अब्दुलरज़ाक गुरनाह को साहित्य का नोबेल दिए जाने के मायने

दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार नोबेल हो या फिर कोई अन्य पुरस्कार हो, इनको लेकर विवाद भी खूब सामने आते रहे हैं और पाने वालों पर पॉलिटिकल सेटिंग या फिर मेरिट का आरोप लगाया जाता रहा है. यह भी एक दिलचस्प आरोप नोबेल पर लगाया जाता रहा है कि नोबेल फाउंडेशन के चयनकर्ता पुरस्कार देने में महिलाओं के साथ भेदभाव का रुख अपनाते हैं. यौन उत्पीड़न विवाद के चलते साल 2018 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार टाल दिया गया था. और फिर साल 2019 में 2018 और 2019 के लिए एक साथ पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई थी. साल 2018 का नोबेल पुरस्कार पोलैंड की लेखिका ओल्गा तोकाचुर्क को दिया गया और वहीं साल 2019 के साहित्य का नोबेल पुरस्कार ऑस्ट्रियाई उपन्यासकार पीटर हैंडके को दिया गया. पीटर हैंडके पर आरोप-प्रत्यारोप के साथ विश्व साहित्य जगत में एक नई बहस ही छि‍ड़ गई थी, क्योंकि हैंडके पर आरोप था कि यूगोस्लाविया के गृह युद्ध के दौरान बोस्निया और कोसोव में हजारों के नरसंहार को हैंडके जायज मान रहे थे. बहरहाल अब इस साल यानी 2021 के साहित्य के नोबेल विजेता से साहित्य जगत खुश दिख रहा है.

कहते हैं हर किताब अपनी यात्रा जरूर तय करती है. तंजानिया के लेखक अब्दुलरज़ाक गुरनाह को उनके मशहूर उपन्यास ‘पैराडाइज़’ के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार मिला है. ये वही तंजानिया है जहां के राष्ट्रपति जॉन मागुफुली को बुलडोजर का लकब हासिल था और दो सप्ताह तक लापता रहने के बाद 18 मार्च 2021 को उनकी मौत की खबर आई. जॉन मागुफुली रसायन विज्ञान के प्रोफेसर थे और दुनियाभर में फैले कोरोना संक्रमण के बावजूद उन्होंने एक भी दिन लॉकडाउन नहीं लगाया.

साहित्य का नोबेल पाने वाले गुरनाह दूसरे अफ्रीकी मूल के लेखक हैं, जबकि इनसे पहले साल 1986 में अफ्रीकी मूल के लेखक वूले सोयिंका को नोबेल पुरस्कार मिल चुका है.

उपन्यास ‘पैराडाइज’ साल 1994 में ब्रिटिश पब्लिशिंग हाउस ‘हैमिश हैमिल्टन’ से पहली बार छपा था. छपने के 27 साल बाद नोबेल मिलना इस किताब की यात्रा को पूरी करके इसको अपनी मंजिल तक पहुंचाता है जिसकी यह हकदार थी. गौरतलब है कि ‘पैराडाइज’ उपन्यास साल 1994 में ‘बुकर पुरस्कार’ और फिर बाद में ‘व्हाइटब्रेड पुरस्कार’ के लिए भी नामित हुआ था. पैराडाइज दूसरी बार साल 2004 में ‘ब्लूम्सबरी बुक्स’ से छपा था. गुरनाह की पहली किताब साल 1987 में छपी थी जिसका शीर्षक है- ‘मेमोरी ऑफ डिपार्चर’ और आखिरी किताब पिछले साल यानी 2020 में छपी थी जिसका शीर्षक है- ‘आफ्टरलाइफ’. साल 2001 में छपे उनके उपन्यास ‘बाई द सी’ भी बूकर प्राइज की सूची में शामिल थी.

साल 1948 में तंजानिया के जंजीबार में जन्मे अब्दुल रज़ाक गुरनाह साल 1960 में एक शरणार्थी के रूप में इंग्लैंड पहुंचे थे. शरणार्थी जीवन को बेहद करीब से समझने वाले गुरनाह आगे चलकर लंदन के होकर ही रह गए और वहीं से अपनी पढ़ाई पूरी कर पठन-पाठन के कार्य में लग गए. यूनिवर्सिटी ऑफ़ केंट में अंग्रेजी साहित्य पढ़ाने वाले उपन्यासकार गुरनाह को उनके बेहद मशहूर उपन्यास ‘पैराडाइज’ के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार मिलना सचमुच उनके लिए चौंकाने वाला तो था लेकिन वो इसे डिजर्व भी करते हैं. कुछ ही समय पहले तक केंट विश्वविद्यालय, कैंटरबरी में अंग्रेजी और उत्तर औपनिवेशिक साहित्य पढ़ाने वाले अब्दुलरज़ाक दस उपन्यास लिख चुके हैं जिसमें पैराडाइज और डेजर्शन मशहूर हैं. इसके साथ ही गुरनाह ने ढेर सारी लघुकथाएँ भी लिखी हैं, जो विभिन्न प्रकाशनों से छप चुकी हैं.

