इलाहाबाद विवि में पढ़ाई के दौरान एक ऐसे शख्स से मेरी मुलाकात हुई थी जो बिना पूरी बात सुने ही सामने वाले की बात काटकर कहता था- “कक्षा तीन की तरह बात मत करो.”
किसी भी चीज को खारिज करने की उसकी यही नीति थी, जिसके चलते सामने वाला या तो अपने आप को मूर्ख समझने लगता या फिर लड़ बैठता. किसी की बात को खारिज करना उस व्यक्ति से असहमति का सम्मान नहीं है, बल्कि उसके अस्तित्व का भी अपमान है. इस ऐतबार से देखें तो गांधी या फिर देश के किसी भी महापुरुष के विचारों या उनके महान कार्यों को बिना सोचे-समझे ही खारिज कर देना उनका अपमान ही है.
साल 2014 के बाद से देश की तमाम अच्छी चीजों को खारिज करके देशभर में तरह-तरह के नैरेटिव बनाने का काम शुरू हुआ कि गांधी-नेहरू या फिर उनके समकक्षों ने आजादी नहीं दिलाई. यह भी कि नेहरू के बजाय पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो देश कुछ और होता या फिर गांधी ने भगत सिंह की फांसी को नहीं रोका वगैरह-वगैरह. और जो लोग सच बोल रहे हैं, उनकी आवाज ही दबा दी जा रही है या उन्हें मार दिया जा रहा है. जैसा कि अभी बिहार में हुआ. बिहार के मधुबनी जिले में नर्सिंग होम और अस्पतालों का भ्रष्टाचार उजागर करने वाले एक स्थानीय पत्रकार बुद्धिनाथ झा की हत्या कर दी गई.
सच को खारिज करके एक फेक नैरेटिव बनाने का नुकसान यह हुआ है कि देशभर में सोशल मीडिया के जरिए भाजपा के समर्थकों तक झूठे और तथ्यहीन मैसेजेज पहुंचने लगे और विडंबना यह कि बिना सोचे-समझे वो लोग उन मैसेजेज पर ही यकीन भी करने लगे। इसी की अगली कड़ी में कंगना रनौत का बयान है.
कंगना ने आजादी को भीख बताया
दरअसल, कंगना रनौत ने पिछले दिनों एक इंटरव्यू में कहा- “सन 1947 को मिली आजादी भीख थी और असली आजादी 2014 में मिली.” हो सकता है इस बयान को आप लोग मूर्खतापूर्ण बयान समझने की भूल करें, लेकिन मैं इसे एक तथ्यहीन बात के जरिए एक बड़े मास तक फेक नैरेटिव बनाने की सोची-समझी साजिश का हिस्सा मानता हूं.
यहीं से नैरेटिव चेंज हो जाएगा और एक बड़ा वर्ग इस बात पर यकीन भी कर लेगा, जैसे नेहरू-गांधी को लेकर फैलाए गए झूठे इतिहास को भाजपा समर्थक सच मानते हैं. इसी तरह कंगना ने भी अपना काम कर दिया. अब लोग उसके बयान पर कह रहे हैं कि वो सही तो कह रही है. ‘वो सही तो कह रही है’ वाली बात उस नैरेटिव को बल प्रदान करती है जब कुछ ही दिन पहले भाजपा की युवा मोर्चा प्रवक्ता रुचि पाठक ने दावा किया था कि “भारत को स्वतंत्रता सिर्फ 99 सालों के लिए मिली है.” यानी नैरेटिव यह बना दिया गया कि कांग्रेस ने आजादी पाने को लेकर कुछ नहीं किया और गांधी की भी आजादी दिलाने में कोई भूमिका नहीं है.
विश्व अहिंसा दिवस के दिन राष्ट्रीय स्वच्छता दिवस
नैरेटिव सेट करने की विडंबना देखिए कि जहां पूरी दुनिया गांधी की जन्म तिथि 2 अक्टूबर को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाती है, वहीं भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस दिन को ‘राष्ट्रीय स्वच्छता दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा कर दी.
