्ना तंज़ानिया (तब के जांज़िबार) में अरबी सुल्तान के विरुद्ध हुए आंदोलन के समय(१९६४) वहाँ से भाग कर कई देशों से होते हुए शरणार्थी के रूप में ब्रिटेन पहुँचे. यूरोपीय कॉलोनियों की आज़ादी, फिर नए राष्ट्रों का निर्माण और इन नए राष्ट्रों में पैदा हुई राजनीतिक उथलपुथल ने कई सारे लोगों को दरबदर किया. मूल में साम्राज्यवाद और उससे जनित समस्याएँ ही रहीं. साहित्य में इन समस्याओं से जूझते लोगों, विशेष कर शरणार्थियों की समस्याओं का चित्रण इन सभी राष्ट्रों में पैदा हुए और वहाँ से निष्कासित/भागे लेखक और कवि करते रहे हैं. इसी परंपरा में अब्दुलरज्ज़ाक गुर्ना भी आते हैं. महमूद दरवेश की तरह निरंतर घर क्या हो इसकी कल्पना करते हुए, उसकी तरफ़ जाने का यत्न करते हुए.
१९४८ में जन्मे अब्दुलरज्ज़ाक गुर्ना ने दस उपन्यास लिखे हैं. १९९४ में बुकर के लिए नामित उपन्यास “पाराडाईज” से वे चर्चा के आए और यह ज़रूरी है कि इस उपन्यास की चर्चा करते हुए यह हम याद रखें कि महमूद दरवेश के प्रतिनिधि कविता संग्रह के नाम में भी यह शब्द आता है. उपन्यास इस लिहाज़ से भी महत्वपूर्ण है कि पूर्वी अफ़्रीका के औपनिवेशिक इतिहास को वह गल्प में बदलता और उस इतिहास के प्रति यूरोपीय दृष्टि की आलोचना करता है. इस नाते गुर्ना के पुरखे अचीबी और नगूगि जैसे उपन्यासकार ठहरते हैं। कोनराड जैसा उपन्यासकार और उसके अफ्रीकी उपन्यास भी दृश्य में बने रहते हैं. पाराडईज उपन्यास भी कोनराड को दिया गया उत्तर ही है- और उसकी आलोचना.
गुर्ना, अंग्रेज़ी और उत्तर उपनिवेशवाद के प्रोफ़ेसर रहे. स्मृति के नियंत्रण के युद्ध में वह पहली पंक्ति के योद्धा हैं, और रुशदी, सियंका सरीखे लोगों की पंक्ति में ही खड़े होते हैं। जब २०१८ में ऑल्गा तोकारचुक ने अपना अभिभाषण दिया था तो उन्होंने कनेक्शन की बात की थी- गुर्ना इसी के खो जाने और पुनर्निर्माण की जद्दोजहद में लगे लेखक हैं. उनका अपने वतन से दूर हो जाना उनको एक खास दृष्टि देता है- रुशदी अपना एक प्रसिद्ध लेख, जे.पी. प्रीस्ट्ली की एक पंक्ति से शुरू करते हुए कहते हैं कि भूतकाल भी एक विदेशी ज़मीन है. इसी लेख में वह जोड़ते हैं कि hyphenated identity वाले लेखकों के पास वतन और उसके इतिहास को देख सकने के लिए एक अनूठी पोज़िशन होती है. गुर्ना भी इसी बात से सहमत होते दिखते हैं.
अकादमी का रवैया पुरस्कारों के संदर्भ में हमेशा बहुत अड़ियल रहा है. चयन भी विवादों से भरे रहे हैं. इस नाते यह बेहतर चयन है पर यह भी लगभग तय लग रहा है कि अब सलमान रुशदी को यह पुरस्कार कभी नहीं मिलेगा. क्या यह भारतीय अंग्रेज़ी फ़िक्शन की तरफ़ कोई इशारा है? पश्चिम का बाज़ार ख़ास कर नब्बे के आख़िरी और इस सदी के पहले दशक में भारतीय मूल के लेखकों के प्रति ख़ासा उदार दिखाई देता था, अब नहीं. अगर पीटर हँके का नाम हटा दें तो नोबेल पुरस्कार पिछले तीन चार सालों में उदारवादी लेखकों की ओर मुड़े हैं, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है.
बहरहाल, इस चयन के मौक़े पर टोनी मॉरिसन को याद करना बनता है क्योंकि वह भी स्मृति की ही लड़ाई लड़ रहीं थीं. रुशदी का नाम मैं बार बार ले रहा हूँ. आगा शाहिद अली ने फ़ैज़ पर एक लेख लिखा है, द ट्रु सब्जेक्ट. उसमें वह कहते हैं कि महबूब का बिसर जाना कविता का मुख्य विषय है. महबूब की परिभाषा अलग अलग हो जा सकती है. गुर्ना के उपन्यास अपने वतन से बिसरे लोगों के संघर्ष की कथाएँ हैं और इस नाते विश्व का एक वैकल्पिक इतिहास – संघर्षरत लोगों की स्वर्ग की कल्पना, मोज़ेज़ के साथ रेगिस्तान में भटकते लोग थे जिस तरह विभाजन का दंश भारत और पाकिस्तान के लोग अभी तक झेलते हैं, जैसे महमूद दरवेश वतन की चाह में जीते रह गए, जैसे मक़बूल फ़िदा हुसैन भारत वापस आना चाहते थे. गुर्ना की लड़ाई भी यही है , शरणार्थियों के सम्मान की लड़ाई , जिसका सब छिन गया उसकी बात.
दूसरे देश में अपने सम्मान और अधिकारों के लिए लड़ता बाहरी व्यक्ति जिसको बार बार यह जताया जाता है कि वह अतिरिक्त है, और अपनी जगह पर नहीं है वह नक़्शों को देख कर क्या कहेगा? अब्दुलरज्ज़ाक गुर्ना एक जगह कहते हैं कि नक़्शे यह एहसास दिलाते हैं कि वतन पहुँच से दूर नहीं और उसको पाया जा सकता है, लूटने और ध्वंस के लिए नहीं, अथाह जीवन के लिए. बियाबान की अनंत भटकन के बदले घर की कल्पना का अपनी पहुँच में होना ही गुर्ना के लेखन का मूल स्वर है. अकादमी ने भी इसी चाह की चिंता को चिन्हित किया है. अब्दुलरज्ज़ाक गुर्ना अब और पढ़े जाएँगे और हम उनके अनुवादों से मुख़ातिब होंगे, इस आशा के साथ उनको बधाई.
ये लेखक के अपने विचार है.