भारतीय फ़िल्मों की नियति रही है कि अपने मनोरंजन और फूहड़ता का छाप तो समाज पर छोड़ता है किन्तु गंभीर फिल्मों का प्रभाव सांगठनिक विमर्श तक जाते – जाते दम तोड़ देता है. जब नब्बे के दशक में जॉन अब्राहम के ओडेसा ने फिल्मों से समाज को जोड़ने की कोशिश की तो लगा ये पहल देशव्यापी होगा और सिनेमा का एक सार्थक रूप देखने को मिलेगा.
दुर्भाग्यवश जॉन की मृत्यु के बाद ये संगठन और उसकी गतिविधि केरला में भी क्षीण पड़ती गई. अम्मा अरियन जब प्रदर्शित हुई तो सार्थक सिनेमा के हलकों में एक प्रयोगधर्मी फिल्मकार के प्रति आशा जगी लेकिन उनका स्वरूप अन्य प्रदेशों में अनुकरण करना इतना आसान नहीं था.
वामपंथी प्रदेशों में बंगाल के बाद केरला फिल्मों को लेकर बेहद सजग रहा. जॉन ने जिस तरह आवाम को सीधा फिल्मों से जोड़ने का काम किया वो वाकई काबिले तारीफ़ था. चैपलिन के फिल्मों से आम जनमानस को फ़िल्मों के समझने की प्रवृति को जागृत किया, उनसे एक – एक रुपया चंदा लिया और उन्हें बतौर किरदार अपनी फिल्मों से जोड़कर रखा.
सत्यजीत रे की पहली फ़िल्म भी अनुभवहीन कलाकारों को लेकर बनी थी लेकिन ये कहीं न कहीं उनके कम बजट की मज़बूरी रही थी. टली के निर्देशक विटोरियो डी सिका ने अपने बहुचर्चित फिल्म बाईसिकिल थीफ़ के लिए एक आम इंसान को चुना जो किसी जूता फैक्ट्री का मजदूर था. उस फ़िल्म का ये हीरो लैंबर्टो मैगियोरानी निर्देशक के लिए एक प्रयोग भर था हालांकि ये एक अद्भुत प्रयोग रहा. उस बेचारे हीरो के साथ जो बाद में हुआ वो बेहद गमगीन करने जैसा था. फ़िल्म से अचानक मिले ढ़ेर सारे पैसों से अभिभूत होकर उसने फ़िल्म की शूटिंग पूरी कर अपने परिवार के साथ छुट्टियों पर चला गया. जब लौटा तो वो एक मशहूर अभिनेता था.
फ़िल्म विश्व पैमाने पर काफी चर्चित रही. इसी फ़िल्म को देखकर सत्यजीत रे ने फ़िल्म का रास्ता अख्तियार करने को ठाना था. लांबर्टो का जब पैसा खत्म हुआ और काम मांगने उसी निर्देशक के पास गया तो उसने उसे साफ मना कर दिया और कह दिया कि अगर वो प्रोफ़ेशनल होता तो कतई फ़िल्म में नहीं लेता. उसका आम आदमी होना ही उसको ये किरदार दिलवा पाया. कई निर्देशकों के पास चक्कर काटकर जब उसे काम नहीं मिला तो थक हारकर वो अपनी पुरानी नौकरी पर वापिस जाने का फ़ैसला किया लेकिन वहां भी उसे निराशा हासिल हुई. फैक्ट्री वालों ने उसे यह कहते हुए लौटा दिया कि आप फ़िल्म के ज़रिए पैसे कमा चुके हैं और आपकी नौकरी किसी जरूरतमंद को ही दी जा सकती है.
भारतीय फ़िल्मों के दर्शकों ने जिस कदर दोस्ती फ़िल्म के दोनों अभिनेताओं को सालो ढूंढा और उनके बारे में कई मिथक खुद ही गढ़कर फैलाया उससे ये बात आसानी से समझ आती है कि भारतीय फिल्मों की रूपरेखा दर्शकों के ज़ायके के हिसाब से तय होती है. फिल्मों के प्रति भारतीय फिल्मकारों की मनोदशा ठीक वैसी ही है जैसे एक फैक्ट्री मालिक का होता है.
