भारत में मौजूदा दौर सांप्रदायिकता की एक नई परिभाषा गढ़ रहा है.
धार्मिक कट्टरता के नाम पर लिंचिंग की जितनी घटनाएं हमने विगत कुछ वर्षों में देखी है, वह सबूत है इस बात का कि भारत की अखंडता और धर्मनिरपेक्षता खतरे में है. इस खतरे के नुकसान का अंदाजा लगाना भी मुश्किल है लेकिन जब लगाते हैं तो जेहन में कई सवाल उभरते हैं.
राह चलते किसी से जबरन जय श्रीराम बोलवाने वाले या फिर जय श्रीराम का नारा लगाते हुए किसी दुकानदार या रेहड़ी-पट्टी वाले को धमकाने वाले आज के तथाकथित रामभक्तों को देखकर क्या आप उनसे प्यार कर सकते हैं? क्या अपने बच्चे को यह कह सकते हैं कुछ सीखो इनसे कि कैसे धर्म की रक्षा की जाती है? क्या सचमुच धर्म के नाम पर हत्या से उस धर्म की रक्षा होती है?
इन सवालों का जवाब यही होगा, नहीं! क्योंकि उन्हें देखकर आपको डर लगने लगता है. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि कुछ उन्मादी रामभक्तों ने ही आज राम के नाम को सबसे ज्यादा बदनाम किया है.
आशिक मियाँ
लेकिन एक रामभक्त ऐसा भी है जिससे आपको प्यार हो जाएगा. वह रामभक्त है आशिक मियाँ. वरिष्ठ लेखक राकेश कायस्थ के नए उपन्यास ‘रामभक्त रंगबाज़’ के मुख्य किरदार हरफनमौला ‘आशिक मियाँ’ पर न सिर्फ आपका दिल आ जाएगा बल्कि उस रंगबाज के मस्ती भरे अंदाज से आपको प्यार हो जाएगा. यह रामभक्त आशिक उस दौर का है जब देश में भाजपा तीर्थयात्रा निकाल रही थी और राजनीति में धर्म की गहरे तक घालमेल करके देश के सामुदायिक सद्भाव के बिगड़ने में अपनी महती भूमिका निभा रही थी.
हिंद युग्म प्रकाशन से आए इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में मुहल्ला आरामगंज है जिसके चौराहे पर शेख निजामुद्दीन वली आशिक यानी आशिक मियां दर्जी की दुकान है. और समय है 1990 में सितंबर का वह ऐतिहासिक महीना जब लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा लेकर आरामगंज से गुजरने वाले हैं. यह वही समय है जब बर्लिन में गिराई गई दीवार का मलबा अभी जस-का-तस पड़ा हुआ था और सोवियत संघ के टूटकर बिखरने की खबरें आ रही थीं.
उसके पिछले महीने ही यानी 7 अगस्त 1990 को संसद में मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की घोषणा की गई थी जिसके बाद देशभर में आरक्षण-विरोधी बवाल मचा था. मगर, इसी ऐतिहासिक समय ने रामभक्त रंगबाज आशिक मियां की जिंदगी भी छीन ली और राम से मुहब्बत करने वाले एक मुसलमान की मिसाल को हमेशा के लिए खत्म कर दिया.
भारतीय लोकतंत्र से लेकर सांप्रदायिकता के तमाम आयामों पर सवाल
दर्जी आशिक मियां ने तो अपने रैयत टोले की जमीन को रामनामी सियासत की भेंट चढ़ने से बचा लिया लेकिन खुद अपनी जान गंवा बैठा. यहां जीते जी किसी को न्याय नहीं मिलता तो फिर मरने के बाद क्या ही न्याय मिलता! राकेश कायस्थ ने इस उपन्यास के जरिए भारतीय लोकतंत्र से लेकर सांप्रदायिकता के उन तमाम आयामों पर सवाल खड़े किया है यह मानते हुए कि भारतीय न्याय व्यवस्था ताकतवर के हाथ की रस्सी है और कमजोर के गले का फंदा है.
