सत्यजित रे , ऋत्विक घटक और मृणाल सेन से बांग्ला समानांतर फ़िल्मों की शुरुआत होती है. सत्यजित रे मौलिक रुप से एक चित्रकार थे, ऋत्विक एक नाटक कर्मी और ऐक्टिविस्ट जबकि मृणाल सेन पेशे से एक मेडिकल रेप्रिज़ेनटिव थे और वामपंथी राजनीति के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ में सक्रिय थे. इन तीनों का फ़िल्मों के प्रति झुकाव किसी न किसी वज़ह से हुआ.
सत्यजित रे विश्व सिनेमा से प्रभावित हुए, ऋत्विक नाटक को फ़िल्म में उतारना चाहते थे और मृणाल सेन अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धता के कारण फ़िल्मों के ज़रिए लोगों से जुड़ना चाहते थे. तीनों ने ही फ़िल्मों को अभिव्यक्ति का जरिया माना. वे अपने काम को लेकर बेहद गंभीर थे. ऋत्विक अपनी विलक्षणता के बावजूद बेहद अव्यवस्थित रहे और शायद इसलिए जीते-जी वे अपनी कामयाबी ठीक से नहीं देख पाए.
बांग्ला सिनेमा के कुछ क्रिटिक उनके फ़िल्मी अनुशासन को लेकर सवाल उठाते रहे. वे मानते थे कि ऋत्विक फ़िल्म के व्याकरण से इतर काम करते हैं जबकि उन्हीं के भतीजे प्रसिद्ध कवि नवारूण ने कहा कि वो आदमी व्याकरण अनुसरण करने के लिए नहीं बल्कि व्याकरण गढ़ने के लिए पैदा लिया है.
सत्यजित रे अपनी काबिलियत के हिसाब से जल्द ही ख्याति प्राप्त कर लेते हैं. जबकि ऋत्विक और मृणाल इतने भाग्यशाली नहीं रहे. भारतीय सिनेमा ने भी सत्यजित रे को ज्यादा तरजीह दी, जबकि विश्व सिनेमा में उनकी खासी चर्चा और आलोचना हो रही थी. इस बात से ज़रा भी इनकार नहीं है कि वे एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे. उनके पास अपनी फ़िल्मों का स्केच पहले से तैयार रहता था, गाने वे खुद तय करते थे, कास्टिंग उनके पास ही रहती और अंत समय में कैमरा भी उन्होंने खुद ही थाम ली. ऋत्विक की फ़िल्में उनके दिमाग में रहता था. वे फ़िल्म को लेकर दिन-रात बेचैन रहते. उनके पास बजट बेहद कम होता और वे जुगाड़-जंत्र से अद्भुत कर डालते.
भारत में कला फिल्म की शुरुआत बांग्ला फिल्म ‘पथेर पांचाली’ (1955) से मानी जाती है, जिसके निर्देशक सत्यजित राय थे. इसी तरह हिंदी में समानांतर सिनेमा की शुरुआत ‘भुवन सोम’ (1969) से मानी जाती है, जिसका निर्देशन मृणाल सेन ने किया था. बात सत्यजित राय (1921-1992) से शुरू करें तो उनका विश्व सिनेमा में कोई सानी नहीं है. उनकी कालजयी फिल्मों – पथेर पांचाली, ‘अपराजितो’, ‘जलसाघर’, ‘कंचनजंघा’, ‘चारुलता’, ‘अशनि संकेत, घरे बाइरे, पारस पाथर, देवी, तीन कन्या, प्रतिद्वंद्वी, गणशत्रु और आगंतुक को आज भी बार-बार देखा जाता है.
राय ने छोटी-बड़ी कुल 37 फिल्मों का निर्देशन किया. उनके फ़िल्मी कथ्य के भीतर एक अलग ही शिल्प होता था। सुंदर छायांकन, विलक्षण दृष्टि बोध और दृश्य संयोजन के मामले में तो राय सदैव अनन्य रहे. हिंदी में उन्होंने पहले ‘शतरंज के खिलाड़ी’ बनाई, बाद में ‘सद्गति’. हिंदी सिनेमा उनके करिश्माई सिनेमागो से चमत्कृत हुआ था.
सत्यजित राय की पहली फिल्म ‘पथेर पांचाली’ 1955 में आई थी और उस पहली फिल्म से ही राय पूरी दुनिया में मशहूर हो गए थे. आज भी पथेर पांचाली भारतीय दर्शकों में उतने ही चाव से देखी जाती है. पथेर पांचाली ने जब देश-विदेश में धूम मचा दी तो मुंबई फिल्मोद्योग से नरगिस दत्त ने कहा था, ‘देश की दरिद्रता को बेचकर विदेश से धन लाया जा रहा है. विदेशों में इस फिल्म का प्रदर्शन तत्काल बंद कराया जाना चाहिए. दरिद्रता की ऐसी कारुणिक छवि विदेशों में दिखाने से नहीं चलेगा.’
‘पथेर पांचाली’ प्रकृति के साथ एकात्म होकर संघर्ष करते हुए मुनष्य के जीवन दर्शन का संधान करती है. ‘पथेर पांचाली’ के निर्माण में कई बार बाधाएँ आईं. प्रायोजक की तलाश में सत्यजित राय को कहाँ-कहाँ नहीं भटकना पड़ा. राना दत्ता एंड कंपनी ने प्रायोजक बनाना स्वीकार किया और 40 हजार रुपए देने की बात कही तो 1953 में शूटिंग शुरू हुई. एक-तिहाई शूटिंग पूरी हुई तो राना दत्त एंड कंपनी ने फिल्म का प्रायोजक होने से मना कर दिया. फलतः शूटिंग बंद. फिर प्रायोजक ढूँढ़ने की कवायद शुरू हुई. पर कोई सफलता नहीं मिल रही थी. सत्यजित राय की पत्नी विजया राय के गहने बंधक रखकर कुछ दिन शूटिंग हुई लेकिन फिर बंद करना पड़ा. तत्कालीन राज्य सरकार की वित्तीय मदद के फलस्वरूप ‘पथेर पांचाली’ की 1954 में नए सिरे से फिर शूटिंग शुरू हुई. राज्य सरकार से पैसा पाने के बाद राना दत्त एंड कंपनी के चालीस हजार रुपए वापस किए गए. बंधक रखे गए विजया राय के गहने छुड़ाए गए.
‘पथेर पांचाली’ की पूरी पटकथा कभी नहीं लिखी गई. कागज पर सत्यजित राय कुछ नोट लिखते थे और स्केच बनाते थे. राय का जीवन शहर में बीता था फिर भी इसे फिल्माने में उन्हें दिक्कत नहीं हुई क्योंकि विभूति भूषण बंद्योपाध्याय की इस कथाकृति में गाँव के पूरे परिवेश का बारीकी से विवरण है।