लोगों ने ठान लिया है कि हम तभी बल्ला उठाएंगे जब भाजपा गेंद फेकेगी…भाजपा की गेंद पर शॉट मारने में बुद्धिवादियों को भी मजा आने लगा है क्योंकि उधर प्रसिद्धि जल्दी है, लेक़िन मैं बुद्धिवादी नहीं हूं, क्योंकि बुद्धि है ही नहीं!!
वर्तमान में चल रहे ‘हिजाब’ मुद्दे को मैं कैसे देखती हूँ!!
भारतीयों के इज्ज़त-आबरू की सारी जिम्मेवारी उनकी महिलाओं के सर होती है. सर ही नहीं, हाथ-पैर, मुंह-नाक, आंख-कान, कद-काठी, और विशेषकर उसके योनि में होती है. यथा किसी भारतीय की इज्ज़त लेनी हो तो उसकी मां-बहन, बहु-बेटी आदि की इज्ज़त(योनि) पर वार करना होता है, बिना इसके आप उक्त व्यक्ति की इज्जत नहीं ले सकते. यहां के पुरुष भले मातृहन्ता हों, पत्नीत्यक्ता हों, भ्रष्टाचारी, बालात्कारी, अपराधी, धूर्त आदि हों, विदेशों में अपनी इज्ज़त उतरवा के आएं हो या देश के सबसे प्रतिष्ठित जगह पर लात-जूता करते हों, उनकी इज्ज़त जाने का नाम ही नहीं लेती.
भारतीयों की नाक छोटी हो या लम्बी, तभी कटने लगती है जब स्त्रियां बराबरी की मांग करती हैं. आज की औरतें जब सीता और द्रौपदी की तरह अपने वर का चुनाव स्वयं करने लगती हैं तब दौड़कर गिरती-पड़ती अवस्था में इज्ज़त भागने लगती है. अगर वे पिता की संपत्ति में अधिकार मांगे तब नाक का घायल होना तय है. औरतों के पहनावे से लेकर उनकी आवाज़ की चाल तक से पुरुषों की नाक जुड़ी होती है. यहां तक की नजरें नीची रहें तभी तक इज्ज़त देह में, जैसे ही उठीं नाक का लहूलुहान होना तय है.
जिस देश में सावित्रीबाई और फ़ातिमाशेख ने महिलाओं के उत्थान के लिए क्या-क्या नहीं झेला उसी देश की औरतों पर पुनः एक बड़े साजिश के तहत तमाम रूढ़ियों और परंपराओं को थोपा जा रहा है. हमारा देश बड़ा विचित्र है और देशवासी तो गज़ब. हम समान शिक्षा की बात कभी नहीं करते, हमें बस एक समान यूनिफार्म की पड़ी है. बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के खाने-पहनने का चुनाव किया जा रहा है, जिसके मैं भी विरोध में हूं लेकिन मैं इस बात का समर्थन कदापि नहीं करती कि ‘धार्मिक कट्टरता’ जो स्त्रियों के सहारे स्थापित किये जाने का रिवाज़ रहा है उसे आज भी ढोया जाए. आश्चर्यचकित हूं देश की महिलाओं के मानसिक ग़ुलामी के प्रतीक को ढोने में लोग उनका समर्थन कर रहे हैं. समझ नहीं आता कि क्यों धर्मावलम्बी लोग अपने धर्म की रूढ़ियों को महिलाओं के सहारे बनाये रखना चाहते हैं.
वर्तमान में देश के भीतर ‘हिज़ाब’ को एक बड़ा मुद्दा बना दिया गया है, मेरी समझ में पगड़ी, चंदन-टीका, जनेऊ, क्रॉस लॉकेट, गले में लटकने वाले दुर्गा-हनुमान को भी मुद्दा होना चाहिए. इन्हें ढोने वाले स्त्री-पुरूषों को न सिर्फ शैक्षणिक बल्कि राष्ट्र के सभी लोकतांत्रिक संस्थानों में प्रवेश नहीं दिया जाना चाहिए.
राजनैतिक और धार्मिक आर में स्त्रियों की आज़ादी के ऊपर जो ख़तरे मंडरा रहे हैं उन्हें समझने की जरूरत है. एक तरफ़ इसे राजनैतिक पार्टियां भुना रही हैं दूसरी तरफ कट्टरपंथी धर्म के ठेकेदार लोग. देश के भीतर 2014 के पश्चात महिलाओं को डराने का माहौल खड़ा किया जा रहा है, जिसपर किसी की नज़र नहीं है. NCRB की रिपोर्ट कहती है कि औरतों के ख़िलाफ़ होने वाले हर तरह के अपराधों में वृद्धि हुई है.
पहले देश के भीतर बालात्कार की बाढ़ आयी, जगह-जगह से बालात्कार के जघन्य, दिल दहला देने वाले मामले सामने आएं. छोटी-छोटी बच्चियों तक को नहीं छोड़ा गया. साम्प्रदायिक नफ़रत ने बालात्कार जैसी घटना के अपराधी को भी तिरंगे में लपेटना चाहा.
