बाज़ार का हाथ ‘विनिमय’ का हाथ नहीं है, अमानवीय ‘जमाखोरी’ का हाथ बन चुका है

खेती-किसानी के मुद्दों को पीछे धकेल देने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह मुद्दा लोकप्रिय राजनीतिक विमर्श में एक बार फिर लौट आया है. मसला यह है कि खेती-किसानी की बात करते हुए भारतीय शहरी मध्यवर्ग अतीत व्यामोह में डूबकर बहुत जल्दी रोमांटिक होने लगता है. यह रेखांकित करने की जरूरत है कि यह भी अन्य मुद्दों की तरह वर्तमान का मुद्दा है, अतीत का नहीं.

कुछ विसंगतियों पर ध्यान दें:

1. यदाकदा कुछ उत्पादों को छोड़कर एक तरफ जमीन के उत्पाद के मूल्य बेतहाशा गिर रहे हैं तो दूसरी तरफ जमीन का बाज़ार भाव बेलगाम बढ़ रहा है. न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी की गारंटी हो जाए तो इस अनिश्चितता से उबरने में मदद मिलेगी.

2. इस विसंगतिपूर्ण गुत्थी को अगर आप टेक्स्टबुक समझ के आधार पर सुलझाने की कोशिश करेंगे तो चट से कह देंगे कि खेती की तुलना में औद्योगिक उत्पादन के लिए ज़मीन की उत्पादकता अधिक है इसलिए उसका बाज़ार भाव बढ़ रहा है. लेकिन ठहरिए…

3. किसानों के खेत अकसर उद्योग लगाने के लिए नहीं खरीदे जा रहे हैं. इसके विपरीत जिन जमीनों पर उद्योग हैं वहाँ से उद्योग उजड़ रहे हैं. मुम्बई और अहमदाबाद के कपड़ा मिल का उदाहरण उठाकर देख लीजिए. सांगानेर के रंगाई का काम देख लीजिए. पुराने उद्योगपति जिन्हें उद्योग चलाने के लिए रियायती दर पर ज़मीनें दी गई थीं वे आज अपने उद्योग से ज्यादा रियल स्टेट में रूचि लेने लगे हैं. मुम्बई जैसे महँगे शहर में गोदरेज के पास सैकड़ों एकड़ खाली ज़मीन पिछले अनेक दशकों से यूँ ही पड़ी हुई हैं- कोई नया उद्योग नहीं लग रहा है.

4. ज़मीन के उत्पादों की कीमत उत्पादक-किसानों को अगर दो रूपए प्रति किलो मिल रहा है तो उपभोक्ता को बीस-तीस रुपए प्रति किलो देना पड़ रहा है. किसानों की ज़मीन गोदरेज के पास रियायती दर पर चली जा रहीं हैं, लेकिन गोदरेज कंपनी में उसके बेटे-बेटियों को नौकरी नहीं मिल पा रही हैं. और जाहिर है कारण सिर्फ उनके पास कौशल और शिक्षा की कमी ही नहीं है, गोदरेज उस ज़मीन पर औद्योगिक उत्पादन कर ही नहीं रहा है, किसान तो कर्ज लेकर हो या जैसे भी हो अपने बच्चों को इंजीनियरिंग कॉलेज भेज ही रहा है.

उसके बच्चे-बच्चियों को अगर शहर में छोटी-मोटी नौकरी मिल भी जाए तो रहने को रिहायश उसे मयस्सर नहीं होगा क्योंकि उसी के ज़मीन पर बने फ्लैट का दाम उसके पहुँच से बाहर होगा. फ्लैट का दाम उसके पहुँच से बाहर क्यों होगा, क्योंकि घर लोग अब रहने के लिए नहीं, निवेश के लिए खरीद रहे हैं.

5. फिर कौन है जो कृषि और उद्योग के बीच, ज़मीन के उत्पादक और उपभोक्ता के बीच खड़ा है? टेक्स्टबुक समझ कहती है कि इनके बीच बाज़ार के ईश्वरीय अदृश्य हाथ को होना चाहिए.

6. लेकिन हकीकत यह है कि बाज़ार का हाथ ‘विनिमय’ का हाथ नहीं है, अमानवीय ‘जमाखोरी’ का हाथ बन चुका है.

हमारे जीने के लिए जो भी संसाधन क्रिटिकल हैं- जैसे जमीन, पानी आदि. दुनिया भर में बाज़ार उसकी जमाखोरी और सट्टेबाजी में व्यस्त हैं और दुनिया भर में लोग उस जमाखोरी से त्रस्त हैं. खेती के उत्पादन की भी बात करें तो उत्पादक और उपभोक्ता के बीच आज ‘वायदा कारोबारी’ हैं. आपको पता ही है कि खाद्य तेल जैसे कृषि उत्पादों के धंधे में बड़े उद्योगपति उतर चुके हैं.

7. भोजन, आवास आदि कुछ बुनियादी जरूरतें है जिन्हें दाँव पर नहीं लगाया जा सकता है. कृषि उत्पादक और उपभोक्ता के बीच संस्थाबध्द वितरण की जरूरत है. कितनी और कौन सी ज़मीन खेती के लिए रखें और कौन सी उद्योग के लिए इसे भी बाज़ार और सट्टेबाजी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.

8. मुश्किल यह है कि राज्य जब ऐसी संस्थाएँ खड़ा करता है तो उसमें भ्रष्टाचार की गुंजाइश रहती है. भारत में पिछले दो-तीन दशकों से (और पश्चिम में रीगन और थैचर के बाद) आम लोगों के मन में यह धारणा बिठाने की कोशिश हुई कि खुला बाज़ार राज्य की संस्थाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार का विकल्प है.

आज यह कहने का समय आ गया है कि राज्य के भ्रष्टाचार का विल्कप नागरिक सक्रियता है, बाजारू सट्टेबाजी नहीं. भ्रष्टाचार से लड़ने का रास्ता’ सूचना के अधिकार’, ‘पब्लिक ऑडिट’ आदि से होकर निकलता है.

खेती-किसानी से जुड़ी समस्यायों के बारे में नीतिगत स्तर पर तो सोचना ही पड़ेगा, व्यापक राजनीतिक अर्थशास्त्र के स्तर पर भी सोचने की जरूरत पड़ेगी. खेती-किसानी से जुड़े मुद्दों में एक और महत्त्वपूर्ण मुद्दा है जमीन का वितरण. जमीन के वितरण के बारे में किसी अगले पोस्ट में….

ये लेखक के निजी विचार है.

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