चंडीगढ़ करे आशिकी के बहाने नगरकीर्तन || फिल्म समीक्षा

भारतीय समाज में अभी भी ट्रांसजेन्डर को लेकर लोग सहज नहीं हैं. एक वर्ग जहां उनके जीवन की दुश्वारियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं लेकिन अपने निजी जीवन में वे उन्हें कभी भी स्वीकार नहीं कर सकते हैं. अभी हाल में ट्रांसजेन्डर पर बॉलीवुड में एक फ़िल्म बनी है – चंडीगढ़ करे आशिक़ी. इस फ़िल्म की खासी चर्चा होगी और खूब देखी भी जाएगी. हिन्दी मुख्यधारा की फिल्मों में ऐसे विषय पर फ़िल्म बनाने का जोखिम शायद ही कोई उठाता है.

हालांकि इस फ़िल्म को देखकर यह जोखिम भरा कदम नहीं लगता है क्योंकि जिस विषय पर फ़िल्म बन रही है उसकी अनुभूति फ़िल्म में रत्ती भर भी नहीं है. सिर्फ़ संवाद के जरिए किरदार को यह एहसास दिला देना कि उसकी इस समाज में कोई स्थान नहीं है – यथोचित नहीं लगता है.

ऐसी फिल्मों के लिए वर्जनाओं को तोड़ने का साहस चाहिए. इस फ़िल्म के जरिए कोई खास संदेश दर्शकों तक नहीं पहुंचेगा, यह तय है क्योंकि ट्रांसजेन्डर की भूमिका जिस खूबसूरत नायिका को सौंपी गई है उससे आम लोगों के मन में वो असहजता या पीड़ा महसूस नहीं होगी जिस असहजता को फ़िल्म के नायक के जरिए दिखाया गया है.

नायक अपनी वासना तृप्ति के बाद इस एहसास से असहज हो उठता है कि जिसके साथ वह हमबिस्तर हुआ है वह कोई स्त्री नहीं बल्कि ट्रांस गर्ल है. एक गवर्नमेंट स्कूल के लड़के को चंद वीडियो देखने के बाद यह एहसास हो जाता है कि ट्रांस गर्ल को अपनाना कोई अस्वाभिक घटना नहीं है. उसकी भावना उन वीडियोज़ से तो जाग जाती है किन्तु उस ट्रांस गर्ल के लाख समझाने और गिड़गिड़ाने से नहीं जागती.

इन कारणों से भी मुझे इस फ़िल्म के मनोवैज्ञानिक पहलुओं से भी अस्वीकृति है. दरअसल इसे महज़ यह विषय दिया गया है जबकि यह पूरी तरह से आम बॉलीवुड वाला मसाला फ़िल्म ही है. आयुष्मान खुराना हमेशा कुछ नया और हटकर काम चुनते हैं.

वे कहीं से भी अपने इस चुनाव में दोषी नहीं हैं बल्कि बाज़ार ने विषय की गंभीरता को नष्ट किया है. मुझे उम्मीद है हिन्दी में हमें इस विषय पर कुछ सार्थक फ़िल्म देखने को मिलेगी. इस विषय को अलीगढ़ की तरह ही गंभीरता से लेने की जरूरत थी जिसमें चूक हुई है. मुझे यह भी विश्वास है कि यह फ़िल्म खूब चलेगी क्योंकि नायिका की जगह किसी प्रयोग का दुस्साहस फ़िल्मकार ने नहीं किया बल्कि उन्होंने दर्शकों के ज़ायके का खासा ख्याल रखा है.

कौशिक गांगुली 2017 में ट्रांसजेन्डर पर एक फ़िल्म बनाते हैं – नगरकीर्तन. इस फिल्म को देखने के बाद मैं दो दिनों तक कुछ और देखने लायक नहीं था. एक बार सोचा भी था कि इस फ़िल्म पर कुछ लिखूँ लेकिन हर बार लिखते वक़्त इस फ़िल्म की नायिका पुटी (परिमल) का चेहरा सामने आ जाता.

आज जब चंडीगढ़ करे आशिक़ी देखा तो नगरकीर्तन पर लिखने की इच्छा प्रबल हो गई. एक किशोर जिसका शरीर तो पुरुष जैसा था लेकिन मन पूरी तरह से एक स्त्री का था. फ़िल्म वर्तमान और फ्लैश्बैक के बेहतरीन संयोजन और सामंजस्य से आगे बढ़ती है. पुटी जिसे किन्नरों के दल का एक सदस्य दिखाया गया है.

फ़िल्म का नायक चैतन्य महाप्रभु के जन्मस्थान नबद्वीप के वैष्णव समाज का एक लड़का है. जिसने अपने परंपरागत कीर्तन गाने वाले परिवार से अलग शहर में एक चाइनीज़ रेस्तरां का डेलीवरी बॉय का काम करता है. अपने परिवार से मिले संगीत के हुनर में उसे बाँसुरी मिलता है. इस हुनर ने उसके आपाधापी वाले जीवन में थोड़ा रस बचाए रखा था.