जब बाज़ार उपलब्ध हो जाता है तो फैक्ट्री गुणवत्ता से ज्यादा उत्पादन पर ध्यान देता है. हिंदी और साउथ के फिल्मों का बाज़ार इतना पसरा हुआ है कि कुछ सार्थक सिनेमा आकर कब उतर जाते हैं या वे आम दर्शकों के लिए उपलब्ध नहीं होते पता ही नहीं चलता है. जब तक सिनेमा का ग्लोरीफाय होना बन्द नहीं हो जाता , जब तक फिल्मी चकाचौंध और चमक दमक कम नहीं हो जाती फिल्मों की उपादेयता शून्य ही रहेगी और बौद्धिक विकास की जगह उस अप्राप्य को नहीं पाने की एक घोर निराशा जनमानस पर तारी रहेगी.
ऋत्विक घटक के अजांत्रिक के उस अंतिम दृश्य को याद कीजिए जब जगदल को उठाकर ले जाया गया और उसका दोस्त और मालिक उसके विछोह से व्यथित हो उठा.
एक मशीनी वस्तु के प्रति एक मानवीय प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति थी. वह व्यक्ति उस मशीन के अलावा इतना असामाजिक था कि उसे कभी सहज संवाद में नहीं दिखाया गया. उसकी दुनिया सिर्फ़ उसी मशीनी वस्तु के इर्द गिर्द रही. जब जगदल उसकी आंखों से ओझल हुआ तो अचानक ही उसके भोपुं जैसे हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी. जैसे जगदल अपनी मृत्यु शय्या से उठकर आ गया हो. एक छोटा बच्चा उस अवशेष भोपूं को बजाकर बिमल को चिढ़ा रहा है , उसके चेहरे पर एक मासूम हंसी है और विमल उसकी ओर एक प्यार भरे नज़रों से देखकर मुस्कुराता है. इस दृश्य से ऐसा अनुभूत हुआ जैसे बिमल एक लंबी नींद से उठकर यथार्थ के सम्मुख खड़ा है. जगदल को बेशक मोबाइल से तुलना करना अनुचित होगा किन्तु आज का पूरा समाज बिमल की तरह मोबाइल रूपी जगदल के बाहुपाश से बंध चुका है. उसके इर्द गिर्द लगभग सभी बिमल की अवस्था में है और भोपू बजाने वाले की आवाज़ इतनी क्षीण पड़ गई है कि शायद ही ये समाज इस नकली खुशी से बाहर आ पाएंगे.
फिल्मों से समाज जितना बच पाया था उसे वेब सीरीज ने बरबाद कर दिया. अच्छे कलाकारों को ऐसे वेब सीरीज से किनारा तो कर ही लेना चाहिए जिसमें रोमांच पैदा करने के लिए गालियां ढूंसी जाती है और बिक्री के लिए अव्यवहारिक रूप से सेक्स सीन डाले जाते हैं. हालांकि कुछ सार्थक सीरीज भी हैं जो लोगों को जागरूक करने का काम कर रहे हैं जैसे हाल में आई वैश्विक स्तर पर देखी गई द सोशल डायलेमा या हिंदी वेब सीरीज में जामताड़ा.
फ़िल्म अगर समाज को लेकर नहीं चल सकती या समाज में सकारात्मक बदलाव नहीं कर सकती तो उसे समाज को विद्रूप बनाने का भी कोई हक नहीं है. फ़िल्म अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति से समाज को स्वस्थ मनोरंजन दे, समाज के विद्रूपताओं को यथार्थपूर्ण ढंग से रखे, युवाओं को अकल्पनीय दुनिया में ना धकेले लेकिन ये सब पैसे कमाने वाले फिल्मकारों से संभव नहीं हो पाएगा, हमें ही समानांतर फिल्मों को तरजीह देकर समाज और आवाम को गंभीर बनाने का यत्न करना पड़ेगा. सिर्फ फ़िल्म उत्सवों और बौद्धिक संस्थानों तक सिमटने वाली फिल्मों के प्रति समझ और अभिरुचि को बढ़ाना होगा वरना ये आने वाली ज्यादातर फिल्में समाज को छिन्न – भिन्न कर देगी.