शहरों का छूट जाना भी शहरों को आपके अंदर खड़ा करता है. चौदहवाँ महीना एक दूसरे शहर में बिताते हुए, जो बात सबसे ज़्यादा महसूस होती है वह यही कि कुछ जब तक खोता नहीं तब तक उसकी ज़रूरत स्थापित नहीं होती.
हम सभी बाहर रह रहे लोगों के लिए पटना कहाँ है, कहाँ दिखता है, कैसा है – यह उसको खोए बिना सोचना बहुत मुश्किल है. जो तलाशा जाना है, उसको मिल जाना है यह तय नहीं है लेकिन उस तक जाना है यह तय है, और सीधा अपने होने से जुड़ा हुआ है.
संजय कुंदन की किताब इस मायने में पुरानी कई उदासियों से बात करती है, उनको दूर करती है और नए सिरे से शहर को याद करने की जगह बनाती है.
संजय कुंदन की स्मृतियाँ, सिर्फ़ संजय कुंदन की स्मृतियाँ नहीं हैं, शहर की सामूहिक स्मृतियाँ हैं जो अब मिट रही हैं और तेज़ी से बदलते हुए शहर, धूल के उठते ग़ुबार और रोज़ बढ़ते जा रहे शोर के नीचे दबती जा रही हैं. पटना के कई कई मोहल्ले एक साथ, मिलते-जुलते, कभी अलग-थलग भी – कई कई समय खंड और लेखक के साथ-साथ कुछ कुछ हमारा अपना जिया भी उसमें मिल जाता हुआ. बार बार दिमाग़ में आता है कि क्या शहरों की कोई तबियत होती है? कोई मिजाज़ होता है? क्या एक शहर में कई शहर एक साथ होते हैं?
किताब संजय कुंदन के जीवन के अहम वर्षों से बनी हुई है – उनके प्रथम अनुभव, शहर से उनका प्रथम परिचय, वो सारी यादें जिनका सेल्फ़ की निर्मिति में योगदान होता है एक साथ एक जगह – अपने भीतर से समूह की तरफ़ बढ़ने, खो गए को संजोने और ग़लत को ग़लत कह सकने की हिम्मत पैदा होने की वजहें! दरियापुर, गर्दनीबाग, यूनिवर्सिटी, ग़ाँधी मैदान, गंगा के किनारे, जगह-जगह से आकर बस गए लोग, एक हो गए लोग, पटना के लोग – सब विशेष अर्थ रखते हैं. यह अच्छा लगता है कि इस पटना में स्त्रियाँ भी हैं और अपनी जगह थामे हुए हैं.
पटना का एक विशेष कैरिक्टर यहाँ की भाषा है, उसका अनूठापन है – पटना की कोई बात बिना उसके नहीं हो सकती है. संजय जी के पटना से चलते हुए उस पटना की ओर भी यात्रा होती है जो संजय जी के छूट जाने के बाद का है – पटना के शाहीन बाग की चर्चा, पटना रिपब्लिक, इंद्रधनुष और वे सब बौद्धिक जगहें जहाँ छोटे- बड़े अलाव जल रहे हैं, जिन्होंने शहर को थामे रखा है. और वापस चलते हुए यही सवाल – शिप ऑफ़ थीसस वाला – पटना क्या है? क्या गर्दनीबाग पटना है, क्या ग़ाँधी मैदान पटना है? ये सब पटना हैं और पटना इन सबों से बना हुआ है.
संजय कुंदन की किताब जो सबसे ज़रूरी काम करती है वह यह कि वह संजय जी को भागने को लालायित नहीं, वापस लौटने की इच्छा से भरा हुआ दिखाती है. पटना, जहाँ के लोगों की भावनाओं को, उनकी शहर से मोहब्बत को “चूहों का मामला” कह कर ख़ारिज किया जा चुका है, किताब वापस यहाँ के लोगों को मनुष्य स्थापित करती है और औपनिवेशिक मानसिकता से बने विशिष्टताबोध वाले नैरटिव और डेग्रडेशन से निज़ात दिलाती है.
ज़ीरो माइल पटना
वाम प्रकाशन
मूल्य : 250/-
पृष्ठ : 148