अब गांधी के सत्य-अहिंसा की बात करने के बजाय अब हर साल 2 अक्टूबर को नेता लोग झाड़ू लेकर फोटो खिंचाते नजर आते हैं. एक अच्छे-खासे दिन को किस तरह कूड़ा किया जा सकता है और पोस्टट्रूथ के जरिए लोगों के दिमाग को किस तरह कुंठित किया जा सकता है, यह कोई भाजपा के नेताओं से सीखे.
पोस्टट्रूथ यानी सत्य जब सत्य न रहे और जब सही-गलत का विचार तथ्य या ज्ञान से न होकर, केवल भावनाओं के आधार पर हो. एक धर्मभीरु समाज में भावनाओं के बारे में तो आप समझ ही सकते हैं कि इसके जरिए किस तरह के खेल रचे जा सकते हैं. आज मुझे उस आदमी की बहुत याद आ रही है जो किसी की बात को खारिज करके उसे कक्षा तीन के स्तर का बता देता था. यह इत्तेफाक नहीं कि वह व्यक्ति ब्राह्मण था और ब्राह्मणवादी सोच को ही सबसे ऊपर मानता था। यानी वो जो कहे वही सही, बाकी सब खारिज.
स्त्री-अभिव्यक्ति को खारिज करना साहित्य की सामंती परंपरा है
पिछले दिनों मैंने एक किताब पढ़ी- ‘आलोचना का स्त्री पक्ष- पद्धति, परंपरा और पाठ’, जिसे लिखा है स्त्री सरोकारों और स्त्रीवाद की गहरी समझ रखने वाली लेखिका सुजाता जी ने. यह किताब भी साहित्य में पुरुषों द्वारा स्त्रियों को खारिज किए जाने की ही बात करती है. आलोचना के क्षेत्र में यह इतना विशेष कार्य है कि इसे पढ़े बिना आप इसके महत्व को नहीं समझ सकते. पेज 136 पर सुजाता लिखती हैं- ‘जो अपना इतिहास नहीं जानता वह अपने वर्तमान से सही सवाल नहीं पूछ सकता. हमें जानना होगा कि कौन थीं वे औरतें जिनके बारे में इतिहासकार ने अधूरा बताया या वह मौन रहा. खोई हुई परंपरा को सामने लाना स्त्रीवादी आलोचना की जिम्मेदारी है ताकि वह जो खोया हुआ, दबा हुआ और खारिज किया गया है उसे पुन: पाया जा सके.’
कितनी जरूरी बात है न यह? मैं अरसे से फिल्मों के गाने सुनते हुए जब गीतकारों का नाम देखता था तो उसमें महिला गीतकारों की गैरमौजूदगी मुझे सोचने पर मजबूर कर देती थी कि क्या उनके अंदर कोई फीलिंग नहीं होती? क्या महिलाएं बेहतर नहीं लिख सकतीं? या फिर महिला गीतकारों के गीतों को पुरषों द्वारा खारिज कर दिया गया? यह तो सिर्फ एक उदाहरण भी है महिलाओं को खारिज किए जाने का.
साहित्य का इतिहास तो सिनेमा से कहीं ज्यादा पुराना है, तो जाहिर है कि पुरुष साहित्यकारों ने किन-किन भेड़चाल और कुंठा भाव में महिला साहित्यकारों के साहित्य को खारिज किया गया होगा. सुजाता जी की यह किताब इसी बात की पड़ताल भी करती है. स्त्रियों के जिस साहित्य को सामंती सोच के पुरुषों द्वारा खारिज कर दिए जाने की बात सुजाता जी कर रही हैं, उसका उपाय भी वह खुद ही बताती हैं कि ‘स्त्री के साहित्य को इतिहास में देखने के लिए एक वैकल्पिक इतिहास की जरूरत है.’
