इस बार छठ के पारंपरिक गीतों को तलाशने और सहेजने में ज्यादा समय दी. एकदम से जो ठेठ अंदाज में सीमित आधा दर्जन धुनों में ही तीन—चार दिनों तक जो दर्जनों गीत गांवों में गाये जाते हैं, उन गीतों की तलाश में लगी रही. इस तलाश की एक बड़ी वजह यह कि इस बार ज्यादा से ज्यादा पारंपरिक गीतों को गाने के साथ कुछ और समझने की इच्छा भी थी.
जो गीत मिले, सभी के टेक्स्ट को लिख कर रखी. समझने की कोशिश करने लगी कि आखिर जिस पर्व में गीत ही प्राणरस की तरह होते हैं तो उन गीतों को लोकमानस ने जो रचा होगा, उसमें क्या—क्या खास तत्व हैं? सबमें समानता क्या हैं? गीतों में ही यह तलाशने की कोशिश कर रही थी कि आखिर मूल रूप से स्त्रियों और सामूहिकता के इस लोकपर्व के गीतों में सामूहिकता और स्त्री कितनी है?
रूनुकी—झुनुकी के बेटी मांगिला… या पांच पुतर अन—धन—लछमी, लछमी मंगबई जरूर
ऐसे पारंपरिक गीतों में छठ पर्व के जरिये संतान के रूप में भी बेटी पाने की कामना तो पीढ़ियों से रही है लेकिन इसके अलावा और स्त्रियां किस रूप में है.
छठ और भगवान भास्कर से जुड़े गीतों की तलाश में समानांतर रूप से गीतकारी की दुनिया में और भी कई नयी बातें मिली. जैसे एक पारंपरिक कन्यादान गीत मिला. इस गीत का बोल है—
गंगा बहे लागल, जमुना बहे लागल, सुरसरी बहे निर्मल धार ए. ताहि पइसी बाबा हो आदित मनावेले, कईसे करब कन्यादान ए…
इस को जिन्होंने दिया, उन्होंने समझाया कि आदित्य भगवान से लोक समाज का गहरा रिश्ता रहा है.
पुराने गीतों में ईश्वर के रूप में गंगा और आदित्य ही ज्यादा हैं. इस कन्यादान गीत में भी बेटी के दान के पहले पिता आदित को ही मना रहे हैं कि इतनी ताकत दे भगवान कि वे अपनी बेटी का दान कर सकें. खैर! पारंपरिक छठ गीतों की तलाश में आदित्य से मिला एक खूबसूरत पक्ष था तो यहां चर्चा की, असल बात यह थी कि स्त्रियां प्रकारांतर से चार दिनों तक व्रत्त रखती हैं, दो दिनों का उपवास करती हैं तो वे मांगती क्या हैं?
गीतों के माध्यम से छठ
छठ को समझने का सबसे बेहतर माध्यम उसके गीत ही हैं और इन गीतों से जब इस सवाल का जवाब तलाशी तो आश्चर्यजनक रूप से यही तथ्य सामने आया कि इतना कठिन व्रत्त करने के बाद भी व्रत्ती स्त्रियां सिर्फ एक संतान की मांग को छोड़ दें तो अपने लिए कुछ नहीं मांगती. उनकी हर मांग में पूरा घर शामिल रहता है. पति के कंचन काया की मांग करती हैं, निरोग रहने की मांग करती हैं, संतानों की समृद्धि की कामना करती हैं लेकिन अपने लिए कुछ नहीं. और छठ के गीतों से और बारिकी से गुजरने पर यह भी साफ—साफ दिखा कि यह किसी एक नजरिये से ही पूरी तरह से लोक का त्योहार नहीं है, बल्कि हर तरीके से विशुद्ध रूप से लोक का ही त्योहार है.क्योंकि छठ के गीतों में एक और आश्चर्यजनक बात है कि कहीं भी मोक्ष की कामना किसी गीत का हिस्सा नहींं है. लोक की परंपरा में मोक्ष की कामना नहीं है.यह तो एक पक्ष हुआ. बाकि तो ढेरों बातें छठ के गीत में है ही. इसकी एक और बड़ी खासियत यह है कि इसमें परस्पर संवाद की प्रक्रिया चलती है.
एकतरफा भगवान भास्कर या छठी माई से संवाद नहीं होता. अगर कोई छठी मइया से या भगवान सूर्य से कुछ मांगता है तो फिर परस्पर संवाद भी चलता है देवता और भक्त के बीच. छठ के गीतों में जब यह परस्पर संवाद की प्रक्रिया चलती है तो लगता है कि यह लोकपर्व क्यों है. लोक की यही तो खासियत है. उसने अपना परलोक खुद गढ़ा है इसलिए वह परलोक से सहज संवाद में विश्वास भी करता है.
प्राकृतिक तत्व से सजे हैं लोकगीत
पारंपरिक लोकगीत लोक और परलोक के इस सहज—सरल रिश्ते को खूबसूरती से दिखाते हैं. बाकि छठ गीतों का एक खूबसूरत पक्ष यह तो होता ही है कि इसमें प्रकृति के तत्व विराजमान रहते हैं. सूर्य, नदी—तालाब—कुआं, गन्ना, फल, सूप,दउरी.यही सब तो होता है छठ में और ये सभी चीजें या तो गाँव-गिराँव की चीजें हैं, खेती किसानी की चीजें हैं या प्रकृति की. छठ के बारे में यह कहा जाता है और सिर्फ कहा ही नहीं जाता, देखने की चीज है कि यही एकमात्र त्योहार है, जिस पर आधुनिकता हावी नहीं हो पा रही या कि आधुनिक बाजार इसे अपने तरीके से अपने सांचे में ढाल नहीं पा रहा. ऐसा नहीं हो पा रहा तो यकीन मानिए कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका पारंपरिक छठ गीतों की है जो लोकभाषा—गांव—किसान—खेती—प्रकृति को अपने में इस तरह से मजबूती से समाहित किये हुए है कि इसमें बनाव के नाम पर बिगड़ाव की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं बचती.
और जब यह सब लिख रही हूं तो छठ गीत गुनगुना रही हूं. छठ बचपने से ही अपना प्रिय त्योहार रहा है.छोटी थी तो सुनती थी समूह में महिलाओं को गीत गाते हुए. कितना अच्छा लगता था और अब भी कितना अच्छा लगता है जब समूह में बैठकर छठ करनेवाली महिलाएँ गीत गाती हैं. मैं अब भी मानती हूं कि तमाम प्रयोगों के बावजूद छठ की असल अनुभूति बिना साज—बाज के उन महिलाओं द्वारा गाये जानेवाले गीतों में जिस तरह से होती है, वह बिरला है. बिना संगीत के ही जो गायन होता है उसमें समाहित भाव, छठ गीतों में तमाम तरह के संगीत के प्रयोग में भी नहीं आ पाता.
यह मेरी निजी राय है, अपनी छोटी समझ के आधार पर कह रही हूं. लेकिन यह कहने का मतलब यह भी नहीं कि प्रयोग नहीं होना चाहिए या कि कोई प्रयोग नहीं हो. छठ गीतों की पहचान शारदा सिन्हाजी अगर छठ गीतों में प्रयोग कर गायन न की होतीं तो आज जिस तरह से सिर्फ उनके गीत बजने से ही छठ का माहौल बन जाता है और जिस तरह से उनके छठ गीतों ने पूरी दुनिया में छठ को लोकप्रिय बनाया है, वह नहीं हो पाता. लोकगीतों में प्रयोग और नवाचार ही तो उसे पीढ़ियों से और सदियों से जीवंत बनाये हुए है.पर आत्मा मारकर,मौलिकता को खत्म कर प्रयोग नहीं.
छठ गीतों में बेसिर पैर के प्रयोग करनेवालों को याद रखना चाहिए कि चंद पारंपरिक धुनों से अलग कोई भी गीत लंबे समय तक छठ में चल नहीं पाता. मीडिया के अधिकाधिक टूल—किट हैं तो जिस साल ऐसे प्रायोगिक गीत आते हैं, लोगों के बीच जाते हैं लेकिन वैसे प्रयोगी गीतों की उम्र बस उसी साल तक की होती है. वह सदा—सदा के लिए छठ के गीत नहीं बन पाते, साल—दर साल आम जनमानस उसे नहीं दुहराता, जैसे पीढ़ियों से कांच ही बांस के बहंगिया जैसे गीत को दुहरा रहा है. बिना किसी बदलाव के, उसी उत्साह, उसी उमंग, उसी भाव के साथ.
