पटना: काशी में कितना काशी बच रहा है. साल 2014 से पहले का बनारस और साल 2022 का बनारस में कितनी असमानताएं हैं. इन सालों में बनारस से क्योटो तक का सफर कितना तय किया है? कुछ साल पहले स्वीडन से आए एक व्यक्ति ने बताया था कि, ‘स्वीडन जैसे शांत देशों के लोग भारत का रुख ज्यादा कर रहे हैं, क्योंकि यहां चहल-पहल है. यहां की विविधता भरी संस्कृति देखने युवा ज्यादा आकर्षित हो रहे है. यह बातचीत बनारस में ही हुई थी. उनके लिए वाराणसी महज एक जंक्शन है. वे बनारस घूमने आए थे.
बनारस भी गंगा के तट पर ही बसा हुआ शहर है. इसी को मुक्ति भूमि कहा गया है. मगर साल 2014 के बाद जिस तरह से हालात बदले हैं, मुक्ति की भूमि की ही मुक्ति लिखी जा रही है. बनारस एक मिजाज है जबकि वाराणसी एक लोकसभा क्षेत्र. और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र देश को क्या संदेश दे रहा है. नदी और कला के बनारस में इस चुनावी मौसम में सिर्फ धर्म दिख रहा है. नदी सिमटती जा रही है. कला गोबर के उपलों में ढूंढी जा रही है.
बनारस को मैंने एक ऐसे शहर के रूप में जाना जिसका मिजाज मतवाला है. मगर 2014 में देश की राजनीति का पहला जंक्शन बनने वाला बनारस तेजी से वाराणसी की तरफ मुड़ने लगा. यह शहर अपनी संकरी गलियों के लिए जाना जाता है. और जाना जाता है अपनी पौराणिकता के लिए. मगर 2014 के बही विकास की बयार ने इस संकरे शहर को आधुनिक बनाने के चक्कर में इसकी विनाश लिख दी.

वाराणसी को तरजीह ना देकर ध्यान बनारस के मिजाज पर दें तो दूर तक नीरसता नजर आती है. घाटों पर चहल-पहल नहीं है. नदी खुशमिजाज नहीं दिखती. बनारस की गंगा पर वाराणसी की गंगा हावी है. ताश खेलता बनारस बात नहीं करना चाहता है. कॉरीडोर और कोविड की चपेट में डरा बनारस अपने मिजाज में नहीं दिखा. वाराणसी में हो रहा निर्माण बनारस को किस तरह से नष्ट कर रहा है, यह आप बनारस जाकर जान जाएंगे. बनारस पर निगाहें हावी है. और वे निगाहें किसी महबूब की नहीं है. हालांकि बनारस की सड़कों पर सांड की जगह टहलती गाय दिखती है.


बनारस सुलगती आग है. घाटों पर जलती चिताओं जितनी ताप है इसमें. मगर वाराणसी की कृत्रिम गरमाहट इसकी ताप को बेमतलबी की और ले जा रही है. समय के किसी भी क्षण में काशी पर राम और बनारस पर वाराणसी का हावी होना खतरनाक है. 82 किलोमीटर स्क्वायर में फैले इस भू-भाग के चार टुकड़े हो गए हैं. अस्मितवाद की राजनीति में बनारस को उतनी ही ताप के साथ सुलगती खुद को बच पाना चुनौती है. प्रेम के शहर बनारस को वाराणसी लोकसभा में तब्दील करना प्रेम को ही खत्म करने की साजिश करती मालूम पड़ती है. काशी को बनारस वाया वाराणसी से क्योटो तक का सफर तय करवाने के कोई मायने है ही नहीं.
वाराणसी लोकसभा से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सांसद हैं. इस नाते यह देश की चुनावी राजनीति का पहला जंक्शन है. जाहिर है कि चुनावी मौसम में सत्ता पक्ष हावी रहेगा. जो मुद्दे पूरे उत्तर प्रदेश में हावी हैं, वही यहाँ भी हावी हैं. मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान और भारत-पाकिस्तान यहाँ भी चर्चाओं में हैं. विपक्षी भी पूरी ठसक के साथ मोर्चा संभाले हुए हैं. वाम राजनीति नहीं दिखी मगर सफाईकर्मी भी पूरी ठसक में दिखे. वाराणसी और बनारस की जंग में कौन हावी रहेगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा. मगर इस चुनावी निर्माण से हो रहा नुकसान इतना भयावह है यह बनारस के मिजाज के प्रति डर पैदा करता है.
बनारस में स्पेस को लेकर बहुत मारामारी है. बनारस का क्षेत्रफल उतना ही है. मगर वाराणसी को निर्माण के लिए जगह चाहिए. इसके लिए बनारस का भूगोल बदला जा रहा है. बनारस थोड़ा अपने भूगोल में भी तो बसता है. गंगा क्या इस भूगोल का हिस्सा नहीं है? एक मनुष्य के दिमाग में बनारस क्या है? और वाराणसी क्या है? मैं कल्पनाओं की बात नहीं कर रहा हूँ.
घाटों पर जाकर देखें तो नदी से ज्यादा रेत दिखता है. पर्यटकों से ज्यादा नाव. लोग ताश तो खेल रहे हैं, मगर बात नहीं कर रहे. बनारस और वाराणसी की इस लड़ाई में देश का पहला जंक्शन कितना असर डाल पा रहा है? आखिर बनारस को ठगों का भी शहर कहा गया है. दिल ठगी कर सकता है. उसे इजाजत है. बनारस पूरी तरह से बनारस है. वाराणसी जंक्शन पर उतरकर जब बनारस में प्रवेश करते हैं, सफाई और चमक दिखती है. मगर घाटों पर उतनी ही गंदगी. ‘माँ गंगा के बेटों’ ने नदी को कितना बचाया है? वाराणसी जंक्शन से उतरकर अगर गंगा नदी की तरफ बढ़ें तो हम कहाँ जहां पहुचेंगे वहाँ रेत है.

अब सवाल यह है कि ऐसे में जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, बनारस को किस तरह से देखा जाए? या देश में फैले मोदी राग में बिस्मिल्लाह की राग भूल जाई जाए. ऐसे में हम बुनकरों से होते हुए कबीर तक कब पहुंचेंगे? कब पहुचेंगे बनारस की लड़ाई पर जब कि कोविड के बाद के बनारस के बड़े हिस्से में विरानागी पसरी है. कैसे पहुंचेंगे प्रेम कर रहे जोड़ों तक. उस सुलगती आग तक.
बनारस पर छपी यह पंक्तियाँ व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर लिखी गई है- शशांक मुकुट शेखर