एक जड़ पड़े हुए मनुष्य के अंदर अपने होने का एहसास है फिल्म “आर्म चेयर”

बांग्ला फिल्मकारों की नई जमात में शामिल हुए इंद्रदीप दासगुप्ता मूलतः एक संगीतकार हैं और केदारा (आर्म चेयर) उनकी पहली फ़िल्म है. फ़िल्म देखकर कहीं भी यह एहसास नहीं होता है कि यह किसी नवसिखुए की पहली फ़िल्म है. इस फ़िल्म की मुख्य भूमिका में हैं प्रसिद्ध निर्देशक और अभिनेता कौशिक गांगुली। कौशिक गांगुली अपनी अद्भुत अभिनय क्षमता के लिए खूब जाने जाते हैं. उनकी दो फिल्में विजया और शंकर मुदी ने मुझे पहले भी बहुत प्रभावित किया था.

एक अर्ध वयस्क असफल व्यक्ति के एकाकी जीवन और उसकी उदासीनता उसे किस कदर दिन – ब – दिन खोखला कर रही है, फ़िल्म उसी के इर्द – गिर्द है. नरसिंह, बेहद मासूम इंसान जिन्हें अपनी असफलता की आत्म – स्वीकृति है. उनकी यह आत्म – स्वीकृति उनके परिवेश को उनके प्रति बेहद असंवेदनशील बना देती है. जिस घर में वे रह रहे हैं वो पुरानी मैली कुचैली धूल से सनी हुई वस्तुओं से भरी हुई है. जिस तरह अपनी असफलता को उन्होंने जड़ छोड़ दिया है, घर की वस्तुओं को भी उन्होंने कभी चमकाने की कोशिश नहीं की. उनमें एक खासियत भी है, वे हरबोला हैं.

हरबोला जो हरेक तरह की बोली निकाल सके. नरसिंह मानते हैं कि कला भी एक मनुष्य की तरह है, उसकी भी उम्र होती है, कला भी जर्जर होता है. कला भी बीमार पड़ता है और मर जाता है. फ़िल्म की शुरुआत में एक भ्रम पैदा होता है कि नरसिंह इस घर में अकेला नहीं है बल्कि उसकी दादी भी उसके साथ है. लेकिन ज्यों – ज्यों फ़िल्म आगे बढ़ती है ये भ्रम दूर होने लगता है. दरअसल हरबोला नरसिंह अपनी दादी के सान्निध्य में ही पला बढ़ा इसलिए उसकी हरेक गतिविधियां दादी के साथ बोलते बतियाते हुए थी.

नरसिंह का बेड टी से लेकर बाहर जाने तक दादी की सहमति और असहमति की बातें खुद नरसिंह अपने लिए दुहराता, सफाई देता फिर सवाल भी उठाता. मुहल्ले के कुछ लफंगे उसके हरबोलापन और उसकी असफलता पर कटाक्ष करके चिढ़ाता, नरसिंह निरुपाय और निरीह भाव से उनकी तरफ देखता और आगे बढ़ जाता. यहां तक कि घर में काम में सहायता करने वाली सेविका उसे ताने मारने का कोई भी मौका नहीं चूकती. एक पड़ोसी गाहे बगाहे आकर उन्हें उनकी नाकामयाबी पर सुनाकर चला जाता. मुहल्ले के क्लब वाले लड़के उन्हें धमकाकर उनका ही बरामदा हथियाना चाह रहे थे. सिर्फ़ एक मात्र पड़ोसी जिसका कबाड़ी का काम था उनके प्रति सहृदयता का भाव रखता था. उस कबाड़ी की दशा भी नरसिंह से ज्यादा अलग नहीं थी. उसने यह मान लिया था जिस तरह लोग अपने घरों की पुरानी चीज़ों के प्रति मोह नहीं पालते, दुनिया भी उसे उसी लायक समझती है.

नरसिंह कभी कभार उसी के पास अपने दिल की बात रखता था. उनके अकेलेपन ने उन्हें स्वयं में ही इतना मुग्ध रखा था कि लोगों की बेरुखी उन्हें उतनी तल्ख़ नहीं लगती थी.

एक छोटी कहानी के फ़िल्म में भाव और संवेदना के दृश्यों की जगहें खूब बनती है. धुंधलके कमरे की सीलन भरी दीवारें और एक हारा हुआ आदमी जो खुद अपने अतीत के पात्रों से संवाद करता है. लेकिन एक क्षीण उम्मीद टेलीफोन की अनुत्तरित घंटी के बजने और क्रेडल पर बेबसी से रख देने के बीच यह भी पता चलता है कि नरसिंह विवाहित है और एक बच्चे का पिता भी है. फ़िल्म में इस बात का ज़िक्र करना ज़रूरी नहीं लगता कि उसकी पत्नी ने उसका साथ क्यों छोड़ा होगा.

कभी बातचीत में नरसिंह ने अपने कबाड़ी मित्र से कहा था कि अगर उसे कोई आर्म चेयर (केदारा) मिले तो अवश्य ला दे. संयोगवश पड़ोस के जमींदार घर के माल असबाब सस्ते दामों में बिक रहे थे तो कबाड़ी ने नरसिंह के लिए एक आर्म चेयर ला दिया था. फ़िल्म इसी आर्म चेयर को लक्षित कर बनाया गया. नरसिंह जब पहली बार आर्म चेयर पर बैठा तो उसका आत्मविश्वास लौटने लगा. उसके अंदर एक ताक़त और स्फूर्ति का संचार शुरू हो गया. एक जड़ पड़े हुए मनुष्य के अंदर अपने होने का एहसास जाग उठा.

सत्ता जब निरंकुश हो और जनता जब काहिल होकर विरोध छोड़ दे तब भी उसे संविधान पांच साल बाद उसके अधिकार का एहसास दिलाता है. नरसिंह उस आर्म चेयर से हासिल अपनी ताक़त से अपने उन तमाम प्रताड़ित करने वालों को सबक सिखाता है. जायज़ विरोध के बगैर एक मनुष्य अपनी मनुष्यता की सत्ता ही खो देता है. नरसिंह उस आर्म चेयर पर बैठकर वो तमाम फैसले लेता है जिसे लेने के विषय में वो कभी सोच भी नहीं सकता था. बेशक उसकी दुनिया एकाकी है लेकिन उसके जीवन में अनावश्यक प्रवेश को रोकने का उसे पूरा अधिकार है. फ़िल्म अपनी कहानी से ज्यादा सांकेतिक हो उठती है. यह फ़िल्म जैसे चुपके से फासीवादी राजनीति को उधेड़कर जनता को केदारा सौंप देना चाहती है.

आवाम के भीतर जो नरसिंह दब्बू बनकर बैठा है उसे झिंझोड़कर उठा देना चाहता है. अमूमन ऐसी फ़िल्मों में संगीत इतनी मद्धिम पड़ जाती है कि उसकी चर्चा का कोई स्थान नहीं बचता है फिर भी यह जानना रोचक है कि एक संगीतकार फ़िल्म निर्देशक की इस फ़िल्म का संगीत अरिजित सिंह ने दिया है. लो लाइट का प्रयोग ज्यादा होने की वज़ह से फिल्मांकन के कठिनाई को बखूबी समझा जा सकता है फिर भी सिनेमेटोग्राफर सुभांकर भर और एडिटर सुजॉय दत्ता रॉय के काम को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है.

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