रशीद किदवई की किताब प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल का ऐतिहासिक दस्तावेज है.

प्रधानमंत्री महज एक शीर्ष पद का नाम नहीं है, बल्कि वह एक ऐसी गरिमा का पर्याय है जिससे देश का भूत, वर्तमान और भविष्य जुड़ा होता है और उसी पर ये भी निर्भर होता है कि उस देश का इतिहास क्या होगा. इसलिए ये जाहिर है कि इस पद को शोभायमान करने वाला व्यक्ति अपने किरदार में सबसे ज्यादा ईमानदार और सबसे ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए.

एक प्रधानमंत्री का हर एक लफ्ज मायने रखता है, इसलिए देश की जनता के सामने उसे हर बात बहुत सोच-समझकर ही रखनी चाहिए. इत्तेफाक से हम एक ऐसे दौर में हैं जब देश के प्रधानमंत्रि‍यों के बारे में सबसे ज्यादा बातें होती हैं. हालांकि, हमारे यहां तो प्रधानमंत्री के बजाय प्रधान सेवक होने का एक नए राजनीतिक शब्द पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा है और इसके लिए ही पूर्व प्रधानमंत्रियों के बारे में तरह-तरह की बेबुनियाद बातें कही जाने लगी हैं. यह न केवल एक देश के लिए बुरा है, बल्कि हमारे मानस के लिए भी उचित नहीं है.

एक दूसरे नजरिए से कहें तो एक लोकतांत्रिक देश में राजनीति उसके समाज का वह मुख्य पहलू है जिससे यह तय होता है कि उस देश का इतिहास क्या और कैसा होगा. और इस इतिहास के बनने की जिम्मेदारी देश के मुखिया के इर्द-गिर्द कुछ ज्यादा ही दिखाई देती है. इसलिए हर किसी के लिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि उस मुखिया का कार्यकाल कैसा रहा होगा.

आज जिस तरह से देशभर में पूर्व प्रधानमंत्रियों को लेकर मनगढ़ंत बातें समाज में फैलाई जा रही हैं, ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि पूर्व प्रधानमंत्रियों के देश-काल और कार्यकाल की सही-सही जानकारी लोगों तक पहुंचाई जाए ताकि आम लोग अपने देश की ऐतिहासिक वास्तविकताओं से दूर न होने पाएं. किसी के बारे में फेक न्यूज फैलाने का सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि उस आदमी की अच्छाइयों को लोग भूलने लगते हैं और उसके बारे में फैलाई गई फेक बातों पर भरोसा करने लगते हैं.

ऐसे में यह जानना बेहद जरूरी हो जाता है कि किसी प्रधानमंत्री का कार्यकाल कैसा रहा और उसकी अच्छाइयां-बुराइयां या फिर उपलब्धियां वगैरह क्या रहीं. इसी जरूरी काम को अंजाम दिया है वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई ने, जिन्होंने पहले प्रधानमंत्री से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री तक के कार्यकाल का ऑथेंटिक तथ्यों के साथ बहुत ही निष्पक्ष और सारगर्भित विश्लेषण किया है.

आजादी के 75वें साल में आई रशीद किदवई की किताब ‘भारत के प्रधानमंत्री : देश, दशा, दिशा’ ऐसी पहली किताब है जिसमें देश के सभी पंद्रह प्रधानमंत्रियों (पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक) के कार्यकाल के बारे में तथ्यपरक अध्ययन पेश किया है. सभी प्रधानमंत्रियों की मुख्य उपलब्धियां, उनके द्वारा उठाए गए साहसिक कदम, महत्वपूर्ण समझौते, कूटनीतिक पहल, अनियमितताएं और घोटाले, लागू हुए विवादित कानून, ऐतिहासिक एवं दूरगामी फैसलों के साथ ही कुछ के विवादित फैसले आदि ऐसे मुख्य बिंदु हैं जिनके बारे में रशीद किदवई ने तथ्यपरक विश्लेषण किया है.

किताब को पढ़ते हुए यह साफ नजर आता है कि ये सारे मुख्य बिंदु मिलकर प्रधानमंत्रियों और उनके कार्यकाल के बारे में एक ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज बनाते हैं जिसमें ‘देश’ की ‘दशा’ और ‘दिशा’ का वृहद आख्यान नजर आता है. राजकमल प्रकाशन से छपी यह किताब सभी प्रधानमंत्रियों का निष्पक्ष आकलन तो है ही, साथ उनके समयों की राजनीति, लोकनीति, वैचारिकता, नीतियां, शीर्ष नेतृत्व की कारगुजारियां, संसदीय कामकाज, राजनीतिक भ्रष्टाचार, शासनिक एवं सांस्थानिक अनियमितताएं, आदि की भी निष्पक्ष पड़ताल है. तो जाहिर है कि ‘व्हॉट्सएप यूनिवर्सिटी’ द्वारा फैलाई गई फेक सूचनाओं से प्रभावित हुए वर्तमान भारतीय लोकतंत्र की दशा को देखते हुए उसके पुनर्निर्माण का संदेश भी इस किताब में दर्ज है कि हमें किन बातों पर यकीन करना चाहिए और किन बातों पर नहीं. इससे पूर्व प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल को लेकर सकारात्मक वैचारिकी भी लोगों में विकसित होगी.