जाहिर है, लैंगिग असमानता और स्त्रियों के साथ भेदभाव करके उनकी काबिलियत को सिरे से खारिज कर देना हमारे देश में सामंती प्रवृत्ति का एक अहम गुण है. ऐसे में ईवी रामासामी पेरियार का कहना सही लगता है कि ‘पुरुषों का यह दिखावा कि वे महिलाओं का सम्मान करते हैं और उनकी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते हैं, महिलाओं को धोखे में रखने के लिए महज एक चाल है.’ धोखे में रखने की यह चाल तो साहित्य में भी रहा है।
पेज 178 पर सुजाता लिखती हैं- ‘इतिहासकार के लिए कविता लिखती स्त्री कर्ता नहीं है, लेकिन उसके प्रेम में फंसकर एक ब्राह्मण मुसलमान हो जाए तो वहां स्त्री प्रेम में फंसानेवाली यानी कर्ता है. हिंदी साहित्य का इतिहास लिखते-लिखते कई इतिहासकार यह गलतफहमी पाल बैठे कि वे हिंदू साहित्य का इतिहास लिख रहे हैं.’
इस ऐतबार से देखें तो हिंदी साहित्य को जो आलोचक हिंदू साहित्य की संज्ञा देते रहे हैं, वह सही जान पड़ता है. लेकिन इतिहास के मर्दवादी होने से भी आगे की बात है, वह है सवर्ण साहित्य का इतिहास जो स्त्रियों की अभिव्यक्तियों को खारिज करने का इतिहास भी है.
सामाजिक और पारिवारिक ताने-बाने का असर समाज के हर हिस्से पर पड़ता है. साहित्य भी समाज का वह हिस्सा है जो सवर्ण पुरुष-दृष्टि से ही संचालित होता रहा है, क्योंकि हमारा समाज एक पुरुष सत्तात्मक समाज है. पुरुष सत्तात्मक समाज में अगर इतिहासकारों ने स्त्रियों की स्व-अभिव्यक्तियों को भी पुरुष का अनुकरण होने की दृष्टि से देखा है तो जाहिर है ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ इस पर सवाल खड़े करेगा और जवाब भी मांगेगा. साहित्य की पद्धति, परंपरा और पाठ को स्त्रीवादी नजरिए से देखेगा भी और अस्मिता-विमर्श के केंद्र में भी लाएगा. दमित अभिव्यक्तियों की निशानदेही करने वाली सुजाता जी की यह अनमोल कृति गहन शोध से निकली है. यह सही बात है कि जहां वैश्विक स्तर पर हेलेन सिक्सू, लूस इरिगिरे, जूलिया क्रिस्टेवा जैसी महिला आलोचकों ने स्त्रियों की भाषा को लेकर बेहद महत्वपूर्ण काम किए हैं, वहीं हिंदी में इस विषय पर कोई ठोस बहस दिखाई नहीं देती.
आलोचना का स्त्री पक्ष
समीक्षात्मक लेखन तक सीमित होती जा रही साहित्यलोचना के इस दौर में पद्धति, परंपरा और पाठ के जरिए ‘आलोचना के स्त्री पक्ष’ को सामने लाना निश्चित रूप से एक उत्कृष्ट कार्य है। स्त्रियों का सरोकार और उनकी अस्मिता को लेकर सुजाता जी के समाजशास्त्रीय प्रस्तुतिकरण से तो हम परिचित थे ही, अब स्त्री-भाषा को लेकर आलोचना के उनके जरूरी पक्ष से भी हम वाकिफ हो चुके हैं। राजकमल प्रकाशन से आई यह किताब साहित्यलोचना के क्षेत्र में एक बड़े विमर्श की मांग करने के साथ ही यह भी तय करती है कि स्त्री-भाषा और अभिव्यक्ति को खारिज नहीं किया जा सकता.