पार्टी की कार्यकारिणी समिति से बाहर किये जाने के बाद वरुण गांधी के द्वारा ट्वीट किये गए अटल बिहारी वाजपाई के भाषण के एक हिस्से को वरुण का भाजपा को अल्टिमेटम माना जा रहा है.
भाजपा सांसद वरुण गांधी हाल ही में लखीमपुर खीरी मामले में अपने बयान को लेकर चर्चा में थे. भाजपा से वे एकमात्र बड़े नेता थे जिन्होंने किसानों के समर्थन में न्याय की मांग की थी. भाजपा ने वरुण और उनकी मां मेनका गांधी को इसके बाद अपनी कार्यकारिणी समिति में जगह नहीं दिया था.
ये पहला मौका नहीं है जब वरुण गांधी ने भाजपा की विचारधारा से अलग जाकर अपना निर्णय लिया है. राजनीतिक गलियारे में अब वरुण गांधी और भाजपा के बीच बने दूरी की चर्चा गरम हो रही है. वरुण गांधी को अब भाजपा के हाशिए पर माना जा रहा है.
बीबीसी हिंदी पर रजनीश कुमार लिखते हैं कि जब तक भाजपा की कमान राजनाथ सिंह के पास थी तब तक वरुण गांधी की पार्टी में स्थिति सम्मानजनक रही. वरुण पार्टी महासचिव और पश्चिम बंगाल में पार्टी प्रभारी रहे.
2014 के चुनाव के वक्त जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार बनाने की तैयारी चल रही थी, तब भी वरुण ने राजनाथ सिंह की तुलना अटल बिहारी वजपाई से करते हुए उनकी वकालत की थी. उस वक्त पार्टी की कमान अमित साह के हाथ मे थी. वरुण को पार्टी महासचिव के पद से हटाया गया और बंगाल की कमान भी छिन ली गई.
अब वरुण, मेनका, सुब्रमण्यम स्वामी.. जैसे बड़े नेताओं को पार्टी की कार्यकारिणी समिति से बाहर कर के भाजपा साबित करने मे लगी है कि वो पार्टी की विचारधारा के विरुद्ध कुछ भी बर्दास्त नहीं करेगी.
भाजपा हमेशा से ही पार्टी लाइन से बाहर जाकर बात करने वाले नेताओं को हाशिए पर पहुंचा देती है. चाहे उनकी बातें लोकतंत्र और मानवाधिकार के पक्ष में ही क्यों न हो. पूर्व केन्द्रीय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री और राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी इसके उदाहरण है.
वरुण की भाजपा से बढ़ती दूरियों को देखते हुए उनके काँग्रेस में जाने की चर्चा गरम हो गई है. हालांकि भाजपा ऐसे नेताओ को पार्टी से निकालने की बजाए नजरंदाज करना शुरू कर देती है. सुब्रमण्यम स्वामी इसके सबसे उपयुक्त उदाहरण है. ऐसे नेताओं की भाजपा में नाम मात्र की भी हैसियत नहीं रह जाती.
ऐसे में वरुण गांधी भी सुब्रमण्यम स्वामी की ही तरह हासिए पर जाना स्वीकार करेंगे या किसी दूसरी पार्टी का दामन थामेंगे, ये देखना दिलचस्प होगा.