जलवायु संकट: अमीर देशों पर निर्भरता संकट का ठोस समाधान नहीं

हाल ही में 31अक्टूबर और 12 नवम्बर के बीच जलवायु परिवर्तन की 26वीं अंतर्राष्ट्रीय वार्ता ग्लासगो में संपन्न हुई. इस वार्ता में भारत सहित कई विकासशील देशों ने जलवायु न्याय का मुद्दा उठाया. इन देशों की मांग वाजिब है क्योंकि बैंगलुरु के नेशनल इन्स्टिच्यूट आफ एडवान्स स्टडीज की डॉक्टर तेजल कानिटकर के अनुसार, विश्व के सबसे धनी देश 1990 में अंतर्राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन के समझौतों पर चर्चा शुरू होने तक जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कुल जमा गैसों के उत्सर्जन के 71 प्रतिशत हिस्से के लिए जिम्मेदार थे.

अहम बात यह है कि दुनिया के सबसे धनी देश उत्सर्जन कम करने और विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले नुकसान की भरपाई करने के अपने ही वादों से बार- बार मुकर जाते हैं इसलिए जलवायु परिवर्तन निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर न्याय का मुद्दा है और रहेग. इस सबके बावजूद जलवायु परिवर्तन से जुड़े संकट अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं पर ही खत्म नहीं होते. भारत में जलवायु परिवर्तन के गंभीर प्रभावों और लगातार बढ़ती जा रही अमीर-गरीब के बीच की खाई को देखते हुए देश के भीतर होने वाले जलवायु व पर्यावरण सम्बंधित संकटों के बारे में गंभीरता से सोचना आवश्यक हो गया है.

वित्तीय पारदर्शिता के अभाव में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी परियोजनाएं भी निजी कंपनियों के लिए पैसे बनाने का माध्यम बन कर रह गई हैं. उदाहरण के तौर पर, भारत में तेजी से फैल रहे सूर्य और पवन ऊर्जा के साधनों का स्वामित्व पूर्णतः निजी हाथों में ही है. दुर्भाग्य तो यह है कि इन विषयों पर कोई सार्वजनिक चर्चा भी नहीं हो रही है जो राजनैतिक जवाबदेही की कमी का एक और प्रमाण है।

कार्बन ब्रीफ नाम के वेब पोर्टल के अनुसार- “भारत, चीन, ब्राजील और इंडोनेशिया, जहां दुनिया की 42 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, ने जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों का केवल 23 प्रतिशत उत्सर्जन किया है, जबकि 10 सबसे धनवान देश, जैसे अमेरिका, रूस, जर्मनी, ब्रिटेन, जापान और कनाडा ने, जहाँ विश्व की सिर्फ 10 प्रतिशत आबादी रहती है, इन गैसों का 40 फीसदी उत्सर्जन किया है.”

इस प्रकार पूरी दुनिया में सिर्फ 10 प्रतिशत लोग ग्लोबल वॉर्मिंग से जुड़ी ग्रीन हाउस गैसों की अधिकतर मात्रा के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं लेकिन उसका नुकसान पूरी दुनिया, खास तौर से गरीब देशों और गरीब लोगों को उठाना पड़ रहा है.

ग्लोबल वॉर्मिंग व जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया भर में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या और तीव्रता में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. उदाहरण के तौर पर वर्ष 2017 में उत्तर और पूर्वी भारत, बांग्लादेश एवं नेपाल में बाढ़ की वजह से एक हजार से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा और करीब चार करोड़ लोगों को अस्थायी विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा.

इसी तरह वर्ष 2020 के मॉनसून के दौरान भी इन्ही इलाकों में भीषण बाढ़ के कारण 1300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई और करीब 2.5 करोड़ से ज्यादा लोगों को हफ्तों तक अपने घरों से विस्थापित होना पड़ा.

