खुद पर भरोसा ही है मनोवैज्ञानिक समस्याओं की सबसे अचूक दवा

मैं मनोचिकित्सक नहीं हूं. मानसिक स्वास्थ्य के बारे में मेरी कोई विशेषज्ञता भी नहीं. यहां मैं जो कुछ भी लिख रहा हूं वह मेरे निजी अनुभव भर हैं.

मैं 12-13 साल की उम्र से ऑब्सेसिव कम्पलसिव डिसार्डर यानी कि ओसीडी से पीड़ित रहा हूं. यह बात मुझे उम्र के 21वें पड़ाव पर पहली बार तब पता चली, जब मैं एक मनोचिकित्सक से मिला. इन बीते सालों में मैं इन डिसॉर्डर को अनजाने में झेलता रहा हूं.

जब मैं पढ़ाई में पिछड़ने लगा, तब मुझे लगा कि मेरे दिमाग के साथ कुछ गड़बड़ है. इसके बाद मैंने विशेषज्ञ से मिलने का फैसला किया.

आज मैं डिप्रेशन और मनोरोग के बारे में थोड़ा-बहुत जानने लगा हूं. अब मुझे लगता है कि मैं बीते सालों में महीनों डिप्रेशन में बिताया है. जिन्दगी में कई ऐसे मौके भी आए, जब मैंने आत्महत्या करने के बारे में सोचा.

आज मैं 30 साल का हूं. पिछले 9-10 सालों में कई बार मनोचिकित्सक से भी मिल चुका हूं. लेकिन, पूरी तरह ठीक नहीं हूं. हां, इतना ज़रूर है कि अपनी समस्याओं को समझता हूं. उसे मैनेज कर पाता हूं और अपने काम पर इसे हावी नहीं होने देने में अक्सर कामयाब रहता हूं.

कल, जोश टॉक पर एक 24 साल की डिस्लेक्सिया पीड़ित लड़की की आपबीती सुन रहा था. वह तीन साल की उम्र में अनाथ हो गई. सात साल की उम्र में उसके साथ रेप हुआ. 16-17 साल की उम्र तक कई बार उसे यौन हिंसा से गुजरना पड़ा. आज वह 24 साल की है. ऐसे भयानक अनुभवों के साथ हजारों लोग जी रहे हैं. उनसे मुकाबला कर रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं.

मैं कुछ ओसीडी सपोर्ट ग्रुप का सदस्य भी हूं. वहां मौजूद साथियों के अनुभव बहुत डराने वाले होते हैं. मैं कुछ हद तक अनुमान लगा सकता हूं कि ऐसे लोग किन हालातों से गुजर रहे होंगे. मेरी तकलीफ और मेरा संघर्ष तो उनके सामने कुछ भी नहीं है. मुझे ऐसे हजारों लोगों से प्रेरणा मिलती है जिनसे मैं बेहतर स्थिति में हूं.

बावजूद, मैं अपने अनुभव शेयर करना चाहूंगा. शायद, इससे किसी साथी को मदद मिल सके. मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में कई तरह की धारणाएं मौजूद हैं. प्रगतिशील लोग मानते हैं कि इसे तोड़ना ज़रूरी है. जब मैं अपनी पहचान के साथ अपना अनुभव शेयर कर रहा हूं, तो कहीं न कहीं उन धारणाओं को तोड़ने में भी अपना योगदान दे रहा हूं. यह मेरे निश्चय की परीक्षा भी है और मेरे चाहने वालो की स्वीकार्यता की परीक्षा भी होगी.

ओसीडी को वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन यानी डब्लूएचओ ने उन टॉप दस बीमारियों की सूची में रखा है जो लोगों को अपंग बना सकते हैं. असल में ओसीडी बीमारी नहीं है, एक डिजॉर्डर है. डिजॉर्डर उन समस्याओं को कहा जाता है जिनके वजहों का ठीक-ठीक अंदाजा और पक्का इलाज मेडिकल साइंस अबतक नहीं ढ़ूढ़ पाया है. आप इस तरह की समस्याओं को पूरी तरह से ठीक नहीं कर सकते. आप इन्हें मैनेज करते हैं.

पहली बार मनोचिकित्सक से मिलने के बाद मैं निश्चिंत हो गया कि अब मेरी समस्या छूमंतर हो जाएगी. मैंने अपनी तरफ से कोई प्रयास किया होऊं वह याद नहीं. वो अच्छी डॉक्टर थीं. मुझे उनकी सलाह से फायदा मिला था.

