यथार्थ को बचाने के क्रम में क्रूर हो जाने की मिसाल थे मृणाल सेन

एक महान फ़िल्मकार के फ़िल्म को परखने के लिए उसी मिज़ाज की बनी दूसरे महान फ़िल्मकार के फ़िल्म को सापेक्ष में रखकर देखनी पड़ती है. एक आम दर्शक भला कितना ही सचेत रहे, फ़िल्म की खूबी और खामी दोनों ही छूट ही जाती है. मृणाल सेन की जिस फ़िल्म को सबसे कम तवज्जो मिली और बाद में उसे मृणाल के मास्टरपीस वाले झोली में डाल दी गई वो फ़िल्म थी : बाइसे श्रावण (The Wedding Day).

ये फ़िल्म साठ के दशक में बनी थी. मृणाल सेन की ये पहली फ़िल्म थी, जिसे बाहरी देशों के फ़िल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की गई. फिल्म बंगाल अकाल के दौरान प्रेम, करुणा और मानवीय मूल्यों के क्षरण को व्यक्त करती है. इस फ़िल्म में तीसरे दशक के समाप्ति और चालीसवें दशक की शुरुआत के समय को निरूपित किया गया है.

इसे मृणाल सेन की एक क्रूर फ़िल्म कहकर अतिशयोक्ति में की गई तारीफ़ है और आलोचना भी. रे के अशनि संकेत के साथ अगर तुलनात्मक व्याख्या की जाए तो लगता है मृणाल फ़िल्म की शुरुआत से मध्य तक एक मद्धिम गति में चलते रहे, कुछ संपादन की छूट भी ली और अंत में उन्होंने जीवन को इतने द्रुत गति से उथल-पुथल करके दिखाया कि वो दर्शकों के लिए असहज था. जबकि रे उनसे 13 साल बाद उसी पृष्ठभूमि पर फ़िल्म बना रहे थे इसलिए सचेत होकर उन्होंने अपने फ़िल्म की गति और लय का खास ध्यान रखा. फ़िल्म का एक कमजोर पक्ष ये भी है कि अकाल की अनुभूति दृश्यों में कम मानवीय व्यवहारों में अधिक परिदृश्य होता है.

जमींदारी खत्म हो जाने के बाद अवशेष खंडहरों के बीच उसी वंशज का एक अधेड़ अपनी वयोवृद्ध माँ के साथ झोंपड़ीनुमा घर में रहता है. नायक एक प्राइवेट कंपनी का मुलाज़िम वेंडर है जो छोटी-मोटी चीजों को लोकल ट्रेन के भीड़ वाले डब्बों में अपनी वाकपटुता के बल पर बेचता है. बूढ़ी माँ चाहती है कि उनके जीते-जी बेटे का घर बस जाए किन्तु कम आय के कम जिम्मेवारी वाली ज़िंदगी उसे सुकून देती है और नायक माँ के प्रस्ताव को ठुकरा देता है.

निर्देशक मृणाल सेन एक दृश्य गढ़ते हैं. तेज बारिश से साइकिल पर सवार नायक पूरी तरह भींग जाता है फिर उसे एक घने पेड़ का ठाँव मिलता है – संयत होकर बीड़ी सुलगाने के लिए माचिस निकालता है जिसमें दो ही तीली बची हुई है और सीलन के कारण दोनों ही नहीं जलती है. उसे निराशा होती है और बीड़ी जेब में डाल लेता है. उसे जीवन का एक सत्य मामूली बीड़ी से समझ में आ जाती है और घर लौटकर वो अपने माँ से अपने एकाकीपन का हवाला देकर शादी की बात आगे बढ़ाने के लिए कहता है. उसकी शादी एक कम उम्र की सुंदर लड़की से हो जाती है. बंगाल में उस समय इतनी गरीबी थी कि कन्यादान से उऋण होने के लिए माँ-बाप ऐसे बेमेल जोड़ी बनाने को विवश होते थे.

लड़की अपने लड़कपन के साथ ही ससुराल आती है. सहृदय बूढ़ी सास उसे गृहस्थी के गुर सिखाती है किन्तु कच्ची उम्र की लड़की ससुराल और मायके के अंतर को नहीं समझती है. वो ससुराल के आस-पड़ोस के बच्चों के साथ खूब हुड़दंग मचाती है. उम्र के इस पड़ाव में इतनी सुंदर स्त्री पाकर नायक भाव-विह्वल है. उसके प्रति उसका प्रेम दिनानुदिन बढ़ता ही जाता है. उसके कारण वो काम पर देर से पहुंचता है. उस रोज उसे उसके बढ़ते हुए उम्र और कामचोरी का हवाला देते हुए जता दिया जाता है कि कम उम्र के कर्मठ युवकों की देश में कमी नहीं है और उस रोज के बाद वो बूढ़ा होने लगता है.

इस बुढ़ापे को दिखाने के लिए मृणाल सेन ने दो प्रतीकात्मक दृश्य सामने रखते हैं, इन दृश्यों से देश की बेरोजगारी, श्रम शोषण और बाजार का क्रूर चेहरा साफ परिदृश्य होता है. दोनों ही दृश्य गतिमान हैं – एक दृश्य में साइकिल सवार एक युवक बेतहाशा भागते नायक को आसानी से पछाड़ते हुए आगे निकल जाता है और दूसरे दृश्य में चलती रेलगाड़ी में युवा वेंडर आसानी से डब्बा-दर-डब्बा बदल कर चीजें बेच लेते हैं जबकि इसी प्रयास से नायक का पैर टूटता है और नौकरी भी छूटती है.

स्त्री का लड़कपन कहीं गुम हो गया अब वो बेहद गंभीर है, लेकिन अचानक से हुए इस छिन्न-भिन्नता का कारण उसकी समझ से बाहर है – हतवाक है. जब उसका प्रेम और करुणा उभर कर आई है तो दूसरी तरफ हताशा, प्रत्याशा और क्षोभ में बदल गया है प्रेम. आदमी की कमजोरी उसके आस-पास के लोगों को तबाह कर देती है. यह संघर्ष या अंतर्निहित निराशावाद नहीं है बल्कि मानवीय मूल्यों का क्षरण है जो आत्मा को कुचल रहा है. अंत बेचैन करने जैसा है. शायद इसलिए फ़िल्म के यथार्थ को बचाये रखने के लिए मृणाल सेन को क्रूर बनना पड़ा होगा.

हिन्दी समानांतर सिनेमा के अगुआ कहे जाने वाले फ़िल्मकार की पहली ही फ़िल्म पर सत्यजीत रे की प्रतिक्रिया हिला देने वाली थी. उन्होंने इस फ़िल्म के विषय में इतना तक कह दिया कि “ये फ़िल्म खराब मनोविज्ञान और खराब शैली का संयोजन है.”

इसमें रे की कोई दुर्भावना रही होगी या नहीं – पता नहीं किन्तु फ़िल्म में कुछ कमियाँ आराम से ढूँढी जा सकती है. तकनीकी दृष्टिकोण से बेहतर होने के बावजूद किरदारों की नाटकीयता और अनाड़ीपन ने फ़िल्म पर असर डाला है.

ये लेखक के निजी विचार है. 

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