छठ गीतों में बदलाव
तो क्यों आखिर ऐसा? छठ के गीतों में बदलाव मंजूर क्यों नहीं? आखिर दूसरे कितने पर्व तो हैं लोक के, जिनके गीतों में अंधाधुंध प्रयोग होते हैं और सफल भी होते हैं लेकिन छठ गीतो में ऐसा क्यों नहीं हो पा रहा, इतनी कोशिशों के बावजूद. दरअसल, छठ के पर्व में उसकी लौकिकता ही उसका मूल है. उसमें शास्त्र की कोई गुंजाइश नहीं. शास्त्रीय परंपरा बाजार के करीब ले जाकर या बाजार के हवाले कर किसी पर्व में बदलाव और अपने अनुसार ढलाव के लिए रास्ते खोल देता है. छठ में शास्त्र का शून्य रहना उसे अपनी शर्तों पर बनाये रखता है. चूंकि पर्व ही लौकिक है, अपनी शर्तोंवाला है तो फिर उसकी मूल और प्रमुख पहचान गीतों में यह गुंजाइश भी नहीं बनती. इसलिए तमाम प्रयोगों के बावजूद छठगीतों की असल अनुभूति बिना साज—बाज के उन महिलाओं द्वारा गाये जानेवाले गीतों में जिस तरह से होती है, वह बिरला है. बिना संगीत के ही जो गायन होता है उसमें समाहित भाव, इनोसेंसी छठ गीतों में तमाम तरह के संगीत के प्रयोग में भी नहीं आ पाता. बहुत सहज तरीके से कहें तो छठ गीत प्रधान पर्व है, संगीत प्रधान नहीं.
अंत में एक और बात. यह तो साफ है कि छठ का पर्व और छठ के गीत, दोनों बताते हैं कि यह त्योहार स्त्रियों का ही रहा है. स्त्रियां ही बहुतायत में इस त्योहार को करती हैं. इधर हालिया दशकों में पुरूष व्रतियों की संख्या भी बढ़ रही है. पुरूष भी उसी तरह से नियम का पालन करते हैं, उपवास रखते हैं, पूरा पर्व करते हैं. इस तरह देखें तो पर्व—त्योहारों की दुनिया में यह एक खूबसूरत पक्ष है.
छठ संभवत: इकलौता पर्व ही सामने आएगा, जो स्त्रियों का पर्व होते हुए भी पुरूषों को निबाहने या करने के लिए आकर्षित कर रहा है और इतना कठिन पर्व होने के बावजूद पुरूष आकर्षित हो रहे हैं. स्त्रियों की परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं. व्रत्त के दौरान ही सही, स्त्री जैसा होने का धर्म खुद से चयनित कर रहे हैं. अपने पति, अपनी संतानों के लिए स्त्रियां छठ के अलावा और भी दूसरे व्रत्त करती हैं. संतानों के लिए जिउतिया और पतियों के लिए तीज, लेकिन पुरूष अब तक इन दोनों व्रतों का कभी हिस्सा नहीं बना.
कभी खुद व्रति नहीं बना. कभी यह दोतरफा नहीं चला कि अगर स्त्री इतना कुछ कर रही है, इतनी कठोरता से व्रत्त संतान के लिए या पति के लिए कर रही है तो पुरूष भी करें. इस नजरिये से छठ एक बिरला पर्व है, जो तेजी से पुरूषों को स्त्रित्व के गुणों से भर रहा है. छठ के बहाने ही सही, पुरूषों को भी स्त्री की तरह इच्छा—आकांक्षा, कठोर तप, अनुशासन, निष्ठा, संयम धारण करने की प्रेरणा दे रहा है. छठ ही वह त्योहार है, जो पारंपरिक लोक पर्व होते हुए भी लोक की जड़वत परंपरा को आहिस्ते—आहिस्ते ही सही लेकिन मजबूती से बदल रहा है. एक नयी बुनियाद को तैयार कर रहा है.
लेखिका लोकगायिका हैं.
लोक आस्था के इस पर्व पर इससे बढ़कर कोई बेलाग आलेख भला क्या हो सकता है