बीते सालों में मैं कुछ दूसरे मनोचिकित्सक से मिल चुका हूं. उनमें कुछ अयोग्य भी थे और कुछ मुझे मरीज को फांस कर रखने वाले और पैसा ऐंठने वाले लगे.

मुझे लगता है कि मनोचिकित्सक का काम सलाह देना है. यह आपके विवेक पर है कि आप उनमें से किस सलाह ठीक मानते हैं और उसपर कितना अमल करते हैं. मनोचिकित्सक के पास कोई जादू की छड़ी नहीं होती है.

साइंस के इस हिस्से में कुछ ज़्यादा काम भी नहीं हुआ है. लिहाजा, मनोचिकित्सक के पास भी बेहद कम जानकारी होती है. डॉक्टर या मनोचिकित्सक आपको उलझन से निकालने में आपकी मदद कर सकते हैं. लेकिन समस्या से निकलने के लिए रास्ता हमें खुद ही बनाना होता है.

पिछले महीने मैं एम्स, दिल्ली के एक मनोचिकित्सक से मिला. मुझे वहां पर अबतक का सबसे बेहतर अनुभव मिला. एम्स के बाकी विभागों की तरह वहां पर भीड़ नहीं होती और आसानी से ऑनलाइन अप्वाईंटमेंट मिल जाता है. शायद, इसकी वजह मानसिक स्वास्थ्य को लेकर अवेयरनेस की कमी हो. वहां, ज़रूरत पड़ने पर काउंसलिंग की सुविधा भी मिलती है जो मुफ़्त है. यह प्राइवेट क्लिनिक में 1500 से 4000 रुपया प्रति सेशन तक हो सकता है. चूंकि, मैं पहले से किसी साइकॉलोजिस्ट से संपर्क में हूं इसलिए एम्स के डॉक्टर ने अपना साइक्लॉजिस्ट नहीं बदलने की सलाह दी है.

डॉक्टरों और अस्पतालों को लेकर मेरे खराब अनुभव भी रहे हैं. लेकिन, उसके बारे में चर्चा करने का कोई तुक नहीं बनता है. आमतौर पर मनोचिकित्सक पहले किसी साइक्लोजिस्ट से मिलने की सलाह देते हैं. जब आप ठीक अनुभव नहीं कर रहे हों, मनोचिकित्सक की सलाह ज़रूर लें. अपने लिए मनोचिकित्सक का चुनाव करने से पहले उनके बारे में पूरी जांच परख कर लें.

अगर फायदा न हो रहा हो तो कभी भी मनोचिकित्सक बदल सकते हैं. आमतौर पर साइक्लोजिस्ट अपने जान-पहचान वाले साइक्लोजिस्ट का नाम सुझाते हैं. इस तरह के ट्रैप में न पड़ें. अपने स्वविवेक पर भरोसा करें.

मैं जब भी परेशान होता हूं, इंसानी दिमाग पर भरोसा करता हूं. मुझे लगता है कि अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करके हम किसी भी समस्या का हल निकाल सकते हैं. यकीन मानिए, मुझे ज़्यादातर समस्याओं का हल अपने दिमाग पर भरोसा करने की वजह से मिला है. आज हमारे पास हर तरह के रिसॉर्स उपलब्ध हैं. आप गूगल कीजिए कुछ न कुछ मिल ही जाएगा. हां, आपको जो सलाह गूगल के सर्च रिजल्ट से मिलती है वह आपके काम की हो यह ज़रूरी नहीं है. मैंने अपनी समस्या को सुलझाने में तकनीक का खूब इस्तेमाल किया है. इसे मैं कभी और विस्तार से बताऊंगा.

मुझे लगता है हमें बहुत सी किताबें या टेड-टॉक या लेख पढ़ने की ज़रूरत नहीं है. हाल ही में मैंने गांधी जी की जीवनी खत्म की. गांधी जी अपनी किताब, सत्य के प्रयोग में लिखते हैं कि उन्होंने बहुत थोड़ी किताब पढ़ी. लेकिन वो हर पढ़ी गई बात को परखते थे और फिर अमल में लाते थे. हमें किताबें या टेड-टॉक या लेख या सलाह के मामले में भी ऐसा ही होना चाहिए. सेल्फ़ हेल्प बुक मददगार हो सकती हैं. चाहें एक पन्ना ही पढ़ें. लेकिन, गांधी की तरह उसे परखें और अपने जीवन में उतारें, तो यह काम की हो सकती है.

ये लेखक के निजी विचार है. 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *