कोरोना काल की त्रासदी का सफरनामा है 1232km

साल 2021 के आखिरी दिन 31 दिसंबर की शाम खबर आई कि कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन के मद्देनजर कुछ पाबंदियों के साथ ही नए साल 2022 का स्वागत होगा. ओमिक्रॉन के बढ़ते मामलों के चलते देश के कई राज्यों में नाइट कर्फ्यू या यूं कहें तो एक तरह से आंशिक लॉकडाउन लगा दिया गया है मगर सरकार की नजर में कुछ जगहों पर लापरवाहियां अब भी बदस्तूर जारी हैं.

माना जा रहा है कि ओमि‍क्रॉन वैरिएंट का कम्यूनिटी स्प्रेड भी शुरू हो गया है और इसलिए पाबंदियां भी सख्त होती जा रही हैं. संपूर्ण लॉकडाउन की आहट भी सुनाई दे रही है. ये वही आहट है जो मार्च 2020 में एक तूफान की तरह दुनिया भर के देशों में दाखिल हुई थी और लाखों लोगों की जिंदगी को जहन्नुम बना दिया था. कोरोनो काल की उस पहली त्रासदी में भारत में लाखों क्या करोड़ों लोगों की नौकरियां छिन गईं, लाखों लोग घर बैठ गए और हजारों तो लॉकडाउन में दूर-दराज के शहरों से अपने गांव लौटते हुए मौत का शिकार हो गए. और जब दूसरी लहर आई तो उसने भी हजारों लोगों की जिंदगियों को लील लिया.

महामारी से लड़ने के लिए भारत की तैयारी

बीते दिनों वैश्विक संस्था ‘ग्लोबल हेल्थ सिक्योरिटी इंडेक्स’ (जीएसएस) की रिपोर्ट आई जिसमें महामारी से लड़ने के इंतजाम के मामले में भारत का रैंक 66 हो गया है जबकि उसके पहले वह 57 पर था. जाहिर है, इस रैंक के आधार पर देखें तो भारत तीसरी लहर से लड़ने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं है. जहां सरकार यह कह रही हो कि दूसरी लहर में कोई हताहत नहीं हुआ, वहां इस रैंकिंग का कोई अर्थ ही कहां रह जाता है.

महामारी और लॉकडाउन की दोहरी मार

साल 2020 में 24 मार्च को शाम करीब आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 21 दिनी लॉकडाउन का ऐलान किया कि महज चार घंटे बाद यानि 25 मार्च, 2020 से देशभर में संपूर्ण लॉकडाउन होगा, जो आगे तीन बार बढ़कर 31 मई तक जारी रहा. 25 मार्च से 31 मई के बीच का यह वक्त किसी त्रासदी से कम नहीं था. कोरोना की एक त्रासदी तो दुनिया भर में फैली हुई थी ही, भारत में एक त्रासदी के बीच लॉकडाउन एक दूसरी बड़ी त्रासदी की तरह था, जिसके चलते देश पूरी तरह ठप्प हो गया.

कल-कारखाने, कंपनियां, फैक्ट्रियां, दुकानें, मॉल सब बंद हो गए. ट्रेन और पब्लिक ट्रांस्पोर्टेशन तक बंद हो गया. सब कुछ बंद, जो जहां है वहीं रहने के लिए अभिशप्त. यही वह बंदी थी जिसने दूसरी बड़ी त्रासदी को जन्म दिया, क्योंकि जिसके पास न पैसा होगा न काम, उसे तो भूख मार ही डालेगी न!

इसी त्रासदी की विभीषिका को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित मशहूर फिल्मकार विनोद कापड़ी ने कैप्चर किया अपनी किताब ‘1232km : कोरोना काल में एक असंभव सफर’ में. सात साधारण लोगों के असाधारण जज्बे की कहानी कहता यह रिपोर्ताज कोरोना काल की न सिर्फ त्रासदी को बयान करता है, बल्कि मानवीय संवेदनाओं की क्षीणता को भी दिखाता है.

प्रशासन की उपेक्षा और खुद की लाचारी

‘1232km’ का यह असंभव सफर बिहार के सात प्रवासियों द्वारा साइकिल से उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से शुरू होकर बिहार के सहरसा के उनके गांव तक पूरा होता है. सात दिन, सात रात और सात प्रवासी- ऐसा लगता है यह किसी फिल्म की कहानी है, मगर एक कड़वी हकीकत है. जहां घर से बाहर कदम रखने तक की इजाजत नहीं थी, वहां उन सात साइकिल सवार प्रवासियों ने उन सात दिनों और सात रातों में क्या कुछ नहीं झेला.

