यार जादूगर जीवन-मृत्यु का दार्शनिक आख्यान है.

किसी और प्राणी का तो मालूम नहीं, लेकिन शायद ही ऐसा कोई मनुष्य होगा जो जीवन रूपी उलझी अपनी गुत्थियों के बावजूद एक लंबी उम्र की कामना न करता हो. लेकिन यही मनुष्य जब जीवन से परेशान हो जाता है तो सबसे पहले मृत्यु को याद करता है कि भगवान उसे उठा लें. गांधीजी भी 125 साल जीना चाहते थे. लेकिन सवाल सिर्फ मनुष्यों का नहीं है, उन देवताओं के दायित्व का भी है जो जीवन-मृत्यु के चक्र को रचते हुए भी अपने चक्र को तोड़ देते हैं जिसे साधारण मनुष्य जादूगरी समझ लेता है. और यहीं से जन्म लेती है ‘यार जादूगर’ जैसे शानदार कथानक लिए हुए उपन्यास की अद्भुत परिकल्पना.

इस परिकल्पना के रचनाकार नीलोत्पल मृणाल साहित्य की नई वाली हिंदी परंपरा को एक नई बहर देने वाले ऐसे सर्वाधिक लोकप्रिय कथाकार हैं जिनकी लेखनी में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे केंद्रीय भाव लिए होते हैं. हिंद युग्म प्रकाशन से छपे उपन्यास यार जादूगर में भी सामाजिक प्राणी मनुष्य का ऐसा विद्रूप चेहरा सामने आता है जो सीधे-सरल मृत्यु को उलझाऊ भरे जीवन में बदलवाने के धतकर्म में अनगिनत तरह के तिकड़मों को रचने में जरा भी नहीं हिचकता. आत्मा अमर है, शरीर नश्वर है, लेकिन फिर भी क्या कीजिएगा, शारीरिक रूप से अमरत्व प्राप्त करने की चाह एक मानवीय आकांक्षा भी तो है.

पारलौकिक कल्पनाओं, ऐतिहासिक गाथाओं और मिथकों आदि पर कहानी या उपन्यास लिखना एक टेढ़ा मसला है और यह काम सबसे होता भी नहीं. नीलोत्पल मृणाल ने भी इस मामले में एक कोशिश की है, लेकिन इस कोशिश की कामयाबी पर आखिरी मुहर लगाने का जिम्मा पाठकों पर है.

इस मिथकीय कहानी में नीलोत्पल ने धर्मराज यमराज के पुत्र कतिला के भीतर विद्रोह का बीज बोकर उसको धरती पर उतार दिया, यह एक अद्भुत कल्पना है. इसी कल्पना के बीच से निकले इसके कुछ संवाद कथानक के आयाम को समृद्ध बना देते हैं. यमराज और उनके पुत्र कतिला का संवाद तो इस उपन्यास की आधारशिला ही है, लेकिन अवध नारायण और उनकी पत्नी का संवाद जो माता-पिता के दायित्वबोध से बंधे होकर ममत्व एवं मानवीय संवेदनाओं का सुंदर रूप प्रस्तुत कर रहे हैं, वह बेहद महत्वपूर्ण है. सामाजिक सिस्टम के सड़ांध में लाभ और हानि का बड़ा ही मारक तालमेल होता है और यहीं से विडंबनाएं एवं विसंगतियां जन्म लेती हैं, जिस पर पैनी निगाह रखते हुए नीलोत्पल जीवन-मरन के दर्शन तक पहुंच जाते हैं.

उपन्यास में नीलोत्पल मृणाल लिखते हैं- “मृत्यु एक सरल रेखा है, जीवन घुमावदार रास्ता. मृत्यु एक सुलझा हुआ धागा है पर जीवन उलझे हुए धागों का समूह, जिसे कोई चमत्कार नहीं सुलझा सकता.” यह कितनी गूढ़ बात है. जाहिर है, इसे साधारण मनुष्य नहीं समझ सकता, इसलिए उसे किसी के एक बार मर जाने के बाद भी फिर से जिंदा होने जैसे झूठे चमत्कार पर यकीन हो जाता है.

एक साधारण मनुष्य को ये नहीं मालूम कि आत्मा की कोई स्मृति नहीं होती, जब तक कि वह प्राकृतिक परिवेश में ढलते हुए शरीर के साथ खुद वयस्क न हो. इसलिए वह एक वयस्क मृत शरीर में पहुंचकर भी नवजात ही रहती है. यही प्रकृति का चक्र है. मृत शरीर को पुन: जीवित करना इस चक्र को तोड़ना है. क्योंकि मृत्यु को मुक्ति भी कहा गया है, जो जीवन के तमाम दुखों को खत्म कर देती है. फिर से जीवित होने का अर्थ है फिर से दुखों को भोगना.

