संत कबीरदास कहते हैं-
जहवां से आयो अमर वह देसवा
पानी न पान धरती अकसवा, चाँद न सूर न रैन दिवसवा
दास कबीर के आए संदेसवा, सार सबद गहि चलौ वहि देसवा।
कबीरदास का ये जो अमर देसवा है, इसमें एक समतामूलक और मानवतावादी समाज की कल्पना है. एक दूसरे नज़रिए से देखें तो ऐसी कल्पना कि अगर सब कुछ लुट भी जाएगा तब भी अपना गांव-जवार हमें अपना लेगा.
इस अवधारणा के और विस्तार में जाएं तो हम देखेंगे कि कोरोना के संकटकाल में लॉकडाउन की विभीषिका को झेलते हुए अपने नागरिक अधिकारों से वंचित होकर जो लोग बड़े-बड़े शहरों से भूखे-प्यासे खुली सड़क पर पैदल ही घर वापसी कर रहे थे.
उनके लिए उनका गांव-जवार ही वह अमर देसवा रहा होगा. लेकिन आज एक लोकतांत्रिक देश का नागरिक अधिकार जिस वंचना से होकर गुजर रहा है उससे समाज का समतामूलक हो पाना प्रश्नेय हो जाता है.
मानव-निर्मित कोरोना संकट के दौरान एक बीमारी से भी बड़ा संकट एक तरह से मनुष्यता का संकट देखने को मिला. लोगों ने एक दूसरे की मदद की, जिससे लगा कि मनुष्यता अभी बची हुई है. लेकिन जिसकी जिम्मेदारी थी उसने देशभर के नागरिकों को बहुत निराश किया.
नागरिक अधिकारों की वंचना का एक खुला षड्यंत्र अब भी चल रहा है लेकिन विडंबना यह है कि सत्ता के समर्थन में अंधे बने लोग इस षड्यंत्र को देख-समझ नहीं पा रहे. ऐसा लगता है विषम परिस्थिति बनाकर नागरिक सत्ता की दीवार को दरकने के लिए मजबूर बना दिया गया है और उसी को व्यवस्था के तिलिस्म में तब्दील कर दिया गया है जिसमें मनुष्यता ही गौण हो जाती है.
व्यवस्था के इस तिलिस्म में हाशिये पर पड़े लोग मनुष्य होने तक की अनिवार्यता से भी महरूम कर दिए गए हैं. यह व्यवस्था यहीं तक नहीं रुकती, बल्कि महज जीने के लिए कुछ वजन अनाज का लालच देकर उनसे रोजगार के अधिकार तक छीन लिए गए हैं.
एक तरह से लोगों में डर बनाकर उनको नियंत्रित (कंट्रोल) करने की राजनीति जारी है. व्यवस्था के इसी तिलिस्म में नागरिकता का आख्यान लिखा है कथाकार प्रवीण कुमार ने अपने उपन्यास ‘अमर देसवा’ में, जिसका कस्बाई कथानक पूरे देश पर सार्वभौमिकता से चस्पा होता है.
सार्वभौमिकता एक गहरा बोध है जिसका फलक बहुत बड़ा होता है. इसलिए सार्वभौमिकता अगर किसी एक छोटे से गांव या कस्बे को लेकर हो तो यह बहुत मुमकिन है कि वह देश-राष्ट्र की पूरी परिधि को छू जाए.
कोरोना से उपजी विपरीत परिस्थिति में देश के सुदूर किसी हिस्से में जो कुछ घट रहा होता है वह एक देशकाल में इतना सार्वभौमिक हो सकता है कि उससे पूरे देश की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है.
इस ऐतबार से देखें तो प्रवीण कुमार का उपन्यास ‘अमर देसवा’ कस्बाई कथानक लिए सार्वभौमिकता का दस्तावेज है. सरकारी व्यवस्था का नंगानाच दिखाते इस दस्तावेज में मनुष्यता को मुखाग्नि देकर एक नागरिक की सत्ता को गौण कर दी गई है.