किसी भी लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि अपने ‘देश’ की ‘दशा’ को समझकर उसके लिए अच्छी नीतियों से भरी ‘दिशा’ तय करे. और खास तौर से यही मुख्य लक्ष्य उस देश की राजनीति का भी होना चाहिए. लेकिन आज हम जिस दौर में रह रहे हैं, उसमें खुद राजनीति की दशा ही जब ठीक नहीं है तो फिर उससे एक बेहतर दिशा की उम्मीद क्या ही कर सकते हैं. नेहरू ने जिस लोकसत्ता की संकल्पना की थी उसमें सामूहिक जिम्मेदारी का भाव था लेकिन अब सिर्फ प्रधानमंत्री कार्यालय ही पूरी तरह से केंद्रीय सत्ता पर काबिज है. ऐसे में यह तो होना तय ही है कि मंत्रिमंडल से लेकर तमाम संवैधानिक संस्थाओं तक अपनी प्रासंगिकता खो दें. प्रासंगिकता तो प्रधानमंत्री का पद भी खो चुका है मौजूदा राजनीतिक इतिहास में, ऐसे में विभिन्न समीतियों-संस्थाओं की कौन ही कहे.

अब पार्टियां ही सत्ता का समानांतर केंद्र बनने लगी हैं और मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी और कर्तव्य की अवधारणा विलुप्त हो गई है. जाहिर है, इससे लोकतंत्र तो प्रभावित होगा ही. देश के मौजूदा हालात को इस मद्देनजर देख सकते हैं, जहां मीडिया अपनी शाख खो चुका है और बाकी संवैधानिक संस्थाओं पर से लोगों का भरोसा टूट रहा है.

मनमोहन सिंह का वह कथन याद आता है कि इतिहास उन्हें याद रखेगा, तो निश्चित रूप से अब हम उन्हें याद ही नहीं कर रहे, बल्कि उन जैसे प्रधानमंत्री की कमी भी महसूस कर रहे हैं तो यह इस बात की तस्दीक है कि वर्तमान में प्रधानमंत्री पद की गरिमा में दाग लग गए हैं.

अर्थव्यवस्था से लेकर सामाजिक ताने-बाने तक बिखरता जा रहा है. धार्मिक आस्था से लेकर सामुदायिक सद्भावना तक छिन्न-भिन्न हो चुका है. राजनीति से लेकर नीतियों तक भ्रष्टाचार की बलि चढ़ चुकी हैं. संवैधानिक संस्थाओं से लेकर निजी संस्थाओं तक में अनियमितताएं व्याप्त हैं. शासनिक-प्रशासनिक ढांचे से लेकर समरसता भरे सामाजिक ढांचे तक खंडित हुए पड़े हैं. कुल मिलाकर लोकतंत्र के सारे आवश्यक स्तंभ अपने वास्तविक वजूद में नहीं हैं, बल्कि दासता या चाटुकारिता की जद में आकर अपनी मर्यादाएं खो चुके हैं. जाहिर है, इन सबके के अध्ययन से ही आज का इतिहास आने वाले समय में एक बुरे समय का द्योतक बन जाएगा. ऐसे में जरूरी है कि हम अपने प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल को पढ़ें और राष्ट्रनिर्माण की परिकल्पना को भी समझें, ताकि देश की अखंडता को अक्षुण्ण रखा जा सके.

हमारे सभी पंद्रह प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल को लेकर यह किताब तथ्यपरक आंकड़ों के साथ जिस गहराई से इनकी राजनीतिक पड़ताल करती है, वह बेहद रोचक और जानकारीपरक है. इसलिए यह सिर्फ आम पाठकों, राजनीतिक विशेषज्ञों या पत्रकारों के लिए ही नहीं, बल्कि विद्यार्थियों के लिए भी बहुत उपयोगी साबित होगी. राजनीतिक छोर से आने वाली गलत और दिग्भ्रमित करने वाली सूचनाएं देश की दशा-दिशा को पथभ्रष्ट कर सकती हैं. यह किताब इस बात की सीख दे सकती है कि किसी राष्ट्रनिर्माता के बारे में सतही राय बनाने से पहले उसके बारे में पूरी तरह से जानकारी हासिल कर ली जाए. बेशक उनकी कमियों की आलोचना की जाए, लेकिन उसमें नफरत का भाव न हो, बल्कि वो कमियां दोहराई न जाएं, इसकी सीख शामिल हो.

किताब – भारत के प्रधानमंत्री : देश, दशा, दिशा
लेखक – रशीद किदवई
प्रकाशक – राजकमल प्रकाशन (सार्थक)
मूल्य – 299 रुपये (पेपरबैक)

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