मधुकर सिंह : ग्रामीण समाज के जनवादीकरण की जद्दोजहद का कथाकार 

कल 2 जनवरी को सुप्रसिद्ध कथाकार मधुकर सिंह का जन्मदिन था. पेश है उन पर एक लेख.

आज जब हिंदी कथा साहित्य में ग्रामीण जीवन का यथार्थ हाशिये पर चला गया है, तब मधुकर सिंह जैसे कथाकार की बेहद याद आती है, जो आखिरी सांस तक ग्रामीण समाज के जनवादीकरण की चेतना से जुड़ा साहित्य रचते रहे. 15 जुुलाई 2014 को वे हमारे बीच नहीं रहे.

जीवन के आखिरी छह साल वे लकवा की बीमारी से ग्रस्त रहे, लेकिन प्रेमचंद और रेणु के बाद ग्रामीण यथार्थ को केंद्र बनाकर लिखने वाले इतने बड़े साहित्यकार पर सरकार ने अपेक्षित ध्यान नहीं दिया. उनके निधन के 8 साल गुजर जाने के बाद भी उनकी स्मृति में पुस्तकालय बनाने और उनकी प्रतिमा लगाने की जनता की मांग पूरी नहीं हुई है.

मधुकर सिंह के पिता मिदनापुर, बंगाल में जेल के सिपाही थे. वहीं 2 जनवरी 1934 को उनका जन्म हुआ था. लेकिन 10 साल की उम्र में मां के साथ वे अपने गांव धरहरा, आरा आ गए और उनकी जिंदगी का ज्यादातर वक्त वहीं गुुजरा. मां से उन्हें बांग्ला लोकगीतों और भोजपुरी लोककथाओं की विरासत मिली.

1963 में इनका गीत-संग्रह ‘रुक जा बदरा’ प्रकाशित हुआ. लेकिन तब तक उनकी लेखनी कहानी की ओर मुड़ चुकी थी. उनके पहले संग्रह ‘पूरा सन्नाटा’ की कहानियां देश में बढ़ती बेरोजगारी, आर्थिक-सामाजिक विषमता से पैदा हो रहे विक्षोभ को लेकर सामने आईं. जनता का विक्षोभ विस्फोटक रूप ले रहा है और सरकारें दमनकारी हो रही हैं, इसे 1966 में लिखी गई ‘इन दिनों’ कहानी में बखूबी देखा जा सकता है. इसके एक साल बाद ही नक्सलबाड़ी विद्रोह हुआ, उसकी आंच भोजपुर पहुंची और भोजपुर के क्रांतिकारी आंदोलन ने कई साहित्यकारों को गहरे तौर पर प्रभावित किया. इस आंदोलन के नेतृत्वकारियों में से एक जगदीश मास्टर मधुकर सिंह के कथा-साहित्य की प्रेरणा बन गए.

मधुुकर सिंह अपने समाज और राजसत्ता की सूरत को बदलने की लड़ाई लड़ रहे वास्तविक नायकों को हिंदी कथा साहित्य में ले आए. उन्होंने सोनभद्र की राधा, सबसे बड़ा छल, सीताराम नमस्कार, जंगली सुअर, मेरे गांव के लोग, समकाल, कथा कहो कुंती माई, अगिन देवी, अर्जुन जिंदा है समेत मधुकर सिंह ने उन्नीस उपन्यास लिखे. इसके अलावा पूरा सन्नाटा, भाई का जख्म, अगनु कापड़, पहला पाठ, हरिजन सेवक, आषाढ़ का पहला दिन, पहली मुक्ति, माइकल जैक्सन की टोपी, पाठशाला आदि दस कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए.

इनकी कहानियों और उपन्यासों में दलितों की सामाजिक मुक्ति का सवाल जमीन के आंदोलन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ नजर आता है. ‘मेरे गांव के लोग’ कहानी में तो वे कहते भी हैं कि ‘जाति, धर्म-संप्रदाय सबकी बुनियाद जमीन है.’

मधुकर सिंह की कहानियों और उपन्यासों में मुक्ति का जो संघर्ष चित्रित है, उसमें स्त्री, दलित या अल्पसंख्यक के प्रश्न अलग से नहीं आते, बल्कि आपस में घुले मिले हुए नजर आते हैं. सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर मौजूद मेहनतकशों की सामाजिक-आर्थिक मुक्ति वर्ग-समन्वय के किसी रास्ते से संभव नहीं है, मधुकर सिंह की कहानियां बार-बार इस समझ को सामने लाती हैं. उनकी चर्चित कहानी ‘दुश्मन’ ऐसी ही कहानी है. मधुकर सिंह खुद को वामपंथी मानते थे. वे सत्तापरस्त वामपंथ की जगह जनपरस्त वामपंथ का सपना देखते हैं. वे वामपंथ से सामंतवाद और वर्ण-व्यवस्था के नाश की अपेक्षा करते हैं.

मधुकर सिंह ने बच्चों के लिए भी लिखा. बाबू जी का पासबुक, लाखो, कुतुब बाजार जैसे नाटक लिखे. फिल्मों के लिए पटकथा भी लिखा. तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों और साहित्यिक आंदोलनों के परिप्रेक्ष्य में उनके कथा साहित्य की जो भूमिका है, उस पर अब भी पर्याप्त शोधकार्य और मूल्यांकन की जरूरत है. उनके साहित्य पर अब तक तीन पीएच.डी. हुए हैं. उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर डाॅ. राजेंद्र प्रसाद सिंह और संजय नवले द्वारा संपादित ‘साहित्य में लोकतंत्र की आवाज’ और अशोक कुमार सिन्हा की पुस्तक ‘मधुकर सिंह: पहचान और परख’ मात्र यही दो पुस्तकें अब तक प्रकाशित हैं.

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