भारत सरकार जलवायु परिवर्तन में होने वाले बदलावों को देखते हुए ग्रीन इंडिया मिशन और क्षतिपूरक वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रमों को शुरू किया. इस कार्यक्रम को शुरू करने के दो मुख्य कारण नजर आते हैं– एक, क्षतिपूरक वृक्षारोपण के बहाने सरकार जंगल की जमीन पूंजीपतियों को दे सके और दूसरा सरकार नए जंगलों में संचित कार्बन की मात्रा के बदले विकसित देशों से पैसा ले सके. यह बात सही है कि भारत के जंगल दुनिया में बढ़ते जलवायु परिवर्तन को रोकने में मदद करेंगे.

इसके अलावे आदिवासी समुदाय को जैविक खेती और स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों के विकास में लगाया जाए तो फायदा हो सकता है. शोध संस्थानों का आंकड़ा यह दिखाता है कि भारत का पर्यावरण मंत्रालय व राज्यों के वन विभाग में जवाबदेही का घोर अभाव है. इसके कारण पर्यावरण व जंगली जानवरों को बचाने के नाम पर आदिवासियों व अन्य स्थानीय समुदाय के हक छीने गए हैं.

वन विभाग व अन्य सरकारी संस्थाएं अक्सर इन कार्यक्रमों का दुरुपयोग जंगल पर अपना मालिकाना हक जताने के लिए ही करती रही हैं ताकि पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन से जुड़े  कार्यक्रमों के माध्यम से अधिक से अधिक फंड वन विभाग में सुविधाओं को बढ़ाने के लिए लाया जा सकें.

ध्यान रखने वाली बात यह है कि सरकारी विभागों की खामियों का एक बड़ा कारण भारत में राजनैतिक जवाबदेही की कमी भी है. भारत उन चंद देशों में है जहां जलवायु परिवर्तन से संबंधित कोई कानून नहीं है और देश की नीतियां प्रशासनिक आदेशों के भरोसे ही गैर-जवाबदेह तरीके से चलाई जा रही हैं.

यह एक बड़ी समस्या है क्योंकि जलवायु परिवर्तन से प्रभावी तौर पर मुकाबला करने के लिए भारत को ऊर्जा, यातायात और पूरी अर्थव्यवस्था में आमूलचूल ढांचागत परिवर्तन लाने होंगे. साथ ही भारत में तेजी से बढ़ते शहरीकरण का प्रबंधन इस तरह से करना पड़ेगा कि यह ऊर्जा, पानी व अन्य प्राकृतिक संसाधनों के दोहन व विनाश का कारण नहीं बने और जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा नहीं दे.

इंदौर के रहने वाले डॉ. राहुल बनर्जी कम लागत वाले, टिकाऊ व विकेंद्रित शहरी ढांचागत विकास पर काम करते रहे हैं. जयपुर व इंदौर जैसे कई शहरों के अध्ययन के आधार पर उन्होंने दिखाया है कि इस तरह का विकास प्राकृतिक साधनों के संचयन और जलवायु परिवर्तन को रोकने के काम मे मददगार हो सकता है लेकिन ऐसी व्यवस्थाओं को बढ़ावा देने के बजाय भारत सरकार, स्मार्ट सिटी जैसी चमकदार लेकिन खोखली परियोजनाओं में निवेश कर रही है जिनकी वजह से होने वाली ऊर्जा की अत्यधिक खपत और बेवजह प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा.

पर्यावरण संरक्षण व जलवायु परिवर्तन का इतिहास हमें अगर कुछ सिखाता है तो वह यह कि दुनिया के ताकतवर देशों और हमारे देश के ताकतवर लोगों के भरोसे रहना बड़ी भूल होगी.

अंततः राजनीतिक जवाबदेही, आर्थिक पारदर्शिता और सामाजिक संवेदनशीलता से किए गए कार्य ही आम जनता के हित में हो सकते हैं. न्याय संगत व्यवस्थाओं के बदौलत ही पर्यावरण को बचाया जा सकता है व जलवायु परिवर्तन का मुकाबला किया जा सकता है. सामाजिक न्याय पर आधारित चिंतन हमारे लिए आर्थिक और राजनैतिक भ्रष्टाचार से मुकाबला करने में मददगार सबित होगा.

ये लेखक के निजी विचार हैं.

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