पंचायत चुनावों को लेकर इतना सन्नाटा क्यों है!

इन दिनों बिहार में पंचायत चुनाव चल रहे हैं. 24 सितंबर से जारी इन चुनावों में राज्य भर से डेढ़ लाख के करीब प्रतिनिधि चुने जायेंगे जो अगले पांच साल तक बिहार के सभी गांवों में विकास की प्रक्रियाओं का संचालन और उनकी देखभाल करेंगे. एक तरह से ये चुनाव अगले पांच साल के लिए बिहार के गांवों की किस्मत का फैसला करने वाले हैं, क्योंकि इस दौरान जैसे प्रतिनिधि चुने जायेंगे, गांव का विकास वैसा ही होगा. मगर इन चुनावों को लेकर बहुत कम चर्चा हो रही है. मेनस्ट्रीम मीडिया में भी, अल्टरनेटिव मीडिया में और सोशल मीडिया में भी. एक तरह से गहरी उदासीनता और उपेक्षा का माहौल है. अगर इसके मुकाबले हम पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों को याद करें तो पूरा दौर सरगर्मियों से भरा था। राज्य ही नहीं देश के सभी मीडिया हाउसों के पत्रकार बिहार पहुंचे थे. उस दौरान मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में हर तरह बिहार इलेक्शन की ही चर्चा हो रही थी.

वह भी चुनाव ही था, जिसमें बिहार के लिए सरकार चुनी जा रही थी. यह भी चुनाव ही है, इसमें बिहार के गांवों की सरकार चुनी जा रही है. फिर इतनी उदासीनता और इतना सन्नाटा क्यों? आखिर क्यों लोग सिर्फ लोकसभा, विधानसभा चुनावों में ही रुचि लेते हैं, उन चुनावों में रुचि नहीं लेते जो उनके गांव में उनके लोगों के बीच हो रही है. क्या इसलिए कि इसमें राजनीतिक दल शामिल नहीं होते, जिनके हाथ में इन दिनों पब्लिक परसेप्शन को आकार देने की ताकत है?

पिछले दिनों दिल्ली के एक बड़े मीडिया हाउस के एक पत्रकार का फोन आया कि वे बिहार के पंचायत चुनावों पर मुझसे कुछ बात करना चाहते हैं. सुनकर मुझे अच्छा लगा. मगर उन्होंने पहला ही सवाल पूछा कि इन चुनावों से बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, तो मेरा मन उखड़ गया. क्या पंचायत चुनावों की इतनी सी ही हैसियत है कि वह देश या राज्य की राजनीति को कितना प्रभावित करता है. शायद हमने इन्हें ऐसे ही देखना सीख लिया है. मैंने उन्हें कहा कि बिहार में राजनीतिक दल पंचायत चुनावों में भाग नहीं लेते, इसलिए शायद ही कोई असर पड़े. यह सुनकर उन्होंने मुझे कुछ औपचारिक बातें कीं और विदाई ले ली.

मगर उनकी बातें मेरे लिए सोचने के कुछ मुद्दे छोड़ गयीं. आखिर जिस मकसद से देश में पंचायती राज व्यवस्था लागू हुई थी, उसका क्या हुआ? अगर बिहार पर उस व्यवस्था का असर देखें तो हाल बहुत बुरा नजर आता है. यहां जो भी पंचायत प्रतिनिधि चुने जाते हैं, वे अपने गांव या क्षेत्र के लीडर नहीं होते, वे अपने इलाके में राज्य और केंद्र सरकार की योजनाओं को लागू कराने वाली एजेंसी बनकर रह जाते हैं. मनरेगा, इंदिरा आवास, नल-जल, नाली-गली योजना वगैरह-वगैरह. सरकार के पास ग्रामीण विकास योजना समेत कई विभागों की जितनी भी योजनाएं होती हैं, उन्हें लागू करने की जिम्मेदारी पंचायतों को दे दी जाती हैं. और यह जिम्मेदारी पाकर पंचायत प्रतिनिधि खुश हो जाते हैं. क्योंकि इसके इम्प्लीमेंटेशन में अच्छी कमाई के अवसर होते हैं. एक आलेख में मैंने पहले लिखा था, हमने जिन्हें मुखिया के रूप में चुना सरकार ने उसे ठेकेदार बना दिया. यह एक कड़वी सच्चाई है. राज्य के ज्यादातर पंचायत प्रतिनिधि ऐसे ही हैं.

एक जमाना था जब गांव का मुखिया बनना प्रतिष्ठा का विषय होता था, अब करोड़पति और अरबपति बनने का एक अवसर है. कुछ साल पहले एक अखबार में खबर छपी थी कि बिहार के ज्यादातर मुखिया के पास स्कारपियो कार है, जबकि आज की स्थिति यह है कि मुखिया लोगों ने स्कारपियो को आउटडेटेड सवारी मान लिया है. वे 20-25 लाख की कार पर सफर करते हैं. मुखिया के चुनाव में अब 70-75 लाख रुपये खर्च होने लगे हैं और कमाई के मामले में वे विधायकों को टक्कर दे रहे हैं. लगभग हर मुखिया के पास अपना ईंट का भट्ठा है. क्योंकि इंदिरा आवास बनाने की जिम्मेदारी उसकी अपनी है. और इस अकूत कमाई के अवसर की वजह से मुखिया लोगों ने अपने असल अधिकारों की तिलांजलि दे दी है.

तय यह हुआ था कि विकास की योजनाएं हर इलाके में अपनी स्थानीय जरूरतों के हिसाब से अलग-अलग लागू हो, क्योंकि हर इलाके की परिस्थिति अलग-अलग होती है. इसके लिए पंचायतों में नियमित ग्रामसभा होनी थी और उन ग्रामसभाओं में स्थानीय स्तर पर योजना बनाकर उसे सरकार को भेजना था. मगर दुर्भाग्यवश आज किसी गांव या किसी पंचायत में वहां की स्थिति के हिसाब से अलग योजना नहीं बनती. राज्य और केंद्र की योजनाओं को ही पास करा लिया जाता है. तय यह भी हुआ था कि गांव आर्थिक विकास के लिए आत्मनिर्भर हो, वे अपने स्तर पर टैक्स लगाकर आय का सृजन कर सकें. मगर हुआ यह कि पंचायतें छोटी सी छोटी बात के लिए सरकारों की तरफ टकटकी लगाये बैठी रहती है, फंड आयेगा तो काम होगा. चाहे वह काम कोरोना काल में गरीबों को अनाज उपलब्ध कराने का ही क्यों न हो.

तो हुआ यह कि मौजूदा व्यवस्था ने पंचायत प्रतिनिधियों को ठेकेदार बना दिया और वे खुशी-खुशी बन भी गये. उनके आत्मनिर्णय़ का अधिकार धीरे-धीरे छिन गया. वे अब बस सरकारी योजनाओं की इंप्लीमेंटिंग एजेंसी हैं. ऐसे में गांवों की सरकार का कंसेप्ट ही खतम है. अगर मुखिया पद सिर्फ कमाने का अवसर है, तो भला लोगों की उसमें रुचि क्यों हो.

ये लेखक के अपने विचार है.

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