गांधी तक जाते हुए : सत्याग्रह, तंत्र और कवि

जहाँ अधिकांश मक्खियों जैसे सुविधापरस्ती और दिनचर्या-निर्भर जीवन को जी रहे हैं, वहाँ किसी तरह की वस्तुकामुकता (fetishism) के परे कुछ पाना और उससे अपने होने को परिभाषित कर पाना, एक ऐसी बात है जिसके बारे में सोचा नहीं जा रहा – कौन पथ उधर ले जाएगा, इसकी विवेचना निकट भविष्य का विषय नहीं लगती- उपयोगिता का निर्धारण करते हुए यह अव्यवहारिक ठहरता है. जिस पूँजीवाद-परस्त दुनिया में हम जीते हैं, वहाँ इसकी बात कौन करे.

क्या मोहनदास के जीवन में भी इस इस ‘अव्यवहारिकता’ के उदाहरण खोजे जा सकते हैं? मसलन, चौरी-चौरा के बाद असहयोग आंदोलन की वापसी. गांधी की तरफ़ से वह नैतिकता (कुछ कुछ मध्यक़ालीन यूरोपियन कविताओं के नायकों की तरह. भारतीय संदर्भों से दूरी इसीलिए कि यहाँ संस्कृति में ‘नायक’ ईश्वर रहे हैं) जो उत्तर-आधुनिकता के चश्मे से हास्यास्पद और आलोचना का कारण बन चुके हैं. प्रतिरोध में निहित नैतिकता के बारे में सोचना, मुझको एक ज़रूरी बात लगती है. क्या यह सोचना भर एक कवि को उसके शुचिता-मूल्य निर्माण में मदद कर सकता है?

अदोर्नो एक प्रसिद्ध लेख में विस्तार से संस्कृति के उद्योग की चर्चा करते हुए, उसके प्रजनन और उसके लक्ष्यों की बात करते हैं.

“The culture industry is not the art of the consumer but rather the projection of the will of those in control onto their victims. The automatic self-reproduction of the status quo in its established forms is itself an expression of domination.”

Adorno

यानी, अपने आसपास जो भी संस्कृति दिख रही है, वह असल में सत्ता का नियंत्रण बनाए रखने का तरीक़ा है. स्टेटस क्वो का ख़ुद को बार बार निर्मित करना. बिना वैचारिक प्रतिबद्धता के साहित्य रचने और उसे “मैनेज” करने से लेकर चुनाव में वोट डालने के कारणों तक के मूल में इस संस्कृति उद्योग का प्रभाव ही है. किसी भी ऐसी संस्कृति का निर्माण जो इस सत्ता-निर्मित संस्कृति उद्योग का प्रतिरोध करे, या सत्ता की ही संस्कृति से प्रजनित किसी अंग का इस्तेमाल ताक़तवर को हराने, रोकने और सत्ता की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक संरचना को बदलने में करे , वह सांस्कृतिक प्रतिरोध ही तो है और क्या गांधी जीवन भर यह नहीं करते रहे? क्या एक कवि को इस बारे में नहीं सोचना चाहिए?

1910 के युवा मोहनदास गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ को एक पर्चे की तरह लिखा था. एक पाठक और एक सम्पादक के बीच संवाद की तरह लिखी गयी इस किताब में ही गांधी, खादी अपनाने की माँग करते हुए, अपने आपको साम्राज्यवादी शक्तियों से आर्थिक और मानसिक रूप से आज़ाद करने की बात करते हैं. यानी सत्ता समर्थित संस्कृति के विरुद्ध एक संस्कृति का निर्माण – सत्ता का प्रतिरोध. और ऐसा बिलकुल नहीं है कि गांधी को अपने कहे की सीमाओं का अंदाज़ा नहीं है. उनके तरीक़ों में जो अंतर्विरोध हैं उसका भान है – लेकिन लक्ष्य साफ़ है – आज़ादी- और शुचिता का आग्रह बिना किसी समझौते के! 2021 में एक कवि, पूँजीवाद की विजय, गहनतर होते जा रहे पतन, और संस्कृति-उद्योग की अपनी लक्ष्य प्राप्ति के बाद (मनोज मुंतशिर और मुक्तिबोध दोनों बराबर घोषित हो चुके) गांधी की प्रासंगिकता के बारे में क्या सोचे और उनसे क्या पाठ सीखे?

जूडिथ बटलर अपनी किताब “द फ़ोर्स ऑफ़ नॉन वायलेन्स : ऐन एथिको-पोलिटिकल बाइंड” में लिखती हैं,

“तथ्य यह है कि असंतोष, और आलोचना करने के राजनीतिक प्रयासों को अक्सर राज्य के अधिकारियों द्वारा “हिंसक” के रूप में लेबल कर दिया जाता है – यह कोई भाषा की समस्या नहीं है (कि आपके पास दूसरे शब्द नहीं).

