छठ गीत और उसकी भाषा
छठ का पर्व जारी है. चहुंओर छठ के गीत बज रहे हैं. छठ ऐसा त्योहार रहा है, जो गीत के बिना पूरा भी नहीं होता! इस पर्व में गीत ही शास्त्र और मंत्र सबकी भूमिका में होते हैं. यह अलग बात है कि पहले व्रती और गांव की महिलाएं इस मंत्र पर अधिकार रखती थीं. अपने ईश्वर से संवाद करने के लिए वही रची थीं इस मंत्र को, इसके पूरे सत्र को, तो स्वाभाविक था कि उनका ही अधिकार था. बिना शोर—शराबे के, अंतर्मन से, समूह में जब छठ गीतों का वह गायन करती थीं, तो लगता था जैसे अपने देवता से संवाद कर रही हो. न देवभाषा संस्कृत में, न राष्ट्रभाषा हिंदी में. अपनी मातृभाषा में.
भोजपुरी,मगही, मैथिली ,अंगिका, बज्जिका में. यह मानकर कि ईश्वर सर्वव्यापी है, तो उसे सिर्फ एकाध भाषाएं ही क्यों समझ में आएगी. वह हमारी भाषा को भी समझेगा, हमारी बात सुनेगा. लोकगीतों में ईश्वर को सामान्य बनाकर, अपने घर के सदस्य जैसा बनाकर, उनसे संवाद करना ही इसकी सबसे बड़ी खासियत रही है.
छठ गीत और गायक
यह तब की बात है, जब छठ गीतों में पेशेवर कलाकारों का, पेशेवर आवाजों का आगमन नहीं हुआ था. फिर एक समय आया जब पेशेवर आवाज और कलाकारों ने इसे गाने की शुरुआत की.
शुरुआत बिंध्यवासिनी देवी से हुई. बिहार की मशहूर कलाकार. गीतकार,संगीतकार बिंध्यवासिनी देवी. बिंध्यवासिनी देवी की गीत संगीत की गहरी समझदारी थी. वह लोकसंगीत में आकंठ डूबी रहनेवाली कलाकार थीं. पारंपरिक गीतों को ही लेकर उसे सूत्रबद्ध कीं. फिर शारदा सिन्हा का आगमन हुआ. शारदाजी भी पारंपरिक गीतों को ही आधार बनाकर छठ गीतों को आजाद दीं. शारदाजी की आवाज और भाव, दोनों गांव की महिलाओं के करीब रही. शारदाजी की आवाज में छठ गीत की पहचान बनी. धीरे—धीरे ऐसा हुआ कि शारदाजी के गीत न बजे, तो छठ गीत पूरा ही न हो पाये.
यहां तक मामला ठीक था. इसके बाद छठ गीत लिखनेवाले गीतकार भी पैदा हो गये. छठ गीतों का वीडियो बनानेवाले कलाकार भी. छठ गीतों को समकालीन विषय से जोड़कर रचनेवाले एक से एक गीतकार पैदा होने लगे.
छठ गीत देखने और सुनने का दौर
यह अजीब सी घटना घटी. वीडियो के जरिये बताया जाने लगा कि देखिए छठ ऐसे होता है. किसे बताया जा रहा था, यह समझ से परे था. क्योंकि छठ के बारे में किसे बताना था कि छठ ऐसे होता है. जो पुरबिया इलाके के लोग हैं, वे तो जन्म से, बचपन से ही छठ जानते हैं कि यह कैसे होता है.
छठ गीत सुनने से देखने की परिधि में आता गया. किसी भी गीत—संगीत का सुनने से ज्यादा देखने की परिधि में आना, उसे बाजार के करीब पहुंचाता है. छठ गीत बाजार के करीब पहुंचाया गया. बाजार की यह एक छोटी सी जीत थी. छठ ऐसा त्योहार था, जिस पर बड़े बाजार के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी. गीतों के जरिये बाजार के लिए संभावनाओं के द्वार खोले गये. बाजार को सुनाने से ज्यादा दिखाने में रुचि रहती है.
छठ गीत और गीतकार
इसी क्रम में छठ गीत लिखने की भी शुरुआत हुई और उसे समकालीन बनाने की होड़ भी. 21वीं सदी के आरंभिक दशक में इसकी शुरुआत हुई. मैथिली और भोजपुरी लोकप्रिय भाषा, सो गीतकार और बाजार, दोनों इसी भाषा के इर्द गिर्द जुटे. मगही और अंगिका—बज्जिकावाले पीछे छुटते गये.
