सुभाष बाबू की 125 वीं जन्मजयंती को मोदी सरकार ने पराक्रम दिवस घोषित करते हुए, इस अवसर पर इंडिया गेट पर उनकी छाया -प्रतिमा स्थापित की है. पिछले साल भी इस अवसर को सरकार द्वारा 125वीं जयन्ती के रूप में ही आयोजित किया गया था और तब मैंने एक टिपण्णी भी लिखी थी कि साल भर पहले यह आयोजन क्या बंगाल विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने के उद्देश्य से किया गया है.
इस साल भी वैसी ही जल्दीबाजी की गई. जब पिछले वर्ष ही सरकार इस अवसर पर इंडिया गेट पर प्रतिमा स्थापित करने का मन बना चुकी थी, तब साल भर का समय वास्तविक प्रतिमा स्थापित करने के लिए पर्याप्त था. लेकिन मोदी सरकार चुनाव के वक़्त ही कुछ सोचती है, बाकि समय आराम फरमाती है.

इस साल भी आनन-फानन में सब कुछ हुआ. इंडिया गेट पर स्थापित अमर-जवान ज्योति को दो रोज पहले विस्थापित किया गया और कल यानी 23 जनवरी को छाया-प्रतिमा स्थापित कर एक शिगूफा छोड़ा गया कि देखो हम इस तरह इतिहास का निर्माण करते हैं.
दरअसल उनका मक़सद नेताजी सुभाष को प्रतिष्ठित करना उतना नहीं था, जितना उत्तरप्रदेश के समाजवादी नेताजी की पार्टी को धूलधूसरित करना था. मोदी जी पर तरस इसलिए आती है कि उन्हें पाखण्ड भी ठीक तरह से करने नहीं आता. पाखंड की पोल पट्टी यदि पहले ही खुल जाए, तो इसे आप क्या कहेंगे. लेकिन इस बिंदु को यहीं छोड़ हम भाजपा और संघ के सुभाष -प्रेम की पड़ताल करना चाहेंगे.
यह भाजपा का दुर्भाग्य है कि आज भी वह सीना तान कर अपने वास्तविक आकाओं, सावरकर और हेडगेवार की मूर्तियां सार्वजनिक स्थानों पर लगाने का साहस नहीं करते. भारत के नौजवानों में आज भी भगत सिंह का व्यक्तित्व और विचार एक जोश जगाता है; लेकिन भाजपा-संघ के पास जोश जगाने के लिए अधिक से अधिक नाथूराम गोडसे है, जिसकी चर्चा वह कम्बल ओढ़ कर भले कर लें, खुलेआम करने में शर्मिंदगी अनुभव करते हैं.
मोदी जी जब अपने तथाकथित राष्ट्र अभियान में निकले थे, तब भी उनके पास नायकों का टोटा था. ऐसे में उन्होंने एक कांग्रेसी सरदार पटेल की प्रतिमा का सहारा लिया. अब सात साल बाद एक दूसरे कांग्रेसी सुभाष बाबू याद आए हैं. इसे क्या कहा जाएगा? उनकी उदारता या उनकी मजबूरी!
सुभाष बाबू भारत के लिजेंड्री नेता रहे. जादुई व्यक्तित्व और देशभक्ति का जज्बा. गांधी तो अभिभावक हो गए थे, लेकिन जिन तीन लोगों की चर्चा 1930 के दशक में देश की राजनीति में सबसे अधिक थी, वे थे नेहरू, सुभाष और भगत सिंह.
भगत सिंह तो वैसे फूल थे, जो कली रूप में ही तोड़ लिए गए. 1931 में उन्हें फांसी दे दी गई. बचे थे अब दो, नेहरू और सुभाष. नेहरू से सुभाष उम्र में कोई आठ साल छोटे थे, लेकिन मित्रवत थे. दोनों ऊर्जा और साहस के अजस्र स्रोत. दोनों वामपंथी. नेहरू का वैचारिक आवेग कुछ जनतांत्रिक था. वह नास्तिक थे. आधुनिक तो थे ही. दुनिया भर के इतिहास और फलसफे को अधिक गहराई से देखते-समझते थे.
उनके लिए भारत विश्व का एक धड़कता हिस्सा था, जिसे वह दुनिया से अलग कर नहीं देख सकते थे. सुभाष की दुनिया भारत केंद्रित थी. वह भारत के नजरिए से दुनिया को देखते थे. दुनिया के नजरिए से भारत को देखना ,उनके लिए संभव नहीं हो पा रहा था.