एक मंदिर के साप्ताहिक कीर्तन में वह बाँसुरी बजाता है. उस कीर्तन का एक वृद्ध संगी एक रोज़ अस्वस्थ हो जाते हैं. मधु जो इस फ़िल्म का नायक है अपने वृद्ध संगी को देर रात उसके घर छोड़ने आता है. उस वृद्ध को किन्नरों ने अपने घर में सहारा दिया हुआ था. देर रात होने की वज़ह से मधु को भी वहीं रुकना पड़ता है। सुबह उसकी मुलाक़ात पुटी (परिमल) से होती है.

दोनों ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। पुटी और मधु के रिश्ते गहराते जा रहे थे. यह बात जब पुटी के गुरुजी (किन्नरों की मुखिया) को पता चलती है तो पुटी को वह बहुत पीटती है और मधु को धमका देती है. एक रोज़ मधु पुटी को लेकर दूसरे शहर भाग जाता है. दोनों दैहिक रूप से भी एक दूसरे से जुडते हैं.

पुटी ने अभी तक अपना जेन्डर कंवर्जन नहीं करवाया था जिसे लेकर मधु और पुटी बेहद गंभीर हैं. मधु पुटी को दिलासा देता है कि वह इस ऑपरेशन में उसका मदद करेगा. पुटी ऑपरेशन से डरती भी है. पुटी की चिंता इस ऑपरेशन के असह्य पीड़ा से ज्यादा मोटे खर्च की चिंता है. पुटी के शुरुआती जीवन की कहानी भी बहुत दर्दनाक रही थी इसलिए पुटी मधु से मिलने के बाद एक नई उम्मीद लेकर आगे बढ़ रही है.

अपनी शारीरिक संरचना से निरुपाय पुटी को शुरुआती जीवन में धोखा मिल चुका था इसलिए पुटी भी इस अस्वीकार्य देह से मुक्त होने के लिए संघर्ष करने का ठान लेती है. कृष्णनगर कॉलेज की प्रिन्सपल मानवी बंदोपाध्याय जो एक वाक़ई एक ट्रांसजेन्डर हैं और उन्होंने भी अपने जीवन में बहुत संघर्ष करके इस मुकाम को हासिल किया है के पास मधु पुटी को लेकर आता है. पुटी मानवी को देखकर बेहद रोमांचित और खुश होती है.

मानवी बताती है कि ऑपरेशन का दर्द इस जीवन के दर्द से बहुत कम है. पुटी के भाग आने से उसके महकमे में बहुत खोज होती है. मधु का पैतृक घर पास ही है इसलिए मधु चाहता है कि पुटी को लेकर वह अपने घर हो आए फिर ऑपरेशन के लिए पैसे जुटाने की जुगत लगाएगा. उसके परिवार में माँ पिताजी के अलावा भैया का परिवार रहता है.

वे लोग अपने पारंपरिक वैष्णवी जीवन के अनुसार भजन-कीर्तन से अपना गुजारा करते हैं. फ़िल्म इस जगह पहुंचकर सामाज के उस क्रूर रूप को दिखाती है जिसे देखकर उसी समाज से उठकर आया मधु भी अचंभित रह जाता है. एक ऐसी दुविधा, पीड़ा और अनंत तक कोई उपाय नहीं दिखने वाली समस्या ही हर वक़्त पुटी का पीछा करती है.

अंत मुंबइया फिल्मों जैसा सुखांत नहीं है. अंत है अंतःकरण को भेदने वाली सच्चाई जिसमें बहुत-सी उलझने हैं। पुटी के किरदार को जिस कदर ऋद्धि सेन ने जिया है वह अद्भुत है. ऋत्विक यूं भी बांग्ला के बेहतरीन नायकों में से एक हैं. इस फ़िल्म को चार अवॉर्ड मिले और इस फिल्म में ट्रांसजेन्डर का किरदार निभाने वाले ऋद्धि सेन को नेशनल फ़िल्म अवॉर्ड फॉर ऐक्टर का अवॉर्ड मिला था, ऋद्धि एक पुरुष हैं.

कौशिक गांगुली अपने समकालीन फ़िल्मकारों में अग्रणी हैं. वे आपको अपनी फ़िल्मों के जरिए भावनात्मक रुप से जड़ कर देते हैं , जहां वे जैसा चाहते हैं आप वैसा ही सोचते हैं. पुटी के जरिए उन्होंने केवल उसके चाल और भंगिमाओं से ही स्त्री नहीं दर्शाया है बल्कि एक स्त्री के भावनात्मक क्षण में चेहरे पर बदलते भाव को भी अद्भुत तरीके से दिखाया है.

प्रेम लिंग भेद से परे है। इस भावना को समझने में शायद और भी कितने दशक लगे. खासकर अभी के समय में जब मनुष्य और उसका समाज दकियानूसी सोच में जकड़ता जा रहा है. श्री चैतन्य की मूर्ति के बार-बार उपयोग ने आध्यात्मिक और लिंग अध्ययन के बारे में कुछ अनुत्तरित प्रश्न भी उठाए हैं.

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