क्या पूँजी के असमान वितरण से अराजक माहौल उत्पन्न हो रहा है?

महत्वकांक्षा, बड़ा होने की लालसा और अकूत धन पा लेने के इच्छा आदमी को चारित्रिक रूप से कमजोर बना देती है. धीरे-धीरे आदमी के विचार भी बदल जाते हैं. वह अपनी लालसा और ख़्वाब को पूरा करने के लिए हर वह कार्य करता है जिससे उनको ज्यादा से ज्यादा धन की प्राप्ति हो सके और उसे आत्मसंतुष्टि मिल सके.

इस क्रम में वह यह तय नही कर पाता है कि क्या सही है और क्या गलत? समय गुजरने के बाद उसे यह अहसास होता है कि उसने जो किया, गलत किया ऐसा नहीं करना चाहिए था. यह सच्चाई है कि कोई भी आदमी किसी तरह का निर्णय लेने से पहले आत्ममंथन जरूर करता है पर नकारात्मक विचारों के प्रभाव की वजह से वह गलत निर्णय ले लेता है.


बाजारवादी अर्थव्यवस्था और उपभोक्तावादी संस्कृति ने सामाजिक जीवन को पूरी तरह से बदल दिया है. आदमी की आकांक्षाओं में बेतहाशा वृद्धि हुई है. विज्ञापनों ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. सब कुछ पा लेने की इच्छा आदमी को गलत निर्णय लेने के लिए प्रेरित करती है.

पूँजी तो सीमित दायरे में है या यूँ कहे कि हमारे देश में पूँजी की असमानता है. ‘समान काम के बदले  समान वेतन’ को सरकार लागू करना नही चाहती है. मेरे विचार से पूँजी के असमान वितरण से भारी समस्या उत्पन्न हो रही है. स्थिति यह है कि कुछ बड़े कॉरपोरेट देश की पूँजी पर कुंडली मार कर बैठे हुए हैं और सरकार भी उसमें मददगार साबित हो रही है.

आर्थिक नीतियाँ ऐसी बनाई जाती हैं जिससे कॉरपोरेट जगत को ज्यादा से ज्यादा फायदा पहुँचाया जा सके. लोकतांत्रिक देश में इस तरह की स्थितियाँ बहुत सारी समस्याओं को जन्म देती हैं. जब पूँजी/धन को देश से बड़ा समझा जाने लगेगा तो देश में अराजकता का माहौल उत्पन्न होने से कोई नही रोक सकता है. पूँजी के असमान वितरण की वजह से अमीरों और गरीबों के बीच खाई बढ़ती जा रही है.

समाज में एक तबका ऐसा है जिसके पास इतनी पूँजी है कि वह जीवन में हर सुख सुविधा को भोग रहा है और विलासिता पूर्ण जीवन जी रहा है दूसरी तरफ ऐसे लोग हैं जो अपनी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित हैं तथा निम्न स्तर का जीवन जीने के लिए विवश हैं. पूँजी के असमान वितरण के कारण फासिज्म, अंधराष्ट्रवाद, लूट खसोट, ग़रीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, निजीकरण, धार्मिक उन्माद और सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक असमानताएं बढ़ रही हैं.

ये लेखक के निजी विचार है.

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