नीति आयोग ने सोमवार को हेल्थ इंडेक्स जारी किया है. जारी किए गए इस चौथे हेल्थ इंडेक्स के अनुसार केरल राज्य पहले नंबर पर रहा तो वहीं उत्तर प्रदेश सबसे निचले पायदान पर है. उत्तर प्रदेश से ठीक एक पायदान ऊपर बिहार राज्य है. देखा जाए तो केरल ने टॉप किया है मगर बिहार ने भी दूसरा पायदान पाया है, नीचे से गिना जाए तो. और इसी के साथ क्रमशः आती एक और रिपोर्ट ने बिहार के बदहाली की पोल खोल दी है.
देश की सभी बड़ी योजनाओं को बनाने के लिए थिंकटैंक कहे जाने वाले नीति आयोग ने सोमवार को स्वास्थ्य सेवाओं में प्रदर्शन के आधार पर एक रिपोर्ट जारी की है. चौथे राउंड के हेल्थ इंडेक्स के लिए साल 2019-20 का आकलन किया गया है. इस सूची में 19 बड़े राज्यों के बीच केरल को पहला जबकि बिहार को 18वां स्थान मिला है. बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं देने के मामले में छोटे राज्यो में मिजोरम पहले पायदान पर रहा, जबकि दूसरे नंबर पर त्रिपुरा और नागालैंड सबसे आखिरी पायदान पर रहा. गौरबतल है कि नीति आयोग द्वारा ज़ारी किए गए पिछले साल के हेल्थ इंडेक्स (2018-19) में भी बिहार 30.24 अंकों के साथ 18वें नंबर पर था और इस साल भी सरकारी तंत्र की तरह कुर्सी पकड़ें 18वें नंबर पर ही बैठा हुआ है. मतलब सुधार के नाम केवल “शून्य”.
हेल्थ इंडेक्स में किस राज्य का कौन सा नंबर?
राज्य | नंबर | अंक |
केरल | 1 | 82.80 |
तमिलनाडु | 2 | 72.42 |
तेलंगाना | 3 | 69.96 |
आंध्र प्रदेश | 4 | 69.95 |
महाराष्ट्र | 5 | 69.14 |
गुजरात | 6 | 63.59 |
हिमाचल प्रदेश | 7 | 63.17 |
पंजाब | 8 | 58.08 |
कर्नाटक | 9 | 57.93 |
छत्तीसगढ़ | 10 | 50.70 |
हरियाणा | 11 | 49.26 |
असम | 12 | 47.74 |
झारखंड | 13 | 47.55 |
ओडिशा | 14 | 44.31 |
उत्तराखंड | 15 | 44.21 |
राजस्थान | 16 | 41.33 |
मध्य प्रदेश | 17 | 36.72 |
बिहार | 18 | 31.00 |
उत्तर प्रदेश | 19 | 30.57 |
नीति आयोग की तरफ से देश के सभी राज्य व केंद्रशासित प्रदेशों के स्वास्थ्य पैरामीटर पर जारी इस हेल्थ इंडेक्स को तैयार करने के लिए 24 पहलुओं को ध्यान में रखा गया है. इंडेक्स मुख्य रूप से तीन भागों में बांटा जा सकता है- हेल्थ आउटकम, गवर्नेंस एंड इंफॉरमेशन और इनपुट्स एंड प्रॉसेस. विश्व बैंक की तकनीकी सहायता और स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के सहयोग से यह रिपोर्ट तैयार की गई है.

इस इंडेक्स में बिहार तमाम स्वास्थय सूचकों में फिसड्डी साबित हुआ है. जैसे कि कुल जन्म दर,जन्मजात लैंगिक दर, अस्पतालों में डिलीवरी, टीबी की दर, टीबी सफल उपचार की दर, एएनएम और स्टाफ नर्स की रिक्तियां, 24 घंटे सातों दिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का संचालन, जन्म पंजीकरण आदि मामलों में भी बिहार ज्यादातर राज्यों से काफी पीछे है. हो भी कैसे नहीं, जिस राज्य में चमकी बुखार तांडव करता हो और वहां के डॉक्टर के पास थर्मामीटर तक ना हो ऐसे राज्य से क्या उम्मीद किया जा सकता है. यहां के मुख्यमंत्री स्वयं और उनके तंत्र भी आंख बंद कर सो गए हैं और ठीक वैसे ही बिहार को भी तकिया-बिछौना लगाकर सुलाने को आतुर बैठे हैं.
