रे कन्हैया … याद है कुछ भी हमारी…

दिल्ली घराने से ताल्लुक रखने वाले पाकिस्तानी क़व्वाल गुलाम फरीदुद्दीन अयाज़ अल हुसैनी ध्रुपद, ख़याल, ठुमरी और और दादरा के माहिर उस्ताद माने जाते हैं. मुँह में पान की गिलौरी दबाये उनका गाया “कन्हैया..याद है कुछ भी हमारी” लोगों के दिल में बसा और ज़ुबान पर सुना जा सकता है. दीपचंदी ताल की 14 मात्रा में गाई गई ये क़व्वाली शायद दुनिया की एकमात्र सूफी कव्वाली है, जो किसी हिंदू आराध्य पर कही और पढ़ी जाती है. ऐसा माना जाता है कि आम तौर पर क़व्वाली खुदा या इश्क़ या मुर्शिद के लिए लिखी जाती हैं. मतलब यह एक अपवाद की तरह ही है.

बात अपवाद की आयी है तो विचार इसी से शुरू करते हैं कि मुख्यधारा की राजनीति कर रहे लोगों का दल बदलना, अपनी निष्ठां किसी अन्य पार्टी में व्यक्त कर उसमें शामिल हो जाना क्या भारतीय राजनीति में अपवाद है. सामान्य और सही जवाब यही है कि नहीं! इस विषय पर दो कदम आगे बढ़ेंगे तो अमूमन यही निष्कर्ष निकलेगा कि यह भारतीय राजनीति का “नॉर्म” है. नया नॉर्म इसीलिए नहीं क्योंकि यह चलन पुराना पड़ चुका है और मोरल ग्राउंड पर अब भी, पहले की तरह ही, हेय दृष्टि से देखा जाता है.

ऐसे में जेएनयू के छात्र नेता और छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके कन्हैया कुमार का लगभग 96 वर्ष पुरानी भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी को छोड़कर 136 साल पुरानी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होना अपवाद नहीं है. हाँ, सोशल मीडिया के दौर में यह एक चर्चा का मसालेदार विषय ज़रूर है. भांति-भांति के भाव और विचारों की अद्भुत अविरल धारा चल रही है. कोई हंस रहा है, कोई गुस्से में है, कुछ हतप्रभ हैं तो एक हिस्सा निराश है.

प्रश्न यह है कि क्या ऐसा पहली बार बार हुआ है, जब किसी कम्यूनिस्ट पार्टी का बड़ा चेहरा कांग्रेस या किसी अन्य पार्टी में गया हो? इतिहास ऐसे दृष्टांतों से भरा पड़ा है जब नेता और तथाकथित बड़े चेहरे वाम से केंद्र होते दक्षिण और वाम से सीधे धुर दक्षिणपंथ के हाईवे पर पर सरपट दौड़ते नज़र आते हैं. कमोबेश ऐसी ही कथा दक्षिण से त्रस्त हो केंद्र और वाम में “सेट” होने की रही है.

तथापि, राजनीति और साहित्य-संस्कृति की दुनिया में हर प्रकरण का कुछ ना कुछ तरंग प्रभाव (रिपल इफेक्ट) होता है. आइये इस प्रकरण में इसे तलाशने की कोशिश करते हैं. यह कहने की बात नहीं कि आज इस मुल्क़ में दक्षिणपंथी भाजपा की सरकार है.भाजपा का संविधान कहता है उसे गांधीवादी समाजवाद में यकीन है. हांलांकि भारतीय जनता पार्टी का गांधी, समाजवाद और गांधीवादी समाजवाद में कितना यकीन है, यह एक खुला रहस्य है. अलग से बताने की कोई आवश्यकता नहीं जान पड़ती.

विगत 7 वर्षों में सरकार की नीयत और नीतियां लगातार ही दक्षिण की तरफ सरकती नज़र आ रही हैं. आम किसान-मज़दूरों के सवाल हाशिए पर धकेले जा रहे हैं. अल्पसंखयकों में असुरक्षा का भाव भर रहा है या कहें कि भर दिया गया है. कई मामलों में संविधान को भी ताक पर रख दिया जा रहा है. एक तरफ कॉर्पोरेट, उनमें भी कुछ ख़ास उद्योगपतियों पर सरकार के निगाह-ए-करम हैं. उनकी संपत्ति दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही रही है, वहीँ आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी, भूख और ज़हालत की जद में हैं. बेरोज़गारी चरम पर है, नौजवान हताश हो रहे हैं लेकिन सरकार उन्हें ‘स्वरोज़गार के मार्फ़त आंतरप्रेन्योर’ बनने की घुट्टी पिला रही है.

