जर्मनी के जनादेश में पर्यावरण और नए मसलों पर मुहर

जर्मनी की निवर्तमान चांसलर एंजला मर्केल 2005 से 2021 इस पद पर बनी रहीं और नयी सरकार बनने तक इस पद पर रहेंगी. जर्मनी पर ख़ास निगाह रखने वाले राजनीतिक पंडितों का मानना है कि क्रिसमस तक तस्वीर साफ़ हो पाएगी. मर्केल का इतने वक़्त तक चांसलर रह पाना नित बदल रही दुनिया और खासकर यूरोप के लिहाज़ से अनोखी परिघटना नज़र आती है. मर्केल ने अपना नाम क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक पार्टी, जो जर्मनी में दक्षिणपंथ का प्रतिनिधित्व करती है, के इतिहास में उन चांसलरों की फेहरिस्त में दर्ज़ कर दिया है, जिन्होंने सबसे लम्बे वक़्त तक जर्मनी का चांसलरशिप संभाला. उनसे पहले कोनराड एडेनोर (14 साल) और एडमंड कोल (16 साल) सबसे लम्बे समय तक जर्मनी के चांसलर रहे. मध्यमार्गी मानी जाने वाली एंजला मर्केल सीडीयू की पहली महिला नेता रही जो सर्वोच्च पद तक पहुँची और सम्मान के साथ ही विदा हुईं.

फिर यह सवाल भी उठना लाज़मी है कि मर्केल के लोकप्रिय होने के बावजूद उनकी पार्टी को हार का सामना क्यों करना पड़ा? क्या इसके पीछे मर्केल का लम्बे समय तक सत्ता में रहना और इससे उपजी बोरियत और सत्ता विरोधी लहर को वजह माना जा सकता है? या यह सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक पार्टी और वामपंथी दलों की बढ़ती लोकप्रियता, उनके नीति और और कार्यक्रमों की स्वीकार्यता का संकेत है? गौरतलब है कि ग्रीन पार्टी और वामपंथी दल का कुल वोट तकरीबन 20 फीसदी है और ये पार्टियां सत्ताधारी और विपक्ष से महज़ कुछ ही फीसदी के फासले पर हैं. अगर एक अंग्रेजी वाक्यांश में समझने की कोशिश करें तो इसे ही ‘पैराडाइम शिफ्ट’ कहा जाता है. आइये इस मसले को दुनिया भर में छपे लेखों, विचारों और राय-मशविरे के बरक्स समझने की कोशिश करें.

न्यूयॉर्क टाइम्स ने मर्केल के कार्यकाल के जर्मनी को धनी लेकिन एक चिंतित मुल्क़ के बतौर रेखांकित किया है. एक ऐसा देश जो स्वयं को सामान्य दिखना पसंद करता है. वहीँ वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा है कि एक रूढ़िवादी पार्टी की नेता के बतौर मर्केल लैंगिक समानता के मसलों पर मुखर तो रहीं, लेकिन परदे के पीछे से. द गार्जियन मर्केल को ऐसी नेत्री के रूप में देख रहा है जो व्यक्तित्व और व्यवहार में सही रहीं लेकिन वो एक गलत पार्टी की सदस्य थीं. प्रसंगवश याद आया की भारत में अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कुछ ऐसा ही कहा जाता था. इजराइल के सबसे प्रसिद्ध मीडिया समूह के अखबार हारेत्ज़ ने लिखा है कि दुनिया मर्केल के प्रभावी रूप से पद छोड़ने से पहले ही उन्हें “मिस” करने लगी है. अखबार ने लिखा है कि आधुनिक राजनीति में लोग आते और जाते रहते हैं लेकिन इसी बीच मर्केल जैसी नेता भी उभरती हैं जो हमेशा के लिए अपना नाम लोगों के दिलों और इतिहास में दर्ज़ कर देती हैं. बहरहाल, मर्केल की अन्य कमी-कमजोरियां भी रही हैं जिस एक अन्य लेख की जरूरत होगी.

साथ ही यह सवाल भी उभरता है तकरीबन 16 वर्षों जर्मनी और भारत के बीच राजनीतिक और कूटनीतिक सम्बन्ध सामान्य से बेहतर कहे जा सकते हैं लेकिन इसका एक क्षेपक यह उभरता है कि सत्ता परिवर्तन के बाद इन दोनों लोकतंत्रों के बीच संबंध क्या मोड़ लेगा. मुख्यधारा में छपी ख़बरों की मानें तो आसार जताए गए हैं कि यह यथास्थिति का ही विस्तार होगा. मतलब नयी सरकार का रवैया सहयोगपूर्ण और पिछली रवायतों का ही विस्तार होगा. फिर भी नयी सम्भावनाओं पर एक नज़र डालना ज़रूरी है.

हाल ही में भारत में जर्मनी के राजदूत वाल्टर लिंडनर ने आश्वस्त किया है कि भारत की ज़ाहिरी भूमिका होनी ही है. इसका कारण बताते हुए उन्होंने कहा कि जर्मनी के राजनीतिक दल सुरक्षा, वैश्विक रणनीति और पर्यावरण जैसे मसलों पर भारत के दलों जैसी ही राय रखते हैं इसीलिए भारत की भूमिका असंदिग्ध है. लिंडनर ने पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि आतंकवाद, ग्लोबल वार्मिंग, जनसंख्या नियंत्रण, व्यापार और टीकाकरण सहित काई अन्य ऐसे मसले हैं जो भारत के सक्रीय सहयोग के बगैर नहीं सुलझेंगे.

भारत और जर्मनी के बीच अभी 20 बिलियन डॉलर से ज्यादा का व्यापार हो रहा है. जर्मनी की तकरीबन दो हज़ार कंपनियां भारत में काम कर रही हैं जिसमें छः लाख लोग रोजगारशुदा हैं. एक ख़ास बात यह भी कि जर्मनी भारतीय छात्रों के लिए गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्ष का एक महत्वपूर्ण केंद्र है. करीब पच्चीस हज़ार भारतीय छात्र जर्मनी में पढ़ाई कर रहे हैं जो यूरोप के भीतर जर्मनी को भारतीय छात्रों का महत्वपूर्ण गंतव्य बनता है.

ये लेखक के अपने विचार हैं

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