गांधी, बेनीपुरी और रामराज्य: हिन्दी साहित्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी गांधी से इतने प्रभावित थे कि अपने पुत्र का नाम गांधी रखा.

गाँधी एक ऐसे जीवित प्रसंग रहे हैं जिन से न सिर्फ भारत बल्कि विश्व की अनेक विभूतियाँ प्रभावित रही हैं. उन्होंने अपने व्यक्तित्व का विस्तार जिस रूप में किया था , उसने समाज, राजनीति, शिक्षा, दर्शन व कला-संस्कृति के साथ-साथ लोगों की जीवन शैली पर भी कई रूपों में अपना असर छोड़ा. उनकी वैचारिकी के भीतर इतना स्पेस रहा है कि जरूरत भर हर कोई अपने लिए जगह पा लेता है. गाँधी सदी-दर-सदी जरूरी विमर्श बनते जा रहे हैं.

गाँधी की हत्या कर दी गयी। वे मर गये पर अपेक्षाकृत और अधिक सबल हो उठे. इतना सबल कि उनको माननेवाले उन्हें आज भी अपना आदर्श मानते हैं और उन्हें मारनेवाले भी अपना आदर्श मानने को विवश हैं.

उन्हें मारनेवाले उनसे इतना भयभीत रहते हैं कि हर वर्ष उनकी तस्वीरों , उनके प्रतीकों आदि को गोली मारकर खुद को तसल्ली देते रहते हैं। जबकि उन्हें माननेवाले कई कारणों से बिखरकर भी एकजूट हो जाते हैं और विभाजनकारी साम्प्रदायिक-साम्राज्यवादी ताकतों को कड़ी चुनौती देने लगते हैं.

भारत में पिछले दस वर्षों में प्रतिवाद के बड़े प्रतीक के रूप में सबसे अधिक गाँधी काम आये हैं. ऐसा सिर्फ उनकी सत्य-अहिंसा की नीति की वजह से नहीं बल्कि उनकी सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक समझ का भी परिणाम रहा है.

कृषि, उद्योग, शिक्षा आदि के संबंध में गाँधी की दूरदर्शिता हमें चौंकाती हैं. राष्ट्र और राष्ट्रधर्म का जन-कल्याणकारी स्वरूप उनके स्वप्न का अभिन्न हिस्सा था जिसे वे ‘रामराज्य’ के रूप में स्थापित करने की बात करते रहे. आज पुन: जब एक नये रामराज्य का स्वप्न जनता को दिखाया जा रहा है तो गाँधी का ‘रामराज्य’ सहज हीं याद आता है.

कभी गाँधी के रामराज्य को हिंदी साहित्य के एक सशक्त गद्यकार रामवृक्ष बेनीपुरी ने भी समझने का प्रयास किया था. वे गाँधी से इतने प्रभावित थे कि अपने एक पुत्र का नाम भी गाँधी रखा. आगे चलकर उसके दुखद अवसान के बाद ‘गाँधीनामा’ की रचना भी की. बेनीपुरी का अपने पुत्र वियोग जन्य रचित यह ‘गाँधीनामा’ महाकवि निराला के पुत्री वियोग जन्य शोक गीत की तरह हीं एक दूसरा शोक-गीत है. बेनीपुरी हिंदी के उन आरंभिक गद्यकारों में रहे हैं जिन्होंने हिंदी को भाषा के साथ-साथ विचारों से भी सँवारा. वे एक मुखर समाजवादी विचारक, राजनीतिज्ञ तथा साहित्यकार रहे हैं. वे स्वाधीनता आंदोलन से सीधे जुड़े बिहार के अनेक राजनीतिज्ञों व साहित्यकारों की पहली पंक्ति में रहे. कवि माखनलाल चतुर्वेदी जब उनके संबंध में कहते हैं कि ,”बेनीपुरी की लेखनी फौलाद उगलती है , मनोजगत में भूकंप पैदा करती है” तो निश्चित रूप से वे सिर्फ उनके भाषा-शिल्प की बात नहीं करते बल्कि उनकी वैचारिकी की भी बात करते हैं. उनके निबंधों , शब्द-चित्रों , नाटकों आदि में उनकी वैचारिक दूरदर्शिता देखते हीं बनती है.

आजकल जिस ‘राम-राज्य’ की चर्चा जोर-शोर से की जा रही है उसे सत्ता पर काबिज रहने के सूत्र भर इश्तेमाल किया जा रहा है. आजाद भारत के लिए जिस ‘राम-राज्य’ का स्वप्न कभी महात्मा गाँधी ने देखा था , आजादी के बाद वह छिन्न-भिन्न-सा नज़र आने लगा था. बेनीपुरी ने उसे एक रचनात्मक अभिव्यक्ति दी. उन्होंने तब एक छोटे से रेडियो रूपक की रचना की. शीर्षक था ‘रामराज्य.’ इसके सहारे उन्होंने लोकतांत्रिक भारत की जो तस्वीर खींची है वह अद्भुत है. 1951 ई. में लिखे उनके रेडियो रूपक ‘राम-राज्य’ को पढ़ने के बाद आज के कई मौजू सवालों के जवाब मिलते हैं. इसे पढ़कर धर्म व जाति कल्पित राम-राज्य और गाँधी के लोकतांत्रिक राम-राज्य का फ़र्क भी जाना जा सकता है. उन्होंने 1951 ई. में हीं ‘अमर ज्योति’ शीर्षक रेडियो रूपक तथा ‘नया समाज’(एकांकी) की भी रचना की. इन सबको एक साथ पढ़ने के बाद समाज, देश और राजनीति की एक आकर्षक और सर्वहितकारी परिकल्पना स्पष्ट नज़र आती है. बेनीपुरी ने गाँधी के संघर्ष और त्याग को समझा था. उनके बलिदान को उन्होंने ‘हिमालय का तिरोहित हो जाना’ कहा. अपने रेडियो रूपक ‘राम-राज्य’ के दृश्य पूर्व कथन में अपनी परिकल्पना से अवगत कराते हुए वे कहते हैं ,”आज से ठीक सौ वर्ष बाद. याद रखिए , आज से ठीक सौ वर्ष बाद अर्थात् बीस सौ इकावन ईस्वी में ! जरा अपनी कल्पना को तीव्र होने दीजिए – आज की पर्थीवता को पीछे धकेलकर उसे उड़ान भरने दीजिए और चले चलिए बीस सौ इकावन ईस्वी में !” यहाँ बेनीपुरी ने जिस ‘पर्थीवता’ की जिक्र की है वस्तुतः इसके सहारे आजादी के बाद की स्थितियों की ओर संकेत है. तब भारत विभाजित हो चुका था. गाँधी की हत्या हो चुकी थी . आम जनता ने बहुत कुछ पा कर भी बहुत कुछ खो दिया था.

बेनीपुरी के रेडियो रूपक ‘राम-राज्य’ के पुरुष और स्त्री पात्र दक्षिण-ध्रुव प्रदेश से भारत आए हैं. वे अपने ध्रुव-प्रदेश में एक नवीन समाज बनाने जा रहे हैं. उसकी आधार-शिला कैसी हो , इसके लिए वे भिन्न-भिन्न देशों की सामाजिक पद्धतियों का अध्ययन कर रहे हैं.

गाँधी के देश भारत आकर वे चकित हैं. भारतीय स्वागताधिकारी उनका आतिथ्य करता है. अतिथिगृह में ले जाने से पहले वह निवेदन करता है कि आपके पास किसी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र है तो उसे बाहर हीं रख दें. यहाँ इसे बर्बरता की निशानी माना जाता है. वह आगे बताता है कि बापू के देश में हिंसा का कोई स्थान नहीं. यहाँ कोई किसी पर प्रहार नहीं करता. यहाँ अब सेना भी नहीं रखी जाती. क्योंकि परमाणु अस्त्रों के इस युग में सेना का कोई औचित्य नहीं. वह बताता है कि सेना और अस्त्र-शस्त्रों के बल हमें गुलाम बनाने वाला बड़ा से बड़ा साम्राज्य भी हमारी अहिंसावादी नीतियों से परास्त हो चुका है, हो जाएगा. जब दोनों अतिथि अतिथि- गृह में पहुँचते हैं , वहाँ के प्रबंधक से जो बातें होती हैं , काफी दिलचस्प हैं. अतिथि रहने-खाने के एवज में पैसे देना चाहते हैं. प्रबंधक समझाता है कि यहाँ राम-राज्य है. बापू के इस राम-राज्य में भोजन और आवास का अधिकार सभी नागरिकों को प्राप्त है. अतिथि खुश होते हैं. वे भारत आते हीं यहाँ की खेती-बारी, उद्योग-धंधे और समरस पारिवारिक संरचना से अवगत हो चुके हैं. प्रबंधक उन्हें समझाता है कि हमारे यहाँ पुरुषों के हिस्से उद्योग –धंधे , खेती-बारी ; स्त्रियों के जिम्मे पारिवारिक जीवन ; भावी नागरिकों की शिक्षा-दीक्षा है ! इस पर अतिथि पुरुष और स्त्री हँसते भी हैं और इसे उचित भी ठहराते हैं. इसी क्रम में उन्हें एक ऐसी जगह को दिखाया जाता है जो पाठशाला,उद्योगशाला और प्रयोगशाला का सम्मिलित कार्यक्षेत्र है. यहाँ किसी पर किसी कार्य के लिए कोई दबाव नहीं होता. सब अपनी अंतःप्रेरणा से मिलजुलकर काम करते हैं. कोई पारिश्रमिक नहीं लेता. जरूरत भर जिसको जो चाहिए ले लेता है. बच्चे स्वतः पढ़ते हैं. वहाँ कोई उनका शिक्षक नहीं होता. सिर्फ शिक्षा सहयोगी होते हैं जो बच्चों की छुपी हुई प्रतिभा को बाहर निकाल देते हैं, बच्चों में ज्ञान नहीं भरते. शिक्षा , श्रम अथवा उद्योग सबके सब संगीत से नत्थी हैं. यहाँ मेहनत एक खटंत क्रिया नहीं है. स्वालंबन के सारे प्रयास किए जाते हैं. भोजन,खेल और शिक्षा आपस में जुड़े हैं. विशाल उद्योगों की जगह ग्रामोद्योग और छोटे उद्योगों को महत्त्व दिया जाता है. बापू की इच्छानुरूप यहाँ वर्गहीन और वर्णहीन समाज बन चुका है. गाँव और शहर दोनों आधुनिक संसाधनों से युक्त हैं. सारे घर एक-से हैं.

