तालिबान का अतीत उसका पीछा नहीं छोड़ेगी

पिछले छह हफ्ते में अफगानिस्तान में हो रही उथल-पुथल की धमक दक्षिण एशिया सहित अन्य कई देशों में शिद्दत के साथ महसूस की जा रही है. 1996 से 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के तौर-तरीकों को लोग भूल नहीं पाए हैं. कार्ल मार्क्स ने कहा था कि इतिहास अपने को दोहराता है. पहले वह त्रासदी के तौर पर आता है और फिर एक स्वांग की तरह. मौजूदा सन्दर्भ में ये बात काफी प्रासंगिक जान पड़ती है. इसी बाबत तालिबान के इतिहास पर एक नज़र डालना लाज़मी जान पड़ता है.

90 के दशक के शुरुआत में अस्तित्व में आया तालिबान खुद को सुन्नियों और पश्तूनों का खैरख्वाह बताकर पहले दक्षिण और फिर पूरे अफगानिस्तान में अपना संगठन खड़ा करने में कामयाब रहा. शुरुआत में इन्होंने अफगानिस्तान की सोवियत समर्थित सरकार से लोहा लिया और फिर 1992 में उनके पतन के बाद अगले 4 सालों में इस परिस्थिति में पहुँच चुका था कि वह तत्कालीन राष्ट्रपति की ह्त्या करके काबुल सहित अफगानिस्तान के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर सके. इस तरह एक नया अफगानिस्तान इस्लामिक अमीरात अस्तित्व में आया. शासन करने का उनका तरीका मध्यकालीन बर्बरता की सीमाओं से भी आगे निकल जाता. मानवाधिकार और महिलाओ के हक़-हुकूक की बात और उनकी खैरियत कूड़ेदान में डाल दी गई. अल कायदा सहित अन्य कई आतंकी संगठनों के पनाहगाह के रूप में तालिबानी अफगानिस्तान सबसे अव्वल था.

ऐसा भी नहीं था कि भारत इस आसन्न संकट से अछूता रहा. भारत के लोग इस कभी भूल नहीं सकते. आतंकियों ने 1999 में इंडियन एयरलाइन्स का एक प्लेन काठमांडू में हाईजैक कर लिया. इस विमान में 178 यात्री सवार थे. 5 देशों का चक्कर लगाने बाद यह विमान कंधार एयरपोर्ट पर उतारा गया. आतंकियों ने मौलाना मसूद अजहर सहित जेल में बंद 35 आतंकियों को छोड़ने और 20 करोड़ डॉलर की फिरौती की मांग रखी. आतकियों से बातचीत के बाद केवल मसूद अज़हर और अन्य लोगों की रिहाई की शर्त पर 31 दिसंबर को यात्रियों की रिहाई हुई, जिन्हें विशेष विमान से वापस लाया गया.

बीते 15 अगस्त को तालिबान ने फिर से अफगानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया है. भले ही ज़ुबानी तौर पर तालिबान के तेवर नरम नज़र आ रहे हों लेकिन अधिक संभावना है कि यह महज़ स्वांग ही साबित होगा. तालिबानी सरकार के गठन में अब तक एक भी महिला को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है. कामकाजी महिलाएं दफ्तर नहीं जा रही हैं. पत्रकारों को ज़मीन में नाक रगड़कर माफी मांगने कहा जा रहा है और उनके एजेंडे से थोड़ा भी इतर जाने वाले पत्रकारों को “सिजदा और पाबोस’ करवाया जा रहा है. एलायंस फ़ोर्स के करीबी और इसमें तथाकथित तौर पर काम करने वालों पर शक के आधार पर हत्याएं की जा रही हैं. बच्चों तक को नहीं बख़्शा जा रहा. गौर करने लायक बात यह है कि तालिबान ने काबुल पर कब्जे के बाद पूरी दुनिया को आश्वस्त किया था कि इस बार ये तौर-तरीके इस्तेमाल नहीं किये जाएंगे, सरकार के गठन में विविधता दिखेगी, कौम या कबीले के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा. वस्तुस्थिति इसके उलट है. तालिबान ना देश के भीतर बल्कि बाहर भी ताव-तेवर दिखाने से नहीं चूकता. तालिबान के हौसले इस कदर बुलंद हो रहे हैं कि उसने अमेरिका को धमकी दी है कि वह अपने ड्रोन को अफगानी वायु सीमा से बाहर रखे.

यह बात सही है कि तालिबान को वैश्विक स्तर पर स्वीकृति और सहयोग की दरकार है. यह सामूहिक मानवीयता का भी तकाज़ा है मगर असली संकट विश्वास बहाली का है और तालिबान को यह जिम्मेदारी लेनी ही होगी कि वह ऐसी नीतियां और कार्यक्रम अपनाएं जिससे अविश्वास की धुंध छंटने में मदद मिले. कुछ देश उनकी मदद को आगे भी आए हैं लेकिन अधिकाँश विकसित और लोकतांत्रिक रूप से विश्वसनीय देश अब भी असमंजस की स्थिति में हैं. भारत भी स्वयं को इसी समूह में रख रहा है. अफगानिस्तान में भारत के सहयोग से चल रहे कई परियोजनाओं का भविष्य अधर में है. भारतीय कूटनीतिज्ञ एक-एक कदम फूंक-फूंक कर रख रहे हैं. सबसे बड़ी चिंता अफगानी ज़मीन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ होने की है.

आने वाले वक़्त में तालिबान आधुनिक लोकतांत्रिक और समावेशी मूल्यों की कितनी कदर कर पाता है, इस पर पूरी दुनिया की निगाह है. अमेरिका और भारत सहित यूरोप के कई देशों ने साफ़ कह दिया है कि वो कथनी की बजाय करनी और उसके प्रभाव का इंतज़ार कर रहे हैं. स्थिति बेहतर होती दिखी तो राजनीति और कूटनीति के दरवाजे खोले जा सकते हैं. यहाँ यह कहा जा सकता है कि अगर तालिबान ने अपने बीते कल से सबक नहीं लिया तो आने वाले कल में इतिहास फिर दुहरा सकता है और 2001 की तरह ही तालिबान फिर पहाड़, जंगल और दर्रों की गुमनामी में वापस धकेला जा सकता है.

ये लेखक के अपने विचार हैं

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