जूडिथ बटलर


इसका मतलब केवल यह है कि हमें हिंसा और हिंसा के प्रतिरोध के बारे में सोचने के लिए राजनीतिक शब्दावली का विस्तार और परिशोधन करना है, इस बात को ध्यान में रखते हुए कि कैसे उस शब्दावली को घुमाया जाता है और आलोचना और विरोध के खिलाफ हिंसक अधिकारियों को ढालने के लिए उपयोग किया जाता है. जब औपनिवेशिक हिंसा को जारी रखने की आलोचना को हिंसक (फिलिस्तीन) समझा जाता है, जब शांति के लिए एक याचिका को युद्ध (तुर्की) के रूप में पुनर्गठित किया जाता है, जब समानता और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष को राज्य की सुरक्षा के लिए हिंसक खतरों के रूप में माना जाता है (ब्लैक लाइव्स मैटर), या जब “लिंग” को परिवार (लिंग-विरोधी विचारधारा) के खिलाफ निर्देशित एक परमाणु शस्त्रागार के रूप में चित्रित किया जाता है, तो हम एक ऐसे यथार्थ में काम कर रहे हैं जहाँ वास्तविकता और काल्पनिक एक दूसरे और गुथे हुए हैं और इसके राजनीतिक प्रभाव होंगे.”

वास्तविकता और काल्पनिक में, असली और नक़ली में, सत्ता और उसके प्रतिरोधक के काम करने के तरीक़ों में फ़र्क़ की बात. ग़ाँधी से पहला पाठ यही मिला. जो तुम पर राज करता है, तुम उससे कैसे अलग हो, यह स्थापित करना भी उसका विरोध करना है. उनकी भाषा और हमारी भाषा के इस्तेमाल में अंतर, उनकी हिंसा के बदले अहिंसा(जो उस समस्या से भी तुरंत छुटकारा देती है जिसकी बात बटलर करती हैं), उनकी संस्कृति के विरोध में एक नयी संस्कृति की निर्मिति जिसके संदर्भ ग़ाँधी के लिए कुछ और रहे होंगे और 2021 में कविता लिख रहे एक आदमी के लिए अलग हैं पर अपनी आत्मा में एक ही. हिंद स्वराज में ग़ाँधी जी लिखते हैं.

सत्याग्रह

“सत्याग्रह या आत्मबल को अंग्रेज़ी में “पैसिव रेज़िस्टन्स” कहा जाता है. जिन लोगों ने अपने अधिकार पाने के लिए खूद दुःख सहन किया था, उनके दुःख सहने के ढंग के लिए यह शब्द बरता गया है. उसका ध्येय लड़ाई के ध्येय से उल्टा है…मिसाल के तौर मुझ पर लागु होने वाला कोई क़ानून सरकार ने पास किया. वह क़ानून मुझे पसंद नहीं है. अब अगर मैं सरकार पर हमला करके यह क़ानून रद्द करवाता हूँ तो कहा जाएगा कि मैंने शरीर बल का उपयोग किया. अगर मैं उस क़ानून को मंज़ूर ही ना करूँ और उस कारण से होने वाली सजा भुगत लूँ तो कहा जाएगा कि मैंने आत्मबल या सत्याग्रह से काम लिया…कोई भी आदमी दावे से नहीं कह सकता कि फ़लाँ काम ख़राब ही है, लेकिन जिसे वह ख़राब लगा तो, उसके लिए तो ख़राब ही है. अगर ऐसा ही है तो उसे वह काम नहीं करना चाहिए और उसके लिए दुःख भोगना, कष्ट सहन करना चाहिए. यही सत्याग्रह की कूँजी है.”

कि 2021 के भारतीय समाज में सत्ता का और उससे जनित संस्कृति का प्रतिरोध करने का सिर्फ़ यही तरीक़ा है यह मैं नहीं कहता पर यह तरीक़ा कभी कारगर रहा है, इतिहास इसकी गवाही तो देता है. दफ़्तर से लेकर कविता तक, शुचिता और फ़र्क़ का आग्रह मेरे लिए इसी विचार पर बना हुआ. घोर पूँजीवादी समाज में रहते हुए, जहाँ आपके अजाने भी तंत्र आप में घुसपैठ कर चुका हो, वहाँ ‘अव्यवहारिक’ गांधी ऐसे कवि के लिए प्रासंगिक हो जाते हैं.

ये लेखक के अपने विचार हैं

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