राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने सोमवार को बिहार की आठ हस्तियों को पद्मश्री से सम्मानित किया। इनमें से तीन को मरणोपरांत यह सम्मान मिला है. जिसमें मशहूर गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह भी शामिल हैं. सम्मान उनके भतीजे मुकेश सिंह ने ग्रहण किया. लेकिन एक दौर वह भी था जब वशिष्ठ बाबू को किसी की मदद नहीं मिली थी, सिवाय उनके स्कूल के.
जिस प्रतिष्ठित नेतरहाट स्कूल से उन्होंने पढ़ाई की थी वहां से उनके गुरबत के दिनों में प्रतिमाह बिना नागा 20000 रु मिलता था. नेतरहाट ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन 2013 से 20 हजार रुपये महीने का खर्च उनके निधन तक देता रहा था. इसके अलावा कहीं से कोई मदद नहीं मिली थी वशिष्ठ बाबू के परिवार को.

अशोक राजपथ स्थित कुल्हरिया कांप्लेक्स के तीसरे तल्ले पर स्थित कमरा नंबर 302. महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह और उनके मंझले भाई अयोध्या नारायण सिंह का परिवार वशिष्ठ बाबू के निधन तक इसी मकान में किराया लेकर पिछले दस सालों से रह रहा था. जब इस लेखक ने उनके घर का जायजा लिया था.

जैसे ही आप कमरे में प्रवेश करते हैं, दाहिनी ओर वशिष्ठ बाबू की कुर्सी और उनका टेबल था. बायीं ओर किताबों से भरा टेबुल और यहीं से दाहिने उनके कमरे में प्रवेश करते ही दर्जनों प्रशस्ति पत्र.
वहीं उनका बिस्तर, जिस पर उनकी बांसुरी, रामचरितमानस, भगवद गीता और कोने में उनके व्यक्तित्व की पहचान टोपी पड़ी हुई थी. उनके परिजनों ने बताया था कि हमारे परिवार को नेतरहाट ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन ने बड़ी मदद दी.

2013 से लगातार हर महीने की शुरुआत में ही 20 हजार रुपये आ जाते थे. इसके अलावा उन्हें किसी ने मदद नहीं की. सेना में सूबेदार पद से रिटायर हुए अयोध्या सिंह ने मुझे यह जानकारी दी थी कि उसी पैसे से इस फ्लैट का किराया चुका रहे थे, वशिष्ठ जी का इलाज चल रहा था. उनकी दवाइयां हर महीने पहुंच रही थी.
जब डॉ नाथ ने छाती ठोक कर कहा, बाप रे, इतना मेधावी स्टूडेंट मैंने आजतक नहीं देखा
वशिष्ठ बाबू के प्रतिभा के किस्से अबतक इतने प्रकाशित हो चुके हैं कि शायद ही कोई पक्ष ऐसा होगा जो लोग नहीं जानते. कुल्हरिया कॉम्पलेक्स में ही हमें नेतरहाट ओल्ड ब्वायज एसोसिएशन के सदस्य और 1957 से 1963 ई तक उनके साथ पढ़े नरेंद्र नारायण पांडे ने हमे बताया था कि छह साल हमलोग साथ में पढ़े. नेतरहाट में हमलोग आश्रम की तरह पढ़ते थे. परिसर की सफाई करते थे, खाना परोसते थे, बर्तन की सफाई करते थे और शौचालय को भी साफ सुथरा रखते थे.
वशिष्ठ हमारे साथ 1957 से 63 तक थे. नेतरहाट पहुंचते ही वे शिक्षकों की नजर में आ गये थे, क्योंकि वे टॉप करते थे. गणित और साइंस का तो छोड़ ही दीजिए, हिंदी और अंग्रेजी में वे काफी अच्छे थे. हमलोगों जिस गणित की किताब, जिसे चक्रवर्ती कहते थे, उसे बनाने में पसीने छूटते थे. उसको वे नौवें क्लास में ही दो बार खत्म कर चुके थे. अल्जेबरा, मैथेमैटिक्स में ऐसी शब्दावलियों का इस्तेमाल करते थे, जो हमने ग्रेजुएशन में जाना था. हायर सेकेंड्री करने के दौरान वे कॉलेज तक का कोर्स कंप्लीट कर चुके थे. एक बार उनकी तबीयत खराब हो गयी तब भी पढ़ते रहते थे. ऐसा पढ़ाकू न मैंने जीवन में कभी देखा था और न देख सकूंगा.
शोध पत्र गायब होने के बाद बिगड़ी मानसिक स्थिति
उन्हीं के सहपाठी रहे डॉ विरेंद्र कुमार कहते हैं कि वे जब विदेश चले गये तो हमेशा ऊंचे पदों पर ही रहे. नासा में साइंटिस्ट थे. अपने देश में आये तो इंडियन साइंस इंस्टीट्यूट कोलकाता और आइआइटी कानपुर में ऊंचे पदों पर रहे. उनका एक शोध पत्र चोरी चला गया था. इसके बाद उनकी मानसिक स्थिति खराब हो गयी थी. वह शोध पत्र शायद साइंस का परिदृश्य बदल सकता था. इसके बाद उनकी तबीयत खराब होती रही.
रांची के डॉ डेविस इंस्टीट्यूट में इनका इलाज भी कराया गया था. डॉ पांडे दिलचस्प किस्सों का हवाला देते हुए कहते हैं कि एक बार मिलने पर अखबार में एक ग्राफिक बनाकर मुझसे कहने लगे कि देख, नरेंद्र हई ई ध्रुवतारा ह और हई वीएन सिंह. उन्होंने अपने को उस सर्किल में मुख्य तारा दिखाया था. यह तारा हमें छोड़कर हमेशा के लिए चला गया