यह अजीब घटना इसलिए थी कि इसके पहले किसी ने कोशिश नहीं की थी कि छठ के गीतों को लिखा जाए. चार गीतकारों की चर्चा यहां करना जरूरी है. भोजपुरी के तीन गीतकार, महेंदर मिसिर, भिखारी ठाकुर और भोलानाथ गहमरी. और मैथिली के रचनाकार स्नेहलता.
इन चारों की चर्चा इसलिए, क्योंकि इन चारों के रचने का रेंज अपार विस्तार लिए हुए रहा.
महेंदर मिसिर जाने गये प्रेम गीतों के लिए, पर भक्ति गीतों का उनके रेंज की तुलना में प्रेम गीतों की संख्या मामूली है. महेंदर मिसिर ने शिव,राम,कृष्ण सब पर गीत रचे पर छठ गीत उन्होंने नहीं लिखा. भिखारी ठाकुर के रचे का बारह आना हिस्सा भक्ति और भगवान को ही समर्पित है. उन्होंने गंगा से लेकर कृष्ण,राम पर सब पर लिखा. छठ पर कोई गीत नहीं लिखे. भोलानाथ गहमरी को तो ऐसा गीतकार माना जाता है, जो हर विषय पर उतने ही डूबकर लिखते थे. पर, उन्होंने भी छठ गीत नहीं लिखे. मैथिली के गीतकार स्नेहलता तो ईश्वरीय गीतों के लिए और समकालीन विषय पर ही लिखने के लिए जाने गये. पर, स्नेहलता छठ गीतों को नहीं लिखे. कोई वजह तो रही होगी कि बिहार के चार बड़े लोक रचनाकारों ने छठ पर गलती से एक भी गीत नहीं लिखे. क्या यह माना जा सकता है कि इनकी समझदारी कम थी या इनमें हुनर नहीं था. ऐसा तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि हर बदलाव, हर परंपरा पर ये गीत रच रहे थे. पुरबिया इलाके की लोक परंपरा इनके गीतों में प्रतिध्वनित होता है. इसकी बजाय ऐसे गीतकारों ने इसलिए छठ गीतों को छोड़ा क्योंकि यह गीत निहाहय निजी भाव से गाया जानेवाला गीत रहा है.
छठ और निजता
छठ कभी सामूहिक आकांक्षा का पर्व नहीं रहा. निजी तौर पर अपने परिवार के लिए मांग की परंपरा रही. स्वास्थ्य सुख, संतान सुख आदि ही प्रमुख रहा मांग में. छठ तो घाट पर सामूहिक उत्सव का पर्व बनता है.
छठ गीत कभी समकालीन विषयों से कनेक्ट भी नहीं हुआ. पुरबिया इलाके में समकालीन विषयों पर गीत रचने की परंपरा रही. 1857 की क्रांति से ही लोकप्रिय गीत रचे जाने लगे. गाये जाने लगे. उसके बाद कोई ऐसी घटना नहीं घटी, जो लोकगीतों का विषय नहीं बने. आजादी की पूरी लड़ाई पर लोकगीत रचे गये, पर दूसरे विधाओं में. छठ गीतों पर आजादी का कोई गीत नहीं रचा गया.
बुद्धिवादियों को यह लगा कि इन पारंपरिक गीतों में पिछड़ापन है. आधुनिकता के तत्व नहीं हैं. बेटा है, बेटी नहीं. इस पर्व में पुरोहितवाद को इन्ही पारंपरिक गीतों ने नहीं आने दिया अब तक. शास्त्रों के लिए जगह नहीं बन सकी अब तक तो इन्हीं गीतों के दम पर.
बाजार बिलबिलाता रहा अपने लिए जगह बनाने को,पर इन्हीं पारंपरिक गीतों के जरिये मनाया जानेवाला पर्व बाजार को संभावना नहीं तलाशने दिया. जातीय श्रेष्ठता का दंभ और सांप्रदायिकता की बू नहीं आ सकी. आर्थिक संपन्नता की वजह से भगवान से ज्यादा नजदीकी और सुविधाजनक रिश्ते की बुनियाद नहीं रखी जा सकी. पीढ़ियों से इन पारंपरिक गीतों के बोल ने इतनी सारी बुराइयों को रोके रखा.