हालांकि इसकी कोशिश करते वह दिखते जरूर थे. उनमें नेहरू के प्रति एक छुपा आकर्षण था. नेहरू के मन में भी सुभाष के प्रति एक छुपा आकर्षण था. सुभाष बोस नेहरू की तरह बौद्धिक होना चाहते थे, और नेहरू सुभाष की तरह बहादुर संगठनकर्ता. कुल मिला कर यह हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का उत्सव था. इसे समन्वित कर जो नहीं देखता है, वे एकांगी सोच के हैं.
सुभाष बोस कांग्रेस के दो दफा अध्यक्ष हुए. दूसरी दफा के चुनाव में वाम और दक्षिण का वैचारिक विभाजन हुआ, जिसमें गांधी के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैय्या का खुली चुनौती देकर सुभाष जीते. उनकी जिद थी कि कांग्रेस को एक वाम संगठन में तब्दील कर दिया जाए. अपने अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने हिन्दू सभा और मुस्लिम लीग के सदस्यों को कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण करने पर रोक लगा दी थी.
सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि अपने बंगाल में उन्होंने श्यामाप्रसाद मुखर्जी के हिन्दूमहासभाई तत्वों से कदम -कदम पर लोहा लिया. सुभाष बोस ने बंगाल में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों के खिलाफ सक्रिय भूमिका निभाई. 1938 में उन्होंने वाम समन्वय समिति का गठन किया, जिसमें सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, किसान सभा और दूसरे सभी मार्क्सवादी सामाजिक-राजनीतिक संगठन थे.
इस संगठन में संघ भी था क्या? मोदीजी को बतलाना चाहिए. जब सुभाष बोस ने कांग्रेस से अलग होकर फॉरवर्ड ब्लॉक बनाया और बाद में देश से बाहर जाकर आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया, तब भाजपा के पुरखे क्या कर रहे थे?
सावरकर ने हिन्दुओं से ब्रिटिश फौज में भर्ती होने की अपील की थी. यही भर्ती हुए ‘हिन्दू’ सुभाष बोस की आज़ाद हिन्द फौज से लड़ रहे थे. इस सच्चाई को मोदी जी क्यों छुपा रहे हैं.
ईमानदारी का तकाजा है कि भाजपा को यह सारा इतिहास मुल्क की जनता को बताना चाहिए. लेकिन नहीं वे इतिहास को सुधार रहे हैं. वे धर्म को, मंदिरों को, देवी -देवताओं सबको सुधारने में लगे हैं.
पिछले सत्तर साल के इतिहास को सुधारना उनके अजेंडे में सबसे ऊपर है. कल प्रधानमंत्री मोदी जब बोल रहे थे, हास्यास्पद और दयनीय लग रहे थे. हमारे संतों ने हमेशा कहा है कि स्वयं को सुधारो. दूसरों को सुधारना असंभव है.
आदमी स्वयं को जब सुधार लेता है तब एक उदाहरण बन जाता है, जैसे गांधी बन गए थे, और फिर यह परिमार्जित व्यक्तित्व दूसरों को प्रेरित करता है. कभी ऋषि दण्डायन सिकंदर के इस वक्तव्य पर हंसा था कि वह विश्वविजेता है.
ऋषि का कहना था, मनुष्य पूरी जिंदगी स्वयं पर ही विजय नहीं पा सकता, दुनिया क्या जीतेगा. लेकिन जो घमंड में होते हैं ,वे आत्मसुधार नहीं, दूसरों का सुधार करते रहते हैं.
मोदीजी को अपने और अपने संघ के सुधार की चिंता करनी चाहिए. इतिहास सुधारने की जिद वह नहीं करें तो अच्छा. इतिहास स्वयं को सुधारता रहता है.
मोदीजी में साहस है तो वह ईमानदारी से सुभाष बोस की वैचारिकी से राष्ट्र को परिचित करावें. क्यों नहीं वे उनके फॉरवर्ड ब्लॉक के लाल झंडे को अपनी पार्टी का झंडा बना लेते हैं. हसिया हथौड़ा और उछलता बाघ. कितना तो सुन्दर होता. सुभाष बाबू की राजनीति और वैचारिकी को भाजपा की वैचारिकी बनाने के लिए वह पार्टी के अगले अधिवेशन में कोई प्रस्ताव लाएंगे तो मैं एक नागरिक के रूप में इसका अभिनन्दन करूँगा.
- प्रेम कुमार मणि के फेसबुक वाल से साभार