स्वीडिश अकादमी, स्टॉकहोम, स्वीडन द्वारा साहित्य में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया जाता है. इससे पहले साल 2020 में अमेरिकी कवयित्री लुईस ग्लूक को साहित्य का नोबेल मिला था। प्रोफेसर लुईस ग्लुक येल यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी पढ़ाती हैं.

उपन्यास पैराडाइज की कहानी का केंद्र बीसवीं सदी की शुरुआत में तंजानिया का लड़का यूसुफ है, जो अपने कारोबारी पिता का उधार चुकाने के लिए एक अरब व्यापारी के चंगुल में फंस जाता है. और इस तरह शुरू होती है यूसुफ के बंधुआ मज़दूर बनने की कहानी.

बंधुआ मजदूर बनने की त्रासदी से भारत अच्छी तरह से परिचित है. दरअसल, भारत में गिरमिटिया मजदूरों का इतिहास जब हम पढ़ते हैं तब पता चलता है कि किस तरह अंग्रेज यहां के लोगों को मजदूरी करने के लिए फिजी, ब्रिटिश गुयाना, डच गुयाना, ट्रिनिदाद, टोबेगा, नेटाल (दक्षिण अफ्रीका) भेजते थे. कागज पर अंगूठे का निशान लगवाकर विदेशों में भेजे जाने वाले इन मजदूरों को ही उस वक्त गिरमिटिया कहा जाता था. दरअसल, गिरमिट शब्द अंग्रेजी शब्द एग्रीमेंट का अपभ्रंश है. उस दौर में ज्यादातर अनपढ़ मजदूर एग्रीमेंट को गिरमिट बोलते थे. गिरमिटिया मजदूर एक तरह से बंधुआ मजदूर होते हैं. ऐसे में अब्दुलरज़ाक गुरनाह के उपन्यास पैराडाइज की कहानी हम सबके लिए भी एक तरह से प्रासंगिक ही कही जाएगी. देश भले बदल जाएं लेकिन बंधुआ मजदूरों की कहानियां और उनमें छुपे उनकी अंतहीन पीड़ा हर जगह एक समान ही होती है. भ्रष्टाचार और बंधुआ मजदूरी के ईर्द-गिर्द बुनी गई पैराडाइज की कहानी में गुरनाह ने अफ्रीकी उपनिवेशों में गहरे तक पैठ बना चुके यूरोपीय भ्रष्टाचार का एक प्रासंगिक रेखाचित्र खींच दिया है.

नोबेल पुरस्कारों की साहित्य समिति ने अब्दुलरज़ाक के बारे में कहा है कि सच लिखने को लेकर अब्दुलरज़ाक की प्रतिबद्धता और बेहद सरल तरीके से विरोध करने का उनका तरीका दिल को छू लेनेवाला होता है. गौरतलब है कि गुरनाह की रचनाओं की पृष्ठभूमि पूर्वी अफ्रीका के तटीय इलाके होते हैं और उनकी कहानियों के नायक भी उसी जगह के आस-पास के होते हैं. गुरनाह ने उपनिवेशवाद के खतरनाक प्रभावों और देशों की संस्कृतियों के बारे में खूब लिखा है। उनके दिल में शरणार्थियों के लिए जो प्यार और सम्मान है, उसी से उनकी लेखनी में प्रेम और करुणा दिखाई देती है. भाषा विद्वानों की राय में गुरनाह की भाषा शैली पोलिश-ब्रिटिश लेखक जोसेफ कोनराड से काफी मिलती है. क्या ही इत्तेफाक है कि जोसेफ कोनराड को भी उनकी किताब ‘हार्ट ऑफ़ डार्कनेस’ के लिए साल 1902 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिया गया था.

जिस भ्रष्टाचार और बंधुआ मजदूरी को लेकर गुरनाह ने कहानियों की रचना की, उसकी प्रासंगिकता भारत के ऐतबार से आज ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि पिछले कई दशकों से देश में राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक भ्रष्चार जारी है. अब तो आलम यह है कि भ्रष्टाचार का उजागर करने वालों को ही मार दिया जा रहा है. ऐसे में यह डर तो लेखकों में भी है कि वे अगर देश के भ्रष्टाचार की पोल खोलेंगे तो उनकी जान पर बन आएगी. निश्चित रूप से यह समय लेखकों और विचारकों के लिए अनुकूल नहीं है. फिर भी लेखकों से उम्मीद की जानी चाहिए कि वो भ्रष्टाचार पर खिलें, इस उम्मीद के साथ कि कम से कम समाज उनके साथ खड़ा होगा. लेकिन अगर यह समाज ही ऐसे लेखकों का साथ नहीं देगा, तो फिर यह मुश्किल है कि देश में हो रहे भ्रष्टाचार पर कभी कोई लिखने की कोशिश भी करेगा. निरंकुश सत्ता के इस दौर में लोकतंत्र की मर्यादा अब तार-तार तो हो ही चुकी है. ऐसे में साहित्य का नोबेल गुरनाह जैसे ईमानदार लेखक को मिलना लेखकों में उम्मीद जगाता है.

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