यह सबकुछ देखकर अतिथि बेहद खुश हैं . अंततः उनकी इच्छा यहाँ के राष्ट्रपति से मिलने की होती है. पथ-प्रदर्शक बताता है कि हमारे देश में कोई राष्ट्रपति नहीं होता. इसके बदले में एक प्रमुख राष्ट्र-सेवक होते हैं. वह एक ऐसा व्यक्ति भी हो सकता है जो हल जोतता हो. तब उन अतिथियों को राष्ट्र-सेवक से मिलाया जाता है. राष्ट्र-सेवक बताता है कि हमने बड़ी कठिनाइयों से सेना और शासन को समेटा है. बापू ने हमें कम- से- कम शासन के लिए कहा था. अतिथि तब और चकित होते हैं जब उन्हें बताया जाता है कि यहाँ अब जाति और धर्म का भेद-भाव नहीं रहा . विश्वासों की भिन्नता, विचारों की भिन्नता उसी तरह मानी जाती है जैसी मुखाकृति की भिन्नता. हम अलग-अलग विचार रखकर भी परस्पर प्रेम और आनंद से रहते हैं. अतिथि स्त्री-पुरुष बापू के देश की इस व्यवस्था से काफी प्रभावित और प्रसन्न हो विदा लेते हैं.

वस्तुतः यह रूपक भविष्य के जिस भारत की तस्वीर प्रस्तुत करता है वह किसी साम्राज्यवादी राम-राज्य की नहीं बल्कि एक विशिष्ट लोकतांत्रिक राम-राज्य की तस्वीर है. बेनीपुरी ने बापू के राम-राज्य के बहाने भविष्य की शंकाओं , संकटों और उनके निराकरण की ओर भी इशारे किए हैं.

बापू के स्वप्न सत्य के स्वप्न थे जिसके बदले उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया गया. उनके समय का आदर्श और यथार्थ हमारे समय के लिए व्यंग बन के रह गया है. न सत्य रहा , न अहिंसा रही. आज जब जाति-धर्म की राजनीति की आगोश में एक बड़ी आबादी फँस के रह गई है तब बेनीपुरी का यह रूपक एक रस्ता दिखाता हैं. कई मौजू सवाल भी आ खड़े होते हैं- राष्ट्र का स्वरूप कैसा हो? राष्ट्रसेवक कैसे हों? देश के किसान- मजदूरों और आम-आवाम का सत्ता में क्या स्थान हो? शिक्षा, सुरक्षा और आर्थिक क्षेत्रों की जवाबदेही का निर्वहन कैसे हो? यद्यपि कि बेनीपुरी के इस रूपक का मूल स्वर उच्च मानवीय आदर्शों की स्थापना को लक्षित है , परंतु आज आदर्शों के टूटते-बिखरते व विद्रूप होते इस दौर में यह व्यंग्य के तीखे स्वर में बदलता सुनाई पड़ रहा है. यह परिकल्पना आज अपने माखौल पर मातम -सी महसूस होती है.

ये लेखक के अपने विचार है.

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