पर, बुद्धिवादियों को लगा कि नहीं पारंपरिक को आधुनिक बनाना जरूरी है. असल में शास्त्रीय परंपरा, पुरोहितवाद, एनजीओ, बुद्धिवादियों के बीच एक गंठजोड़ होता है, जो आपस मे मिलकर बाजार और पुरुषवाद का रास्ता खोलते हैं. छठ के साथ वही हो रहा हैं.
पारंपरिक गीतों से समकालीन खिलवाड़
समकालीन रचनाओं ने फाग, चैती, बिरहा, कजरी से सामंजस्य बिठाया. छठ गीतों से किसी ने छेड़छाड़ नहीं की. ऐसा अकारण नहीं हुआ होगा. पर, जब बाजार छठ गीतों के जरिये प्रवेश किया तो अब उसका असर दिख रहा. निजी जीवन की 16 मांगों और मोटे तौर पर 16 मांगों में, कुल 150 के करीब शब्दों के मेल से पीढ़ियों से रचा और गाया जानेवाला छठ गीत अपार विस्तार के नाम पर फाग गीतों के करीब पहुंच रहा है.
किसी ने कहा कि छठ को सुनाने से ज्यादा दिखाना जरूरी है. किसी ने कहा कि छठ गीतों पर फ्यूजन जरूरी है. किसी ने कहा कि नहीं—नहीं छठी मइया या आदित्य भगवान निजी जीवन के 16 मांगों को ही क्यों पूरा करेंगे? वे एनजीओ के महिला सशक्तिकरण के एजेंडे को भी पूरा करें. किसी ने गीत रचवाया कि नहीं छठी मइया पटना में बाढ़ आने पर जो जलजमाव होता है, उस समस्या का भी समाधान करें. किसी ने कहा कि नहीं ऐसा कैसे होगा, छठी मइया को फलां समस्या से भी जोड़ा जाए, चिलां चुनौतियों से भी जोड़ा जाए.
छठी मइया, आदित्य मल फलां—चिलां से जुड़ते रहे और बहुत ही इनोसेंसी से गाये जानेवाले गीत अपार विस्तार के नाम पर अब देवर से भाभी का टाका भिंड़ाने, जीजा का साली से रिश्ता जुड़वाने तक पहुंच चुके हैं. पर, इसके लिए क्या उन्हें ही दोषी माना जाए, जो छठ गीतों में जीजा—साली,देवर—भाभी,लहंगा—चोली लिख या गीत रहे हैं. ना, ना सिर्फ उनका विरोध करना असल गुनाहगारों का बचाव करना है. ऐसा कैसे होगा कि आप प्रयोग करेंगे, बदलाव करेंगे तो आपकी वाहवाही हो और दूसरे को थू थू.
फाग,चैती,कजरी जैसी विधाएं थीं. सुनने से ज्यादा दिखने का गीत बनाना था तो उन विधाओं पर प्रयोग करते. पॉप और फ्यूजन का प्रयोग करना था तो उन विधाओं पर करते. सामाजिक और समकालीन मुद्दों से जोड़ना तो उन विधाओं संग प्रयोग करते. छठ गीतों पर ऐसे प्रयोग सो कॉल्ड बुद्धिवादियों ने, सरोकारी लोगों ने शुरू किया. आपकी समझ थी, सो आपने प्रयोग किया. उनकी जो समझ है, उस हिसाब से प्रयोग कर रहे हैं. आपने बैंजो को पिछड़ापन का पर्याय मानकर गिटार को आधुनिक मानकर छठ गीतों को थोड़ा पॉप के करीब लाया. दूसरे खेमे ने बैंजो ओर गिटार, दोनों को हटाकर डीजे फार्मेट में बनाना शुरू किया.
अगले दो सालों बाद छठ गीतों का भविष्य दिख रहा है. छठी मइया की प्रतिमा इलाके में स्थापित होगी. फिर भसान होगा. ढिंचक गीत बजेंगे. अगले दो सालों बाद छठी मइया से घरवाली से तंग लोग बगलवाली से मिलवाने की मनुहार करेंगे. छठ गीत साली—घरवाली, घाघरा—चोली में फंसा हुआ मिलेगा. पर, तब भी पॉपुलर तरीके से ऐसा गानेवालों को ही सिर्फ दोषी नहीं ठहराइयेगा. बुद्धिवादियों को कोसिएगा, जिन्होंने बहुत ही चतुराई से बाजार के लिए संभावनाओं के द्वार खोले थे.