पाँच वर्षों पहले आज के दिन भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देशभर में 500 और 1000 के नोटों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था. उन्होंने देशवासियों को कई परेशानियों का वास्ता दिया था जैसे कि कालाधन व भ्रष्टाचार ने अपनी जड़ें जमा ली हैं. भ्रष्टाचार और कालेधन का सीधा असर गरीबों और मध्यम वर्ग के व्यक्तियों पर पड़ता है, आतंकवाद में भी वृद्धि भी भ्रष्टाचार व कालेधन के कारण हो रही है, इत्यादि.
उन्होंने उनसे कई तरह के वादे भी किए थे जैसे कि गरीबों का सशक्तिकरण व विकास, देशद्रोही और समाजविरोधियों के पास जो 500 और 1000 रुपए के नोट हैं, वे बेकार हो जाएँगे, ऐसे नागरिक जो संपत्ति अपने मेहनत से कमा रहे हैं उनके हित और उनके हक की कमाई की पूरी रक्षा की जाएगी, इस कदम से हम भ्रष्टाचार, कालेधन, जाली नोट के खिलाफ जो लड़ाई लड़ रहे हैं और आम नागरिक जो संघर्ष रोज करते हैं, उसमें ताकत मिलेगी और रिसर्व बैंक इस चीज़ का आवश्यक प्रबंध करेगा की अधिक मूल्यों के नोटों का एक सीमा के अंदर ही सर्कुलेशन होगा.
उनके मुताबिक उनका उद्देश्य बड़े-बड़े लोगों द्वारा अवैध तौर पर रखे गए “काले धन” को बेकार करने का था और देश से भ्रष्टाचार” हटाने का था. इस निहित विचार का दावा करके और कई वादे करके उन्होंने यह कदम 8 नवंबर 2016 को रात 12:00 बजे से उठाया था. कई लोग इस कदम को भ्रष्टाचार के खिलाफ एक सर्जिकल स्ट्राइक की तरह बताते हैं.
मगर यह उम्मीदें, उद्देश्य व कदम बहुत जल्द बुझ गईं. 2 फरवरी 2017 को वित्त मंत्री के अरुण जेटली द्वारा दिए गए बजट भाषण में उन्होंने पहले संकेत दिए कि नोटबंदी ने बड़े पैमाने पर बेहिसाब पैसों और काले धन की शुद्धीकरण में मदद नहीं की है.
मोटा-मोटी देखा जाए तो 80 लाख से ज्यादा पैसे 1.48 लाख बैंक खातों में जमा करवाए गए थे जिनकी औसतन जमा आकार 3.31 करोड़ रुपए थी. मतलब की पूरे रकम का 31% हिस्सा बहुत अमीर लोगों के खातों में जमा किया गया था.
नोटबंदी के पांच साल बाद भी, अर्थव्यवस्था में उच्च मूल्य के करेंसी नोटों की अवस्था वैसी ही बनी हुई है जैसी नोटबंदी से पहले की अवधि में थी. फैसले के तुरंत बाद बैंक में जमा किए गए धनराशि में तेज उछाल देखा गया, लेकिन जल्दी ही चीज़ें सामान्य स्तर पर वापस आ गई. वास्तव में, ऐसा लगता है कि कोविड -19 ने जमा पूंजी को उच्च सामान्य स्तर पर धकेल दिया है.
2016 में ही द इकॉनोमिस्ट के अनुसार देश की GDP में नोटबंदी के कारण 1-2% गिरावट होने का अनुमान लगा लिया गया था और 4,00,000 नौकरियों का नुकसान होने का भी. और FY20 में GDP FY17 और FY18 के 9% से गिरकर 3% पर आ गई. इसका मतलब कि नोटबंदी का सबसे भारी असर GDP पर पड़ा है.
हमें यह तो पता चला कि नकदी का क्या हुआ, लेकिन नकदी के उपयोग का क्या हुआ, यह कोई नहीं जानता. नोटबंदी के बाद एटीएम नकद निकासी में तेजी से गिरावट आई, और इसे ठीक होने में दो से तीन तिमाहियों से अधिक समय लगा. लेकिन पैसों पर कोविड-19 का प्रभाव नोटबंदी की तुलना में बहुत अधिक हानिकारक था.
पिछले वित्तीय वर्ष में बैंकनोट बढ़ गए क्योंकि कई लोगों ने अलग-अलग डिग्री में सामान्य जीवन और आर्थिक गतिविधियों को बाधित करने वाले COVID-19 महामारी के बीच नकदी की बचाव का विकल्प चुना.
डिजिटल भुगतान के आने के बाद से कैश भुगतान करने वालों की संख्या में गिरावट आई. जैसे-जैसे लोगों ने डिजिटल भुगतान मोड का उच्च स्तर पर उपयोग करना शुरू किया, डेबिट और क्रेडिट कार्ड से भुगतान में वृद्धि हुई. आधिकारिक डेटा के अनुसार प्लास्टिक कार्ड, नेट बैंकिंग और यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस सहित विभिन्न तरीकों से डिजिटल भुगतान में उछाल हुई है. भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआई) का यूपीआई देश में भुगतान के एक प्रमुख माध्यम के रूप में तेजी से उभर रहा है.
मगर चलन में मुद्रा नोट अभी भी ऊपर की ओर हैं. रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, मूल्य के तौर पर नोट चलन में 4 नवंबर 2016 को 17.74 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 29 अक्टूबर 2021 को 29.17 लाख करोड़ रुपये हो गए हैं. सर्कुलेशन में बैंकनोटों के मूल्य और मात्रा में 2020-21 के दौरान क्रमशः 16.8 प्रतिशत और 7.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जबकि 2019-20 के दौरान क्रमशः 14.7 प्रतिशत और 6.6 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई थी.
मोदी सरकार का यह भी दावा था कि नोटबंदी लागू करने से देश में “कैशलेस पेमेंट” का चलन हो जाएगा. मगर अभी पहले के मुकाबले कैश पेमेंट 57.48% या 10.33 करोड़ रुपये बढ़ गया है.
पांच साल पहले दो उच्च मूल्यवर्ग की मुद्राओं को वापस लेने के सरकार के अचानक फैसले से बैंकों के बाहर पुराने नोटों को बदलने/जमा करने के लिए लंबी कतारें लग गईं. अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र, खास तौर पर असंगठित क्षेत्र, सरकार के फैसले से प्रभावित हुए. मगर इतने ज्यादा चहल-पहल होने के बावजूद भी देश की वित्तीय स्थिति में कुछ खास बदलाव भी नहीं आया है और ना ही भ्रष्टाचार में कमी हुई है.
आज हम पांच साल पीछे मुड़ कर देखते हैं तो माननीय प्रधानमंत्री जी का यह निर्णय असंतोषजनक लगता है और ऐसा लगता है कि देश की दशा और बिगड़ गई है. ऐसा इसलिए भी हो सकता है क्योंकि सरकार ने यह फैसला प्रभावशाली तरीके से और लंबे भविष्य को देखते हुए नहीं ली होगी. गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों को आर्थिक संकट की मार तो अब भी खानी पड़ रही है.
इन फैसलों से सीख लेकर सरकार को आगे के लिए काफी सोच-विचार कर के कोई भी निर्णय लेना चाहिए. वरना देश का और देश के लोगों का कल्याण और उनकी सही ढंग से नहीं हो पाएगी.