तंजानिया का वो शख्स, जिन्हें नोबेल नहीं, प्यार और सम्मान मिला

अरविंद शेष

तंजानिया को अब कुछ समय तक अब्दुलरज़्जाक को मिले नोबेल के लिए जाना जाएगा! अब्दुलरज़्जाक जी को खूब बधााई!

हालांकि मेरे जैसे चंद लोग तंजानिया को जॉन मागुफुली के मार्च, 2020 के बाद उनके मरने तक के लिए जानते रहेंगे! उससे पहले मैं उनके बारे कुछ नहीं जानता था! जॉन मागुफुली रसायन विज्ञान के प्रोफेसर थे और तंजानिया के राष्ट्रपति थे!

कोरोना की पोपुलर थियरी और प्रैक्टिकल के बरक्स उन्होंने अपने कॉमन सेंस से प्रयोग के स्तर पर इसकी हकीकत की पड़ताल की थी और तंजानिया की जनता को कोरोना के पोपुलर कहर से बचाया था!

वे अपनी जनता को वैसे ही बचाए रखते, मगर संदिग्ध हालात में यह खबर आई कि उनकी ‘मौत’ हो गई! वह ‘मौत’ दरअसल मौत ही थी या हत्या, अब कभी पता नहीं चलेगा!

लेकिन सामूहिक विवेक के अपहरण के दौर में उन्होंने विवेक या कॉमन सेंस को बचाए रखने की हिम्मत का जो मॉडल सामने रखा था, उसकी मिसाल मिलनी मुश्किल है!

मेरे जैसे चंद लोगों की नजर में वे नोबेल टाइप किसी पुरस्कार से बहुत ऊंचे हैं!

दुनिया के सबसे बड़े नोबेल या किसी भी पुरस्कार की हैसियत मेरी नजर में वैसे भी पोलिटिकल सेटिंग या मेरिट हड़बोंग से ज्यादा नहीं है!

बहुत पहले अनिल चमड़िया सर ने दो पंक्तियां लिखी थीं, वह मुझे याद रह गईं- ‘जो दिखता है, वह बिकता है! जो बिकता है वह दिखता है!’

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