साम्प्रदायिक नफ़रत के तहत ‘सुल्ली डील्स’ और ‘बुल्ली बाई एप्प’ बनाया गया. औरतों की नीलामी की गयी, ये सभी अचानक से होने वाली घटना नहीं है. इसके पीछे एक बड़ा षड्यंत्र काम कर रहा है. इन सबकी आर में औरतों की आज़ादी पर हमला है. यदि कोई बहुसंख्यक किसी अल्पसंख्यक की महिलाओं को निशाना बना रहा है तो तो कोई अल्पसंख्यक दिमाग भी बहुसंख्यक महिलाओं के ख़िलाफ़ ऐसा करने की तैयारी में अवश्य होगा.
अगर ऐसा होता है तो मैं समझती हूं कि देश की महिलाओं को एक बड़ी लड़ाई के लिए तैयार रहना होगा. पहनावे की बात करें तो हिज़ाब कोई मुद्दा नहीं होना था, इसे उन महिलाओं के ख़िलाफ़ मुद्दा बनाया गया है जो हिज़ाब से मुक्त हो चुकी हैं अथवा होना चाहती हैं.
हिज़ाब को आज जिस बहादुरी के प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत कराया गया है, वो मानसिक गुलामी को मजबूत करना है. मेरी जानकारी में पहली मरतबा 1 फरवरी 2022 को ‘हिज़ाब दिवस’ मनाया गया है.
अब यदि हिजाब दिवस मनाया जाएगा तो उसके समानांतर ‘घूंघट दिवस’ मनाए जाने की भी बात उठेगी. अब ‘हिजाब’ हो या ‘घूंघट’ दोनों स्त्रियों को ही पहनना है, मर्द तो पहनेंगे नहीं लेकिन इसकी पैरवी अवश्य करेंगे. एक बात और यह समझनी चाहिए कि इस तरह की रूढ़ियों और परंपराओं का बोझ भी निम्न वर्ग और जातियों से आने वाली महिलाओं को ही ढोना पड़ता है. स्त्रियों के द्वारा, उनके सहारे ही स्त्रियों को गुलाम बनाने की परंपरा का इतिहास बहुत समृद्ध है अब उसे तोड़े जाने की जरूरत है, सीखने की तो कतई नहीं.
मैं हिज़ाब के न तो समर्थन में हूं न विरोध में. ये पहनावा चुनने का व्यक्तिगत मसला है, किंतु जब इसे राजनैतिक व धार्मिक मुद्दे का रूप देकर देश के भीतर एक बहस खड़ा किया जा रहा है जिसका प्रभाव पूरी स्त्री जाति को प्रभावित करने वाला है तब अपनी बात रखना जरूरी समझती हूं. मेरी समझ में हिज़ाब की मनाही पर टीका-चंदन, दुर्गा-हनुमान, पगड़ी और क्रॉस आदि के मनाही पर विशेष ऊर्जा लगानी थी.
मजाज़ लखनवी ने दो शे’र लिखे थे, एक तो ख़ूब प्रचलित हुआ जो निम्न है:
“तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था.”
दूसरा शे’र भी लाजबाब है जिसे अब प्रचलित हो जाना चाहिए और वो शेर इस प्रकार है:
“हिजाब ऐ फ़ितनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था”
स्त्रियां तीन सत्ताओं की गुलामी ढोती चली आ रहीं है. पितृसत्ता, धर्मसत्ता और राजसत्ता. इन तीनों ने अपने मन-मुताबिक़ स्त्रियों को चलाया है. आज भी वही कर रहे हैं. पितृसत्ता हिज़ाब के पक्ष में है, धर्मसत्ता पुरुषों के हाथों की गुड़िया है और राजसत्ता इसका राजनैतिक फायदा उठाने में माहिर है. यह भारत-दुर्दशा में दुर्गति के नए अध्याय को जोड़ने जैसा है.
यह बहुत खतरनाक है कि देश के युवा जिन्हें इस उम्र में पढ़ाई और प्रेम करना था वो न तो पढ़ रहे हैं न ही प्रेम कर रहे क्योंकि प्रेम करने के उनके निजी अधिकार को भी राजनैतिक रूप दे दिया गया है. उन्होंने अपने दिमाग़ में ज़हर और हाथों में हथियार भर लिए हैं. राजसत्ता ने स्त्रियों के ख़िलाफ़ जो ज़हर फ़ैलाया है उसी के परिणामस्वरूप छात्र ईंट-पत्थर चला रहे हैं, इंटरनेट पर महिलाओं की बोली लगा रहे हैं आदि.
यह समझने की जरूरत है और गम्भीर चिंतन का मसला है कि ये जो ईंट-फेंकने वाले लोग हैं वो टीकधारी पुरुषों पर पत्थर क्यों नहीं फेंकते? वो उन पुरुषों के ख़िलाफ़ क्यों नहीं खड़े होते जो संस्थानों में किसी विशेष धर्म के श्लोकों का उच्चारण प्रार्थना में बच्चों से करवाते हैं?
इस देश में स्त्रियों को जानवरों से भी बदतर स्थिति में जीवन जीने को मजबूर किये जाने का इतिहास रहा है जिसे वापस दुहराने की साजिश में तीनों सत्ताएं महिलाओं के समक्ष खड़ी हैं. इस समय में सिर्फ़ एक कोशिश होनी चाहिए और वो यह कि औरतें शिक्षा-स्वास्थ्य-सुरक्षा और रोज़गार की मांग पर अड़ी रहें, बिना इसके हम गुलाम ही रहेंगे.
- प्रियंका प्रियदर्शिनी
स्नातकोत्तर(हिंदी)
हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय