आदिवासी मसलों पर नीतिगत रूप से फेल है मोदी सरकार

छत्तीसगढ़ के कांकेर ज़िले में एक जगह है कोयलीबेड़ा. कांकेर से अंतागढ़ और फिर घने जंगल के बीच से जाने वाली सड़क से होकर कोयलीबेड़ा पहुँचा जाता है. अंतागढ़ से कोयलीबेड़ा जाने वाली सड़क पर बीएसएफ़ के चेक पोस्ट मिलते हैं. रास्ते में कई ट्रक भी जले हुए दिखाई दे जाते हैं. यानि यह इलाक़ा माओवादी आंदोलन के प्रभाव में है. क़रीब 4 साल पहले मुझे इस इलाक़े में जाने का मौक़ा मिला था.

माओवादी दस्तों और सुरक्षाबलों के बीच संघर्ष या फिर फेक एनकाउंटर में आदिवासियों के मारे जाने के सिलसिले में यहाँ से कभी कभार ख़बरें छपती हैं. लेकिन बिना किसी ऐसी घटना के मुझे कोयलीबेड़ा अचानक क्यों याद आ रहा है? नेशनल मीडिया कहे जाने वाले किसी चैनल या अख़बार में तो कोई ख़बर नहीं छपी जिसमें कोयलीबेड़ा का ज़िक्र आया हो.

दरअसल बुधवार यानि 20 अक्टूबर को एक स्थानीय पत्रकार मित्र ने वहाँ से एक प्रदर्शन की कुछ फ़ोटो और डीटेल भेजे थे. छत्तीसगढ़ के जंगलों में हुए इस प्रदर्शन में शामिल लोगों का मुद्दा बेशक स्थानीय था. लेकिन इस प्रदर्शन के ज़रिए जो सवाल उठाया गया है वो भारत के सभी आदिवासी इलाक़ों से जुड़ा है. बल्कि कह सकते हैं कि इससे भी ज़्यादा व्यापक है.

इस प्रदर्शन में माँग की गई थी कि बस्तर इलाक़े के सभी कॉलेजों में सीट बढ़ाई जाएँ. यह माँग यहाँ के लोगों ने इसलिए की है क्योंकि यहां के जिन छात्रों ने इस साल 12वीं की परीक्षा पास कर ली है, उनमें से ज़्यादातर को कॉलेज में दाख़िला नहीं मिला है.

प्रदर्शनकारियों ने अपने ज्ञापन एक कहा है कि लॉक डाउन और कोविड महामारी के दौरान आदिवासी इलाक़ों के स्कूल और हॉस्टल सभी बंद पड़े रहे हैं. आदिवासी जंगल में रहते हैं और उनके इलाक़े में इंटरनेट की सुविधा बेहद कमज़ोर है. इसलिए आदिवासी छात्रों को पढ़ने और सीखने का उतना मौक़ा भी नहीं मिला है जितना शहरों या क़स्बे के छात्रों को मिला.

इस वजह से इन छात्रों को परीक्षा में नंबर कम मिले हैं और अब ज़्यादातर कॉलेजों में उन्हें दाख़िला नहीं मिल रहा है.

मेरी नज़र में यह ख़बर सरकार की एक बड़ी नीतिगत विफलता की कहानी है. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि कोविड महामारी एक असाधारण चुनौती है और इससे निपटने के लिए असाधारण उपाय भी किए जाने की ज़रूरत थी.

लेकिन सरकार इस चुनौती से निपटने के लिए कोई नीतिगत फ़ैसला ही ना ले पाए, तो क्या कहा जाए? अस्पताल, ऑक्सीजन, इलाज, दवाइयाँ या फिर वैक्सीन इन मसलों पर तो अब चर्चा की भी गुंजाइश नहीं बची है. पर इस संकट के दौरान शिक्षा के मामले में जो फ़ैसले लिए गए या नहीं लिए गए, उन पर तो पर्याप्त चर्चा भी नहीं हो रही है.

क्या शिक्षा मंत्री और उनका पूरा अमला वैक्सीन की खोज में लगा था ? जब सब लूट गया तो सरकार ने पुराने शिक्षा मंत्री को हटा कर नए शिक्षा मंत्री की नियुक्ति कर दी. हालाँकि अभी तक इस बदलाव के बाद भी कोविड महामारी के दौरान ठप्प हो गई शिक्षा व्यवस्था को चालू कर देने और नुक़सान को कम कर देने की कोई नीतिगत पहल तो नज़र नहीं आई है.

सरकार ने जिस तरह से शिक्षा क्षेत्र में कोविड महामारी से पैदा हुए संकट से आँखें मूँदी उसके परिणाम देश भर में बड़े ख़राब हुए हैं. लेकिन आदिवासी इलाक़ों में जो नुक़सान हुआ है उसकी भरपाई तो असंभव नज़र आती है.

मसलन मध्य प्रदेश के चार आदिवासी ज़िलों में लगभग 40,000 बच्चे कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर की वजह से स्कूल छोड़ने को मजबूर हुए हैं. मध्य प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग (MPCPCR) के अनुसार इनमें कक्षा 1 से 12 तक के छात्र शामिल हैं.

इस रिपोर्ट में यह भी पता चला है कि अब ये बच्चे शायद ही कभी स्कूल लौट पाएँगे. सोचिए मध्य प्रदेश के सिर्फ़ तीन ज़िलों का यह आँकड़ा है और वो भी सरकार के ही आयोग का दिया हुआ है.

संसद में जब आदिवासी इलाक़ों में बंद पड़े स्कूलों और हॉस्टलों पर सवाल पूछा गया, तो सरकार के पास वैसे तो कोई ठोस जवाब था ही नहीं. लेकिन जो जवाब दिया भी गया वो बेहद शर्मनाक था.

सरकार की तरफ़ से कहा गया कि लॉकडाउन और कोविड के दौरान आदिवासी इलाक़ों में छात्रों के पास यूट्यूब के ज़रिए सीखने के लिए कई वीडियो उपलब्ध थे. जिन आदिवासी इलाक़ों में बच्चों को किसी तरह से स्कूल तक लाना एक बड़ी चुनौती है, उन्हें सरकार यूट्यूब से सीख लेने के भरोसे के साथ छोड़ चुकी थी.

अफ़सोस की बात ये है कि अपनी छवि के बारे में बेहद सचेत सरकार से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती है कि वो कोविड और लॉक डाउन के दौरान आदिवासी इलाक़ों में शिक्षा और छात्रों के बारे में कोई स्टडी भी कराने के बारे में सोच सकती है. यह तो वो सरकार है जो मौजूद स्टडी और रिपोर्ट तक जारी नहीं होने देती है. जिसे आँकड़ों से नफ़रत है.

श्याम सुंदर, वरिष्ठ पत्रकार

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