इस शुक्रवार जी5 ओटीटी प्लेटफॉर्म पर स्ट्रीम हो रही है – आकर्ष खुराना के निर्देशन में बनी तापसी पन्नु की फिल्म रश्मि रॉकेट. ये एक भावनात्मक फिल्म है. इस फिल्म का सब्जेक्ट तो बिल्कुल नया है लेकिन फॉरमेट बिल्कुल ही घिसा-पीटा और पुराना है.
फिल्म तब तक बोरिंग लगती है जब तक रश्मि नाम की महिला खिलाड़ी के लिंग परीक्षण का मामला नहीं गरमाता. कोर्ट ट्रायल शुरू होने के बाद फिल्म एक नए फ्लेवर में प्रवेश करता है और दर्शकों को बांधना शुरू करता है.
फिल्म के शुरू के कुछ 30-40 मिनट धीमे है और यहाँ निर्देशक के पास बेहतर करने के विकल्प हो सकते थे. उदाहरण के लिए रश्मि को रश्मि रॉकेट साबित करने के लिए एक लंबा समय खींच जाता है. ये कमर्शियल सिनेमा का बहुत ही पुराना, बोरिंग और घिसा-पीटा प्रारूप है. हालांकि ये तरीका एक खास दर्शक वर्ग को लुभाने मे आज भी कारगर है.
एक नया विषय उठाने के लिए निर्देशक की तारीफ भी होनी चाहिए. लेकिन ओटीटी के इस दौर में इस पुराने फॉरमेट को फॉलो करने के लिए निर्देशक के कुछ अंक तो काटने ही चाहिए.
कास्ट एंड क्रू
तापसी अपने किरदार के साथ तो न्यायसंगत है लेकिन अपने दर्शकों के साथ नहीं. एक गरम मिजाज की संघर्षशील महिला जो अपने अधिकारों के लिए लड़ रही है. अब तापसी के लिए ऐसे किरदार का पूर्वानुमान करना कुछ ज्यादा ही आसान हो गया है.
मिर्जापुर सीजन 2 में “ये भी ठीक है” वाला डायलॉग बोल कर नाम कमाने वाले प्रियांशु पेनयुली रश्मि के प्रेमी और पति के किरदार में है. प्रियांशु का अभिनय ठीक-ठाक है लेकिन इतना प्रभावी नहीं है कि फिल्म उनके पाले में जा पाए. अंततः रश्मि रॉकेट तापसी पन्नु की ही फिल्म साबित होती है.
पाताललोक में हथौरा त्यागी के किरदार से लोकप्रिय हुए अभिषेक बनर्जी रश्मि के वकील की भूमिका में, सुप्रिया पाठक और मनोज जोशी रश्मि के माता-पिता की भूमिका में अच्छा अभिनय दिखाते है.
फिल्म का बैकग्राउंड म्यूजिक या गाना ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, जिसकी बात की जा सके. कोर्ट ट्रायल के दौरान के डायलॉग ठीक-ठाक लिखे गए है.
अगर आपको फैमिली ड्रामे, फेमिनीजम की लड़ाई और कोर्ट ट्रायल्स वाली फिल्म पसंद है तो रश्मि रॉकेट को एक बार देख सकते है.
ये लेखक के निजी विचार है.