बिहार के पिछले 30 सालों की कहानी. कहानी क्या? हक़ीक़त है. हक़ीक़त कुछ पढ़ी हुई, कुछ सुनी हुई और बहुत सारा देखी और झेली हुई.
5 जून 1974 को पटना के गाँधी मैदान से, ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ के शंखनाद के साथ जेपी ने जिस आंदोलन की नींव रखी, उसने सत्ता की जड़ें हिला दीं. उसी आंदोलन से उभरे उनके दो ‘सिपाही’ बिहार को लेकर कहाँ गए? यह राजनीति शास्त्र की किताबों में कहीं दर्ज नहीं है.
कैसे एक ने अपने कार्यकाल में अपहरण, फिरौती, रंगदारी और सुपारी किलिंग की इंडस्ट्री जमा दी, प्रतिभा का पलायन करवा दिया और जाति की राजनीति के सहारे जम गए, तो दूसरे ने ‘सुशासन बाबू’ बनने की आड़ में ‘शराब के ठेकों’ के सहारे कुर्सी हथिया ली. पिछले तीस साल में बिहार के इन दो कर्णधारों ने बिहार का बंटाधार ही किया. जेपी के दोनों चेलों की यह कहानी बिहार की पृष्ठभूमि पर रची गई ‘हाउस ऑफ कार्ड्स’ जैसी है, पर फिक्शन नहीं, फैक्ट है.

यह किताब उन सभी सवालों का जबाव देती है, जिनको बिहार के लोग पिछले 30 सालों से ढूंढते आ रहे हैं. सामाजिक न्याय के नाम पर पिछले तीस सालों से लड़ी जा रही लड़ाई में समाज किस करवट बैठा? जिनके लिए सामाजिक लड़ाई लड़ी गई वो आज समाज में कहां है और जिन्होंने उनके लिए लड़ाई लड़ने और सबकुछ निछावर करने का वादा किया वो आज कहां है? ऐसे तमाम सवालों के जवाब जानने के लिए इस किताब को पढ़ा जाना आवश्यक है.
जहाँ एक ओर पिछले तीस सालों से बिहार से प्रतिभा का पलायन दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, गुजरात जैसे राज्यों की तरफ होता रहा तो वहीं, दूसरी तरफ लाख प्रयासों के बावजूद सरकार एक भी कॉरपोरेट को यहाँ इंडस्ट्री लगाने के लिए रिझा नहीं पाई है. इन्ही मुद्दों के साथ यह किताब राजनीतिक इच्छा-शक्ति और उसके लोभ की वजह से पैदा हुई समस्याओं के रेशे-रेशे की सच्चाई सामने रखती है. इस किताब के सारे अध्यायों से गुजरते हुए जो कहानियां सामने आती हैं, वे बतलाती हैं कि कैसे जयप्रकाश नारायण के दोनों चेले लालू यादव और नीतीश कुमार बारी-बारी से बिहार की सत्ता पर काबिज तो हुए लेकिन सामाजिक न्याय के नाम पर पिछले तीस सालों में बिहार की जनता के साथ केवल धोखा ही किया.
इस किताब को पढ़ते हुए आपको महसूस होगा कि लेखक ने बेहतरीन रिसर्च किया है. प्रदेश की समस्याओं की पड़ताल विश्वसनीय जान पड़ती है. लेखक उन सभी चित्रों को दिखा रहे है जिन्हें हमें देखने की आवश्यकता है. अनंत सिंह हो या शहाबुद्दीन या शेल्टर होम केस, वीर कुँअर सिंह का आरा बनाम ब्रमहेस्वर मुखिया का आरा सभी चीज़ों के बारे निर्भीक भाव से लिखा गया है.
सभी लोगों, खासकर बिहार के लोग या ऐसे लोग जो बिहार और बिहार की राजनीति के बारे में जानना चाहते हों, उन्हे यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए. सीधे शब्दों में कहें तो यह आसान हिंदी में लिखी गई एक दमदार किताब है. जिसमें बताया गया है कि किस तरह बिहार में वर्षों तक शासन करने वाली दो सरकारों ने राज्य को विफल कर दिया. बदले में जनता को मिला वही बेरोज़गारी, अपराध, पलायन. या फिर कुछ और! इसी की पड़ताल है “गांधी मैदान-Bluff of Social Justice”
- उपन्यास : गांधी मैदान-Bluff of Social Justice
- लेखक : अनुरंजन झा
- प्रकाशक : हिंद युग्म प्रकाशन
- पृष्ठ : 220
- मूल्य : 175/-
यह समीक्षा एक पाठक के तौर पर महसूस की गई बातों का संकलन है.समीक्षा लिखने वाले के निजी विचार के तौर पर इसे पेश किया जा रहा है.