अंतिम स्थान घेर कर बैठे हैं “दोनों पड़ोसी राज्य“
लगातार चौथे सूचकांक में सभी मानकों पर केरल का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहा. दक्षिण भारत के ज्यादातर राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है. ये लगातार चौथा राउंड रहा जब केरल टॉप पर रहा. इससे पहले 2015-16, 2017-18 और 2018-19 में भी केरल पहले नंबर पर रहा है. इस बार पहले स्थान पर 82.20 अंकों के साथ केरल के बाद क्रमशः तमिलनाडु और तेलंगाना ने दूसरा और तीसरा स्थान पाया है. इसी लीस्ट में नीचे से उत्तर प्रदेश और बिहार ने अंतिम दो स्थान को सालों से घेर रखा है.
आपको बता दें वर्तमान में यूपी में भाजपा की सरकार है और बिहार में भी भाजपा के गठबंधन की सरकार, और तो और केंद्र में भी भाजपा की ही सरकार है. बावजूद इसके ये दो पड़ोसी राज्य अपनी बदहाली को गले लगाए बैठे हैं. बात अगर सिर्फ बिहार की ही करें तो हेल्थ इंडेक्स के बीते सभी रिपोर्ट में बिहार को नीचे ही पाया गया है. और यहां के मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक ऐसे रिपोर्टों को झूठ बताने से चूकते नहीं हैं. बदले में बस एक बचाव यंत्र “विशेष राज्य का दर्जा” की मांग लेकर सामने आ जाते है. खैर! इस रिपोर्ट से यह बात तो साफ हो गई है कि भले ही बिहार राज्य में मरीजों को स्ट्रेचर मिले ना मिले मगर राज्य स्ट्रेचर पर ज़रूर आ चुका है.
केरल से सीखे बिहार
ऐसा पहली बार नहीं है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में केरल ने पहले स्थान की उपलब्धि हासिल की है या बिहार की स्थिती दयनीय साबित हुई है. लगातार चौथे सूचकांक में सभी मानकों पर केरल का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ रहा. जबकि बिहार बदहाली के आंसू बहाता दिखा है. ऐसे में बिहार को केरल से सीखना चाहिए कि कैसे केरल लगातार स्वास्थ्य पर ध्यान देने वाले राज्यों में से एक है. कोरोना संक्रमण की पहली लहर के दौरान भी केरल ने सक्रियता दिखाते हुए महामारी पर अंकुश लगाने में कामयाबी हासिल की थी और इसकी तारीफ भी हुई थी. जबकि बिहार में चिकित्सकों को कमी से लेकर हेल्थ वर्कर्स के बगैर टिके के काम करने तक का मामला सामने आते रहा है. समय-समय पर इसे लेकर हाय-तौबा मचती रही है किंतु परिस्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया.
जबकि केरल ने एक बहुस्तरीय स्वास्थ्य प्रणाली बनाने के लिए बुनियादी ढांचे में निवेश किया और एकीकृत प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल कवरेज का विस्तार किया. विभिन्न रिपोर्टस के मुताबिक केरल ने तेजी से चिकित्सा सुविधाओं, अस्पताल के बिस्तरों और डॉक्टरों की संख्या को बढ़ाया. 1960 से 2010 तक, डॉक्टरों की संख्या 1200 से बढ़कर 36,000 हो गई. वहीं 1960 और 2004 के बीच प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं की संख्या 369 से बढ़कर 1356 हो गई. इसी वजह से नवजात मृत्यु दर, पांच साल से कम उम्र के मृत्यु दर और लिंग अनुपात जैसे कई स्वास्थ्य परिणामों के मानकों पर राज्य का प्रदर्शन लगातार बेहतर रहा है.
डब्लूएचओ के मानकों के अनुसार प्रति एक हजार की आबादी पर एक चिकित्सक होना चाहिए, किंतु बिहार में 28 हजार से अधिक लोगों पर एक डॉक्टर है. वर्तमान बिहार में स्वास्थ्य व्यवस्था इतना खोखला हो चुका है कि जिम्मेवार लोग इसकी खोखली सतह को तोड़कर बाहर निकल कर गायब हो जाते हैं. स्थिति यह है कि अब बिहार को “ग्राउंड टू अर्थ” राज्य कहा जाने लगा है. क्योंकि जहां बाकी राज्य आसमान छूने की तैयारी में लगे हैं वहीं बिहार हरेक मानकों पर ज़मीन में लोटता नजर आता है.