फणीश्वरनाथ रेणु की जयंती (4 मार्च) पर विशेष: आंचलिक व्यंजनों के संरक्षण के प्रति भी संवेदनशील थे रेणु 

रविशंकर उपाध्याय।

महान कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु ग्राम्य और आंचलिक जीवन के चितेरे होने के साथ-साथ आंचलिक व्यंजनों के संरक्षण के प्रति भी बेहद संवेदनशील थे। रेणु जी ने बिहार के गांव और कस्बों में मिलने वाले व्यंजनों को बिहार की विरासत से जुड़ी संस्कृति के संरक्षण की जरूरतों पर बल दिया था। उनका इन व्यंजनों के बारे में बताने का अंदाज-ए-बयां भी कुछ ऐसा था कि उनके बारे में जानना हम सबके लिए भी बेहद दिलचस्प है।

धर्मयुग पत्रिका के 22 जुलाई और 29 जुलाई 1962 के अंक में उन्होंने सिलाव का खाजा नामक आलेख लिखा था, जिसमें उन्होंने खाजा, बख्तियारपुर की लाई और बिहारशरीफ के आलू के बारे में अपने अनुभव लिखे थे। धर्मयुग के उक्त दोनों अंक न केवल संग्रहणीय हैं बल्कि व्यंजनों के बारे में एक नया दृष्टिकोण भी पेश करते हैं।

सिलाव चूंकि नालंदा में है और पटना से वहां तक जाने का रास्ता बख्तियारपुर और बिहारशरीफ से होकर जाता है; सो इन तीन कस्बों के तीन मशहूर स्वाद क्रमशः खाजा, लाई और आलू के बारे में रेणु जी ने इस आलेख में विस्तार से लिखा है।

सिलाव के खाजा का इतिहास कितना पुराना है?
रेणु पटना से मोटरगाड़ी से अपने इष्ट मित्रों के साथ राजगीर के तप्त कुंड में स्नान करने, जरासंध का सोन भंडार देखने, गिदधकूट पहाड पर चढ़ने और नालंदा के भग्न ज्ञानपीठिका की यात्रा पर निकलते हैं और इस दौरान वे खाजा से बेहद प्रभावित जान पड़ते हैं। उसके हरेक परत में एक ही स्वाद होने पर खाजा को सर्वगुण संपन्न व्यंजन भी बताते हैं। उनके मन में प्रश्न भी जगता है कि क्या चीनी यात्रियों ने इस पर लिखा या नहीं!

वे लिखते हैं- सिलाव गांव की तख्ती पढ़ते ही खाजा की याद आयी। मन में प्रश्नोदय हुआ- सिलाव के खाजा का इतिहास कितना पुराना है? क्या चीनी यात्रियों के यात्रा वर्णन में कहीं भी इस मिठाई की कोई चर्चा नहीं! देश-विदेश के लोग राजगीर नालंदा आते हैं। जाते समय सिलाव का अति प्रसिद्ध खाजा खरीदकर ले जाते हैं। जब वे राजगीर से नालंदा लौटते हैं तो सिलाव का खाजा उनके पास चंगेरी में पहुंचता है।

रेणु जी लिखते हैं कि सिलाव के खाजा की चंगेरी खुली। सचमुच। प्रशंसनीय पदार्थ है। बगैर खाए जिसके स्वाद की कोई कल्पना नहीं की जा सकती। एक पर्त के बाद दूसरा स्तर, दूसरे के बाद तीसरा, चौथा, पांचवां, छठा, सातवां। सात लेयर। और प्रत्येक पर्त में समान रूप से रस, गंध। नालंदा के भग्न महाविहार का प्रतीक यह मिष्ठान्न- सिलाव का खाजा- चीन, जापान, अमेरिका, रूस- कहीं ले जाइए हमेशा ताजा। कुछ साल पूर्व सिलाव के खाजा को जीआई टैग भी मिल चुका है जिसके बाद इसके व्यापार में काफी वृद्धि हुई है और आज वहां से देश विदेश खाजा भेजा जा रहा है।

बूढों की टिफिन और बच्चों की मिठाई ये है लाई
हम आप बाढ और बख्तियारपुर में तो लाई खरीदते ही हैं। रेणु जी जब मोटर से साथियों के साथ पटना से बख्तियारपुर पहुंचते हैं तो उन्हें भी लाई का स्वाद मोह लेता है। इसके साथ ही रामदाने की लाई बेचनेवालों का ग्राहकों को लुभाने का अंदाज भी खूब पसंद आता है।

रेणु कहते हैं कि बख्तियारपुर से होकर तो बहुत बार आया गया हूं कभी फेरी वालों ने उन्हें इस तरह नहीं घेरा था। फेरी वाला इस बार हमारे चेहरों को देखकर ही समझ गए कि हम राजगीर के तप्त कुंड में स्नान करने, जरासंध का सोन भंडार देखने, गिदधकूट पहाड पर चढने और नालंदा के भग्न विहार में भटकने जा रहे हैं। फेरी वाला बुलाता है- लाई है लाई। रामदाने की लाई। बख्तियारपुर की लाई, मशहूर लाई। बूढों की टिफिन और बच्चों की मिठाई। लाई है…

तब कलकत्ते में खूब भेजा जाता था बिहारशरीफ से आलू

बिहारशरीफ का इलाका यूं तो आलू के उत्पादन के लिए आज भी प्रसिद्ध है लेकिन अब यहां मशरूम, फूल और हरी सब्जियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। पटना में विगत कुछ वर्षों से मशरूम की उपलब्धता नालंदा से ही सुनिश्चित होती है। रेणु जब बिहारशरीफ पहुंचते हैं तो उन्हें कोलकाता की अपनी यात्रा याद आ जाती है जिसमें उन्हें एक ऐसा व्यापारी मिला था, जिन्होंने बताया था कि कोलकाता के बड़े होटलों के व्यापारी बिहारशरीफ आते थे और किसानों को उपज के पूर्व ही एडवांस देकर चले जाते थे।

इसके बाद उन्हें बसों और मालगाड़ियों से आलू उनके होटलों के लिए भेजे जाते थे। तब इन्हें पटनिया आलू के नाम से जाना जाता था। रेणु जी ने लिखा हैः- बिहारशरीफ। यह इलाका आलू के लिए प्रसिद्ध है। भारत के बडे-बडे होटलों के खरीद अफसर या कांट्रैक्टर यहां ‘पटनिया आलू’ खरीदने आते हैं। क्यों न सोहसराय का नाम बदलकर ‘आलू-शरीफ’ रख दिया जाए! सोहसराय ही वह इलाका है जहां आज भी आलू की खेती बड़े पैमाने पर होती है। रेणु ने अपने आलेख में कहा है कि इन सभी व्यंजनों को सहेजकर रखने की जरूरत है।

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