प्रशासनिक उपेक्षाओं से लेकर अपनी खुद की लाचारी तक, गरीब-मजबूर होने के इंतेहाई दर्द से लेकर पुलिस की पिटाई तक, भय-थकान-भूख के इम्तिहान से लेकर अपमान की हद तक, यानी हर मुसीबत सहते हुए वो अपने घर पहुंचे. हालांकि प्रधानमंत्री ने कहा था कि यह फैसला देश और उसके हर नागरिक को सुरक्षित रखने के लिए किया गया है. प्रधानमंत्री का वादा था कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें गरीबों की मदद के साथ यह भी सुनिश्ति करेंगी कि सभी आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति बगैर किसी रुकावट के जारी रहेगी. लेकिन सरकारों ने अपने वादों को पूरा नहीं किया और लॉकडाउन ने एक त्रासदी का रूप ले लिया.

इस मुश्किल सफर के बारे में सुनकर ‘द हिंदू’ अखबार के पूर्व प्रधान संपादक इस किताब की भूमिका लिखते हैं-

‘1232km एक असाधारण कथा है, लेकिन अपनी सामान्यता के चलते यह उस राष्ट्रीय स्तर की एक बड़ी आपदा का आईना है- उस यंत्रणा, पीड़ा, निराशा और आघात का जिससे लाखों मजदूर लॉकडाउन के कारण गुजरे.’

जाहिर है, एक लोकतांत्रिक नागरिक होने के नाते हमें यह सोचने पर मजबूर होना ही चाहिए कि किस तरह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा की उपेक्षा हमारी सरकारें करती हैं और हम लाचार होकर रह जाते हैं. सात प्रवासियों की यह तो एक सच्ची कहानी है जिसे एक फिल्मकार ने दर्ज किया है, ऐसी न जाने कितनी ही भयानक त्रासदी का शिकार कहानियां हुई होंगी जो दर्ज होने से वंचित रह गईं.

कैमरे पर कैद करने की आवश्यकता क्यों थी?

‘1232km’ के असंभव सफर को दर्ज करने के लिए फिल्मकार विनोद कापड़ी अपने वैगन-आर से प्रवासियों के पीछे-पीछे चलते रहे और कार की खिड़की से उनके दर्द भरे सफर को अपने कैमरे और मोबाइल में दर्ज करते रहे. जाहिर है, सात लोगों की त्रासदी को कैमरे में कैद करते हुए एक संवेदनशील फिल्मकार का जमीर उससे यह पूछ सकता है कि चंद लोगों की त्रासदी को क्या वह अपने मौके के लिए रिकॉर्ड कर रहा है? लेकिन फिर विनोद कापड़ी के मानस ने यह जवाब दिया कि अगर उनकी त्रासदी को दर्ज नहीं किया गया तो दुनिया को उनकी कड़वी सच्चाई के बारे में पता नहीं चल पाएगा.

यह सच भी है, क्योंकि विनोद कापड़ी अगर पिघल जाते तो सिर्फ सात लोगों की ही मदद कर पाते, लेकिन देश के बाकी हिस्सों से जो अपने घर के लिए पैदल निकल पड़े थे, उनकी मदद का क्या? यह किताब इस सवाल को भी दर्ज करती है कि किस तरह से सरकार और प्रशासनिक उपेक्षाओं ने नागरिक मूल्यों की हत्या कर दी और उन्हें बेमौत मरने के लिए लाचार छोड़ दिया. वो तो भला हो सोनू सूद का जिसने लाखों प्रवासियों को उनके घर तक पहुंचाने का इंतजाम किया, नहीं तो कितनों की जानें जातीं, इसका अंदाजा करना भी मुश्किल हो जाता.

vinod kapdi
विनोद कपड़ी अपनी पुस्तक के साथ || फोटो- फ़ेसबुक

‘1232km’ की इस आपबीती पर डिज्नी हॉटस्टार पर ‘1232kms’ नाम से फिल्म भी है. फिल्म देखते हुए यही महसूस होता है कि विनोद कापड़ी को खूब रोना आया होगा जब उन्होंने प्रवासियों का दर्द रिकॉर्ड किया होगा. किताब में भूमिका से पहले मशहूर गीतकार-फिल्मकार गुलजार साहब की एक नज्म भी है, जिसे पढ़कर आंखें भर आती हैं. विनोद कापड़ी की यह पहली किताब अंग्रेजी, हिंदी, मराठी के साथ ही तमिल, तेलुगु और कन्नड़ में भी छप चुकी है. बिहार ही क्या, देश के हर पाठक को यह किताब जरूर पढ़नी चाहिए और अपने नागरिक होने के दायित्य को भी समझना चाहिए.

1232 kms का ट्रेलर

किताब : 1232km : कोरोना काल में एक असंभव सफर

लेखक : विनोद कापड़ी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन (सार्थक)

मूल्य : 199 रुपये (पेपरबैक)

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