जीवन के जिस पक्ष में उतरिये, उसी पर योजनाओं की लम्बी लिस्ट नज़र आती है, उनका प्रभाव नहीं! क्या उज्ज्वला योजना के बावजूद बड़ी संख्या में महिलाएं आज भी चूल्हा फूंकने को अभिशप्त नहीं है? क्या नमामि गंगे योजना से पवित्र मानी जानी वाली गंगा फिर से निर्मल हो गयी? क्या जान धन खातों में धन है? क्या अटल पेंशन योजना से बुज़ुर्गों का पेंशन नियमित और ‘अटल’ हो गया है?

सवालों की फेहरिस्त और लम्बी हो सकती है. इन्हीं सवालों और विचारों के इर्दगिर्द विपक्ष को अपनी संभावनाएं दिखने लगी हैं. कांग्रेस की संसदीय मौजूदगी भले ही ऐतिहासिक रूप से सबसे कम हो, वह मुख्य विपक्ष तो है ही! अपनी तमाम कमी-कमज़ोरियों के बावजूद उसे यह भूमिका निभानी पड़ती है. राहुल गाँधी अध्यक्ष बने और चुनावी पराजय के बाद खुद को इस ‘पद से मुक्त’ कर लिया. सोनिया गाँधी कार्यकारी अध्यक्ष बनीं. यहाँ ध्यान देने वाली बात है कि राहुल अध्यक्ष पद छोड़ सकते हैं, कांग्रेस और परिवार नहीं.

अध्यक्ष ना रहते हुए भी उनकी भूमिका यथावत है और उनकी बातें कांग्रेस का अंतिम सत्य! राहुल संगठन को मजबूत करने की कोशिशों के साथ ही मोदी सरकार की नीयत और नीतियों पर लगातार हमलावर हैं. इसमें कोई शक भी नहीं कि उनकी इन कोशिशों की आवाज़ मोदी के मायाजाल से त्रस्त नौजवानों और आम अवाम तक पहुँच रही है. कुछ तो यह भी कहते नज़र आते हैं कि नेहरू के बाद वह अकेले ऐसे कांग्रेसी नेता हैं जो भाजपा और संघ पर इस कदर हमलावर हैं. इतिहास फिर दुहरा रहा है और कांग्रेस की राजनीति केंद्र के फलक से बायीं और बढ़ती दिख रही है. वामपंथी कन्हैया और अंबेडकरवादी जिग्नेश मेवानी को अपनी मौजूदगी में पार्टी में शामिल करना इसका एक उदाहरण समझा जा सकता है.

इसमें भी कोई दो राय नहीं कि लोकसभा चुनाव में एक धुर और कट्टर दक्षिणपंथी, जिन्हें भाजपा का ‘फायरब्रांड लीडर’ कहा जाता है, के हाथों पराजय के बाद से ही कन्हैया को एक बड़े मंच की तलाश थी जो कम्यूनिस्ट पार्टी अपने सांगठनिक कमजोरी की वजह से मुहैया नहीं कर पा रही थी. देशद्रोह का मुकदमा होने और “बिहार से तिहाड़” की यात्रा ने कन्हैया को पर्याप्त ‘फुटेज’ दिया, जिसकी परिणति व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा और उपरिगामी गतिशीलता (अपवार्ड मोबिलिटी) के रूप में देखने को मिल रही है. कांग्रेस में उनके ‘अवतरित’ होते ही यह बयान कि “कांग्रेस नहीं बची तो देश नहीं बचेगा” बहुतों को भले ही अतिशयोक्तिपूर्ण लगे लेकिन कन्हैया ने पहले ही साबित कर दिया कि वह भी ‘सच्चे कोंग्रेसी’ (वह टर्म, जो स्वयं में विरोधाभासी है) होने की राह पर हैं.

बहरहाल, फिर से उस्ताद फरीद अयाज़ की उस क़व्वाली पर आते हैं जिसमे वह कहते हैं, “कहूँ क्या तेरे भूलने के मैं वारी.. कन्हैया याद है कुछ भी हमारी.” इस क़व्वाली की शुरुआत को मौजूदा विषय में पैबस्त कर पढ़ने और सोचने की कोशिश करें तो मामला ‘दर्शन की दुनिया’ में उतर जाता है. उस्ताद कहते है:

बात निकली है तो दूर तलक जाएगी,
दूर तलक जाएगी, वापस तो यहीं आएगी.

ये लेखक के अपने विचार है
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