समकालीन दौर में दल-बदल कानून की प्रासंगिकता

दल-बदल का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना समय हमें अंग्रेजों से आजादी मिलकर हो चुका है. स्वतंत्रता के बाद से राजनीतिक दल बदलने की आदत शुरू हो गई थी, जो अब तक जारी है. इससे बचने के लिए कानून भी बनें लेकिन नतीजा कुछ नहीं आया. दल-बदल भारतीय राजनीति का एक स्याह पहलू है. अक्सर देखने और सुनने में आता है कि कोई भी नेता जीतने के बाद दल बदल लेता है. यह स्थिति कमोबेश आज भी जारी है.

1985 में राजीव गांधी की सरकार द्वारा 52वें संविधान संशोधन  के माध्यम से दल बदल विरोधी कानून पास किया गया तथा साथ ही संविधान में 10वीं अनुसूची को भी जोड़ा गया. इस कानून के तहत देश में आग की तरह फैल रही दल बदल प्रथा को रोकना था. सारे नेताओं द्वारा सर्वसम्मति से इस कानून को मंजूरी दिया गया परन्तु इसके बाद भी दल बदल प्रथा पर अंकुश नहीं लग पाया और वो बद्दस्तूर आज भी जारी है.

इसे रोकने के लिए साल 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने पहल किया और 91वें संविधान संशोधन के द्वारा न सिर्फ व्यक्तिगत दल बल्कि सामुहिक दल बदल को भी असंवैधानिक घोषित किया गया और दो तिहाई की संख्या के साथ दल बदल को मंजूरी दी गई. इसके बाद भी दल बदल प्रथा में कोई खास कमी नहीं देखी गई.

अब समय आ गया है कि फिर से दल-बदल विरोधी कानून की सरकार द्वारा समीक्षा की जाए और फिर से आवश्यक संशोधन किया जाए. दल बदल न सिर्फ संविधान और कानून को दागदार करता है अपितु यह चुनाव के समय डाले गए एक एक वोट को भी कलंकित करता है. जनता के द्वारा डाला गया एक एक वोट लोकतंत्र के लिए उतना ही अधिक महत्वपूर्ण है जितना कि एक वोट से किसी सरकार का सत्ता से बाहर जाना.

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