महानगर ख़ाली होने लगे हैं. ट्रेन, बस, हवाई जहाज़ सब मेहनत के पसीने से तरबतर हैं. लोगों का सैलाब सबकुछ भूलकर अपने देस जाने को आतुर है.
ट्रेन के जेनरल डब्बे में सामानों के बीच घुसा, बाथरूम के रास्ते में अपनी गठरी पर बैठा आदमी बस अपनी मिट्टी की महक सूंघना चाहता है. साल भर की मेहनत के बाद दसेक दिन बस अपनी मॉ, पिता, पत्नी, भाई-बहन और बच्चों के साथ बिताने का एक एक पल जीना चाहता है.
आख़िर कौन सा उत्सव है ये जो हर बिहारी और यूँ कहें तो पूरबी को पूरब की ओर खींच रहा है! अपने देस समाज के साथ एकाकार कर रहा है!
यूँ तो पर्व त्योहार में कर्मकाण्ड और आये दिन दूसरे धर्म त्योहार के प्रति नित पनप रहे असहिष्णुता को लेकर बहस, मुबाहिसे और असहमतियों की गुंजाइश है और व्यक्ति के रूप मेँ मेरे लिये सभी धर्म, समाज और संस्कृतियों के प्रति समान आदर है, बिहारियों और पूरबियों का ये पर्व हमें अपने जड़ों की ओर लौटने का रास्ता दिखाती है.
सांस्कृतिक पहचान
ये पर्व हमारी सांस्कृतिक पहचान है. छठ हिंदी कैलेंडर के कार्तिक महीने में चार दिनों तक चलने वाला पर्व है. इसी समय हमारी कई फसलों के पकने और उनके खेत से खलिहान और फिर घर तक सीधे या प्रोसेस होकर पहुंचने का समय होता है. धान की फसल पकती है इसीलिए चावल का कसार (चावल और गुड़ से बनने वाला प्रसाद) बनता है.
ईख की पेराई करके गुड़ बनाया जाता है और उससे तथा गेंहू के आटे से बना ठेकुआ (पूरबी इलाके का एक विशिष्ट व्यंजन) प्रसाद के लिए उपयोग में लाया जाता है. साथ ही डाभ नींबू, अदरक, मूंगफली,जल सिंघाड़ा, सुपारी, ईंख, हल्दी, मूली, नारियल, शरीफा जैसे फल और मसाले पूजा सामग्री रूप में चढ़ाए जाते हैं. मुझे कोई एक पर्व प्रकृति के इतना नजदीक नही लगता.
समाजशास्त्रीय विश्लेषण
छठ का अगर समाजशास्त्रीय विश्लेषण करें तो ये लिटिल ट्रेडिशन का विस्तारीकरण है जिसे आडंबर रहित होने, मीडिया के प्रचार और राजनीतिक जरूरतों ने वृहद रूप दिया है. जुहू चौपाटी का छठ हो या दिल्ली में यमुना किनारे का छठ, ये सब बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के रहने वाले लोगों की अपने समाज और संस्कृति से जुड़ा होने की तस्दीक करता है और इस रिश्ते को नई मजबूती देता है.
हमारा इलाका देश के बाकी हिस्सों में खेती बारी, कल कारखानों से लेकर अकुशल, अर्धकुशल से लेकर कुशल मजदूरों की एक बड़ी आबादी भेजता है जो साल भर अपनो से दूर रहकर मेहनत के पैसे कमाता है और अपने बच्चों की पढ़ाई से लेकर घर के बड़े बूढ़ों की दवा और परिवार के रसद पानी का इंतजाम करता है.
ऐसे में छठ का त्योहार उसके जीवन में नई उम्मीद लेकर आता है जब वो अपने गांव, इलाके जाकर उसकी मिट्टी की मीठी सुगंध लेता है और अपने परिवार, मित्रों से मिल बतिया कर अपनी सांस में अच्छी और स्वस्थ हवा भर पाता है. उसका गांव जवार उसके यहां के होने का एहसास दिलाता है नहीं तो महानगरों की आपा धापी में वो अपना वजूद कहां ढूंढ पाता.
छठ को मैंने खुद की उम्र के बढ़ने के साथ ही विस्तार पाते देखा है. जब हम छोटे थे तो दिवाली के दूसरे दिन से ही घर मोहल्लों की सफाई में जुट जाते थे, एक एक रास्ता साफ कर इस लायक बना देते की खाली पैर सब उस रास्ते से आराम से जाते. आज नौकरी के लिमिटेशन के कारण वो सब छूट गया लेकिन नई उमर के बच्चों को सफाई करते देख इस पर्व की निरंतरता और इसके मौलिक रूप में बने रहने का सुखद एहसास महसूस करते हैं.
यूँ तो नदियों, तालाबों का हमारे जीवन से गहरा रिश्ता है. छठ उस रिश्ते को मजबूती देता है. नदियों के किनारे हम अपनी जड़ें तलाशते हैं, अपनी सभ्यता के विकास के साक्षी इस नदियों, तालाबों का स्मरण करते हैं और उनकी महत्ता का साक्षात्कार करते हैं.
छठ लैंगिक समानता का अद्भुत समन्वय है. इसके लोकगीत ऐसे उदाहरणों से भरे पड़े हैं. गीतों में एक तरफ बेटी के जन्म की कामना की जाती है तो वहीं बेटियों के लिए पढ़े लिखे दामाद भी मांगे जाते हैं. हमारे लोकगीत हमारी संस्कृति और समाज के प्रतिनिधि स्वर हैं और छठ के गीत इसके सबसे बड़े उदाहरण. छठ छठी मैया की स्तुति और आराधना का पर्व है जिनके संबंध में धर्मग्रंथों से ज्यादा किंवदंतियों और परंपरा का ज्यादा दखल है।
समाजशास्त्रीय अध्ययन इस बात को पुष्ट करते हैं की प्रकृति, लोक और संस्कृति से जुड़े कई पर्व अपनी भौगोलिक सीमाओं से बहुत आगे निकल कर लोगों के श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक बन जाते हैं. छठ ऐसा ही एक सांस्कृतिक पर्व है.
लेखक भारतीय पुलिस सेवा के पदाधिकारी हैं.
Very good sir ji
बहुत ही मार्मिक सस स्टोरी है भैया। दिल को छु गई
उम्दा लेख।
वास्तव मेँ यह लोक आस्था का महापर्व है।
छठ महापर्व इन दिनों राजनीतिक अखाड़ा भी बन चुका है। पहले भी लोग सूप, नारियल या अन्य चीजें व्रतियों के बीच बाँटते थे, पर अब यह भी एक प्रचार प्रसार का माध्यम बन चुका है। अख़बार के पन्नों से लेकर सोशल मीडिया इन तस्वीरों से भरा मिलेगा।
हमें भी याद है ज़िला स्कूल भागलपुर और टी एन बी कॉलेज का वह दिन जब माथे पर गमछा बांध मित्रों के साथ घाट सफ़ाई में लग जाते थे। मन में कोई प्रचार की भावना नहीं वरन मात्र सेवा भाव का उत्साह होता था। मॉं जब छठ करती थीं तो माथे पर डाला उठाने का हम तथा चचेरे भाइयों में प्रतिस्पर्धा रहती थी।
छठ श्रद्धा और संस्कृति का पर्व है, दिखावे या वोट बैंक की राजनीति का नहीं।
आलेख आपका बहुत सटीक और विश्लेषणात्मक है।
बधाई
मार्मिक व अनूठा लेख है
बहुत अच्छी प्रस्तुति।साधुवाद।