यूपी: धार्मिक, जातीय और वर्गीय पहचानों की उलझती गुत्थियाँ

उत्तर-प्रदेश का चुनावी अभियान शुरू होने से पहले ही शुरू हो चुका है. धर्म, जाति और वर्गीय पहचान को लेकर गड्डमड्ड विचार सामने आ रहे हैं. सवाल उठ रहे हैं- हिन्दू मुसलमान होगा कि अगड़ा- पिछड़ा? खेती-किसानी के सवाल, मँहगाई और बेरोजगारी के सवाल या मंदिर, महोत्सव आदि?

इसे थोड़ा और गड्डमड्ड कर देतें हैं.

1. पहला पेंच

पेंच यह है कि हिन्दू होने का अर्थ है किसी न किसी जाति का होना. बगैर इस या उस जाति के हुए आप हिन्दू हो ही नहीं सकते. साधू-सन्यासी के लिए थोड़ी छूट है पारम्परिक हिन्दू समाज में, लेकिन जैसे ही साधू बाबा के पैर राजनीति के जमीन पर पड़ते हैं जाति का मोहपाश भी प्रकट हो जाता है.

2. दूसरा पेंच

दूसरा पेंच यह है कि अगर आप अपने जातिगत पहचान को कायम रखना चाहते हैं तो आपको इस या उस प्रकार का हिन्दू होना ही पड़ेगा.
मोदीयुगीन भाजपा ने इस नस को पकड़ लिया है.

3. तीसरा पेंच

तीसरा पेंच यह है कि पारम्परिक हिन्दू समाज में ‘जाति’ सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में किसी न किसी रूप में सक्रिय रही है- कम या अधिक तीव्रता के साथ.

भारत के आधुनिक उदारवादियों और वामपंथियों ने सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में जाति को निर्णायक चुनौती दिए बिना आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र को जाति-निरपेक्ष बनाने की कोशिश की.

फिर सौ दिन चले अढ़ाई कोस.

4. चौथा पेंच


अगर ओबीसी की पहचान एक वर्ग रूप में होनी थी, जातियों के अंकगणितीय योगफल के रूप में नहीं तो शोषण और असमानता के दोनों पहलूओं- सामजिक-धार्मिक (विचारधारात्मक) और आर्थिक के परस्पर अन्तर्सम्बंध को समझना था.

मंडल कमीशन लागू होने के बाद कम से कम बिहार में पाँच-दस साल तक किसी हद तक ओबीसी की वर्गीय पहचान उभरने लगी थी, लेकिन फिर वह जातियों के समुच्चय में विघटित होता गया. यही समय था जब लालू से नीतीश अलग हुए, नीतीश से कोई और अलग हुआ और फिर समीकरणों का दौर आया.

क्यों हुआ ऐसा? शायद इसलिए कि सांस्कृतिक और मान-मर्यादा के सवाल तो एक हद तक मजबूती से उठाए गए, लेकिन ओबीसी के अंतर्गत आने वाली जातियों के आर्थिक सवालों को सुविधाजनक ढंग से दरकिनार कर दिया गया.

नतीजा क्या निकला? सामजिक न्याय की राजनीति जातीय समीकरणों में विघटित हुई. सोशल जस्टिस की जगह सोशल इंजीनियरिंग की बात होने लगी. नीतीश जी तो पेशे से भी इंजीनियर हैं. शायद अखिलेश जी ने भी मैसूर जाकर इंजीनियरिंग की ही पढ़ाई की है.

और अब भाजपा में तो इंजीनियर्स ही इंजीनियर्स हैं.

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