राजकमल प्रकाशन से आए इस उपन्यास में प्रवीण कुमार कहते हैं-
आज नागरिकता का संकट नहीं मनुष्यता का संकट है. मनुष्यता नागरिकता को तो बचा सकती है, पर नागरिकता मनुष्यता को बचाने से रही.
जाहिर है, हम मनुष्यता को बचाकर हर उस संस्था को बचा सकते हैं जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की वाहक बनें. नागरिकता भी उनमें से एक है. लेकिन एक मनुष्य के रूप में हम इस कदर दयनीय बना दिए गए हैं हम कुछ भी नहीं बचा सकते, न मनुष्यता न ही नागरिकता. और सच तो यही है कि मनुष्य बचेगा तभी नागरिक भी बचेगा.
लोकतांत्रिक देश में जनकल्याणकारी नीतियों को भ्रष्ट व्यवस्था और राजनीति की क्रूरता की भेंट चढ़ा दी गई है. अमेरिकी राजनीतिज्ञ हेनरी किसिंजर ने कहा है-
“अगर आप तेल पर कंट्रोल कर लेते हैं तो आप देशों पर कंट्रोल कर लेंगे। अगर आप अनाज या खाने-पीने के सामानों पर कंट्रोल कर लेते हैं तो आप लोगों पर कंट्रोल कर लेंगे.”
क्या यह उक्ति अमर देसवा में बताए गए व्यवस्था के तिलिस्म को उजागर नहीं करती है? करती है और पूरे दम-खम के साथ करती है.
लॉकडाउन लगाकर लोगों को सड़क पर बेसहारा छोड़ दिया गया और फिर सरकारों द्वारा झूठ पर झूठ बोला गया कि उन्होंने देश के नागरिकों की रक्षा-सुरक्षा का पूरा खयाल रखा.
लाखों मर गए, लेकिन उनके आंकड़े आज तक सरकार उपलब्ध नहीं करा पाई कि कहीं इसके लिए मुआवजा न देना पड़े. अंधसत्ता में राजनीतिक नागरिकों ने अपनी मनुष्यता खो दी है.
बिहार के भोजपुर जिले में जन्मे और वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय के सत्यवती कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर प्रवीण कुमार कहानी लेखन में नई कथा-भाषा और नई प्रविधियों के प्रयोग के लिए जाने जाते हैं.
‘अमर देसवा’ इनका पहला उपन्यास भले है, लेकिन इनकी रचनाशीलता यथार्थ के धरातल पर बहुत गहरे तक पकड़ बना चुकी है. कोरोना महामारी की त्रासदियों के यथार्थ को इतनी बारीकी से लिखने की उनकी कोशिश उन्हें एक बड़ा कथाकार बनाती है.
क्रूर और असंवेदनशील राजनीति के इस दौर में मनुष्य की संवेदनशीलता को कथानक में पिरोते हुए लोकतंत्र, भ्रष्ट शासन-प्रशासन, धर्मांधता और नागरिकता जैसे विषयों पर सवाल खड़े करना, कड़वे समय के सच को लिखने वाला कोई कथाकार ही कर सकता है. वैसे भी जिए हुए यथार्थ को लिखना या फिर अपने समय का आख्यान लिखना बहुत ही मुश्किल होता है।
मार्च 2020 में लॉकडाउन लगने के बाद देशभर में जो सरकारी असंवेदनहीनता दिखी, जिसकी जद में आकर लाखों लोगों की मौतें हुईं, उसने ही प्रवीण कुमार को विवश किया कि वह इस राष्ट्रीय आपदा को औपन्यासिक कृति में बदल दें.
यह किताब एक उम्मीद भी देती है कि त्रासदी चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हो, मनुष्यता से भरी उम्मीद के सहारे ही हम नागरिक की अवधारणा को बचाए रख पाएंगे.
करो़ड़ों लोगों के पास आज न तो रोजगार है और न ही आजीविका का कोई ठोस इंतजाम ही है. ऐसे में क्या ही मुमकिन है कि हम कुछ बचा पाएं.