आखिर कौन था आशिक?
मेरी नजर में हिंदुस्तानी एकता और अखंडता की बेहतरीन मिसाल था आशिक. अगर मुहल्ला आरामगंज की नजर से देखें तो हर फन के माहिर आशिक मियां अगर दर्जी नहीं होता पेंटर होता, टॉप का मैकेनिक होता, इंजीनियर होता या और भी बहुत कुछ होता. रामगंज वाले तो यहां तक मानते हैं कि आशिक ऐसा आदमी है जिसे हवाई जहाज भी दे दो तो बिना ट्रेनिंग के उड़ा दे.
पतंगबाजी, कंचे और गिल्ली डंडे के खेल में आशिक मियां के आगे कोई टिकता ही नहीं. इसीलिए तो टू इन वन टेलर आशिक मियां आरामगंज का फोर इन वन आदमी माना जाता है. भला बताइए, ऐसे हुनरबाज किरदार से प्यार नहीं होगा तो प्यार पर से भरोसा ना उठ जाएगा भला! हां मगर सवाल तो फिर भी खड़ा होता है कि वह भरोसा अब भी बचा हुआ है क्या?
नृशंस हत्याएं
पिछले कुछ सालों में सही और तर्कपूर्ण बात करने वाले लोगों की जिस तरह से हत्याएं हुईं, उससे देश की असहिष्णुता पर भी खतरे मंडरा रहे हैं. जाने-माने तर्कवादी विचारक डॉक्टर एमएम कलबुर्गी की नृशंस हत्या हो फिर महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के अध्यक्ष रहे नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हो, सीपीआई के वरिष्ठ नेता गोविंद पानसरे की हत्या हो फिर वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या हो, इन सभी नृशंस हत्याओं ने कट्टरता और सांप्रदायिकता की जो फसल उगाई है, क्या पता उसका अंजाम क्या हो. लेकिन अगर आरामगंज में आशिक मियां को बचा लिया गया होता तो शायद उपर्युक्त हत्याएं भी नहीं हुई होतीं. इस देश को राम के नाम पर उन्माद मचाने वाले लोगों की नहीं, इस वक्त राम को दिल की गहराई से प्यार करने वाले आशिक मियां जैसे लोगों की जरूरत है.
होइहि सोइ जो राम रचि राखा/ को करि तर्क बढ़ावै साखा.
इन पंक्तियों में गहरे तक यकीन करने वाला शब्दों का जादूगर आशिक जब रामचरितमानस की चौपाइयां बोलकर उनका भावार्थ बताता है तो पंडीजी तक का मुंह भी खुला रह जाता है. नब्बे के दशक के आशिक मियां ने ‘राम’ के ‘चरित्र’ को ही अपना ‘मानस’ बना लिया था. क्या आपको आज के उन्मादी रामभक्तों में ये सलाहियत दिखती है?
अपने गुरु बाबा इंद्रदेव पांड़े से बेपनाह मुहब्बत करने वाला आशिक ने उनसे सीखा था कि राम का मार्ग दुखों का मार्ग है, इसलिए हर मुश्किल में वह कभी विचलित नहीं होता था. लेकिन आज के रामभक्त क्या सीखते हैं अपने गुरु से? पुरुषोत्तम राम की मर्यादा की जो बेहतर मिसाल हो सकती है, वो रामभक्त रंगबाज आशिक मियां में मौजूद है. भगवान राम से प्यार करना जानने के लिए आज हर हिंदुस्तानी को यह उपन्यास पढ़ना चाहिए.
- उपन्यास – रामभक्त रंगबाज
- लेखक – राकेश कायस्थ
- प्रकाशक – हिंद युग्म प्रकाशन
- मूल्य – 199 रुपये पेपरबैक
ये लेखक के निजी विचार है.