कुमार शहानी को हिन्दी समानांतर सिनेमा का अगुआ माना जाता है। बेशक़ ज्यादातर लोग उनके विषय में जानते भी नहीं हैं। उनके विषय पर फ़िल्मी मजलिसों में कोई चर्चा भी नहीं है। उनकी पहली फ़िल्म माया दर्पण (1972) को हिन्दी की पहली समानांतर फ़िल्म मानी जाती है। ऋत्विक घटक जब पुणे के फ़िल्म इंस्टिट्यूट में पढ़ाते थे तब कुमार उनके शिष्यों में से एक रहे। माया दर्पण रिलीज़ के बाद दर्शकों और ख्याति से दूर ही रही किन्तु हिन्दी फ़िल्म क्रिटिक की जुबान पर इस फ़िल्म का नाम अवश्य आया। हालांकि इस फ़िल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। ऋत्विक घटक के शिष्य थे, लाज़िमी था उनकी फ़िल्म सत्यजित रे ने भी देखी और कड़ी आलोचना की। सत्यजित रे ने यहाँ तक कह दिया कि मायादर्पण खराब मनोविज्ञान और खराब शैली का संयोजन है। इसे सत्यजित रे की भलमनसाहत ही कहेंगे कि मणि कौल के अलावा कुमार की फ़िल्म पर भी उनके निबंध हैं।
फ़िल्म की कहानी आज़ादी के ठीक बाद के सामाजिक और पारिवारिक संरचना के बदलाव के ऊपर है। फ़िल्म के केंद्र में एक धनाढ्य रूढ़िवादी जमींदार परिवार की बेटी है, इस परिवार का मुखिया जिन्हें अंग्रेजों ने दीवान की उपाधि दी थी, वे अब भी अंग्रेजों के संसर्ग के मोह को त्याग नहीं पाए हैं। कुमार की सिनेमाई कैनवस पर फिल्माया गया यह फ़िल्म एक अकेलेपन से घिरी स्त्री की दुखद छवि है और जो एक अनजान राहत के लिए कभी न खत्म होने वाले इंतजार से परेशान है। माया दर्पन, तरण की कहानी है। वह अपने पिता और विधवा बुआ (बाल विधवा) के साथ रहती है और अपने भाई के साथ पत्रों के माध्यम से पत्राचार करती है, जो अपने पिता के साथ झगड़े के बाद घर छोड़कर असम में एक टी स्टेट की नौकरी कर रहा है। उसके कस्बे में एक इंजीनियर भी है जो इस उनींदी शहर में औद्योगिक कार्यों की देखभाल कर रहा है, जिसके प्रति तरण की आसक्ति है।
विषयगत स्तर पर माया दर्पन अंतरंग और गीतात्मक शैली में बनी फ़िल्म है। वैसे इस फ़िल्म से गहरी राजनीतिक फिल्म होने अनुभूति भी होती है। अभिजात्य वर्ग के पतन के बावजूद जातिगत पूर्वाग्रह अभी भी तरण के पिता में मौजूद है। वे तरण का विवाह साधारण मूल के व्यक्ति से देने के पक्ष में नहीं हैं। फ़िल्म अपनी चुप्पी में भी पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादिता के जकड़न पर चीखती नज़र आती है। इतनी बारीक ध्वनि और दृश्य का संयोजन मैंने कम फ़िल्मों में ही देखा है। फ़िल्म में बार-बार प्रयुक्त हुए “गुजरते रेल की ध्वनि” तरण को उन्मुक्त होने के लिए उद्धत रूप से प्रेरित करती है। कैमरा के ब्लर या अव्यवस्थित ढंग से किये गए फिल्मांकन से भी कई अर्थ फूटते हैं। दरअसल कुमार अपने दो फ़िल्म तपस्वी गुरु ऋत्विक घटक और रॉबर ब्रेसों (फ्रांस के प्रसिद्ध फ़िल्मकार) के यथार्थवादी दृष्टि को फ़िल्म में लाने के प्रयास में अतिसाधारण योग्यता वाले कलाकारों को इस फ़िल्म में जगह दी। कई दृश्य दुबारा फ़िल्माये जाने की जरूरत होने के बावजूद जानबूझ कर छोड़ दिया गया लगता है। कुछ दृश्यों के निर्माण इतने अद्भुत थे कि वस्तुओं की दिशा बदलकर संवाद पैदा किया गया। एकालाप कविता पाठ के सौन्दर्य को निखारने के बजाय उसे अतिसाधारण और बोझिल बने रहने दिया। विशाल हवेली से तरण के एकाकीपन का बार-बार सामना करवाया गया। साड़ी में छुपने की कोशिश करती उसके पैरों की उँगलियाँ , गुथे हुए हाथों की भाषा, बोझिल पैरों से हवेली में घूमना, एक उम्मीद से हवेली के बाहर निकलना : बहुत कुछ कह जाता है। तरण की मुक्ति प्रेम के आवेग में निहित थी अंततः अपने से जकड़ी हुई तमाम बंधनों को मुक्त कर देती है – अनुराग, ताप, भावना, भय यहाँ तक की अपनी देह भी। फ़िल्म निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित है। फ़िल्म अप्रत्याशित रूप से एक समूह नृत्य के झांकी से खत्म होने लगती है। तरण की मुक्ति अपने प्रेमी के आलिंगन, चुंबन और एक हँसी से दृशगत होती है और समूह नृत्य उस वर्तमान के वर्ग-संघर्ष को दर्शा रहा है।
ये लेखक के अपने विचार हैं.