इस संदर्भ में इसी उपन्यास में नीलोत्पल मृणाल के ही लिखे गीत- “जगत माटी का ढेला रे,” को भी समझा जा सकता है. यानी ‘ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है’ की अवधारणा को इस गीत ने जो बड़ा फलक दिया है, उसे समझना बहुत जरूरी है. क्योंकि फिर तभी यह बात समझ में आएगी कि ‘मृत्यु एक शाश्वत सत्य है’.

मृत्यु एक सरल रेखा है, यह अपने आप में एक बहुत बड़ा दर्शन है, जिसको जीवन के झंझावात से ही समझा जा सकता है. बच्चों के गांधी कहे जाने वाले मूर्धन्य साहित्यकार द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की जीवन और मृत्यु पर एक अच्छी कविता है- “जीवन क्या है? / वह टेढ़ी-मेढ़ी सी रेखा / प्रथम और अंतिम / दो श्वास-बिंदुओं को जो / मिला रही है। / और मृत्यु क्या? / वह है एक सरल रेखा-सी / अंतिम और प्रथम / दो श्वास-बिंदुओं को जो / मिला रही है.”

फिल्म ‘आनंद’ में जिंदगी और मौत का आख्यान रचने वाले मशहूर फिल्मकार और गीतकार गुलजार साहब भी अपनी एक त्रिवेणी में कुछ ऐसी ही बात लिखते हैं- “क्या पता कब, कहां से मारेगी / बस, कि मैं जिंदगी से डरता हूं / मौत का क्या है, एक बार मारेगी।”

मौत और जिंदगी की गुत्थी का सिलसिला यहीं नहीं रुकता. शायर डॉ सफी हसन भी अपने एक शे’र में कहते हैं- “मरीज-ए-इश्क का क्या है, जिया जिया ना जिया / है एक साँस का झगड़ा, लिया लिया ना लिया.” इस शे’र से अगर मरीज-ए-इश्क शब्द को हटा दें तो यह हर प्राणी पर लागू हो सकती है. जाहिर है, किसी की मौत पर उसने ‘आखिरी सांस ली’ की अवधारणा यहीं से तो निकली होगी.

अरे! ‘मुकद्दर का सिकंदर’ फिल्म में गीतकार अंजान साहब के लिखे गीत की इस लाइन- “जिंदगी तो बेवफा है एक दिन ठुकराएगी / मौत महबूबा है अपने साथ लेकर जाएगी,” को हम कैसे भूल सकते हैं! सचमुच, बेवफा होकर भी हमारी पूरी जिंदगी एक-एक साँस को लिए जाने का उपक्रम ही तो है. लेकिन यह अकल्पनीय तो है ही न कि यमलोक के अधिपति धर्मराज यमराज किसी को यशस्वी होने का आशीर्वाद दें!

दरअसल, यमराज के पुत्र ‘कतिला’ ने ‘हत्या का देवता’ होने के अपने दायित्य से विमुख होकर पृथ्वी पर आकर मृतकों को फिर से जीवन देकर उन्हें उलझन में डाल दिया था. यह यमलोक से उसका विद्रोह था, क्योंकि कतिला नहीं चाहता था कि वह हत्या का देवता होने के लिए अभिशप्त रहे. लेकिन, जीवन जीवन होने के लिए अभिशप्त है और मृत्यु मृत्यु होने के लिए. ‘यार जादूगर’ पूरा दर्शन यही है. यह महज एक उपन्यास या कहानी नहीं है, बल्कि जीवन-मृत्यु का दार्शनिक आख्यान है.

कवियों, गीतकारों और लेखकों ने तो जीवन-मृत्यु पर कम लिखा है, लेकिन दार्शनिकों और धर्मगुरुओं ने तो इसके अनेक आयाम पेश किए हैं. ग्रंथ भरे पड़े हैं मृत्यु और मृत्योपरांत मिलने वाले स्वर्ग-नरक के आख्यानों से, फिर भी जीवन की लालसा है कि जाती ही नहीं और अब तो अमरत्व प्राप्ति को लेकर वैज्ञानिक शोध तक हो रहे हैं. मगर ऐसा जो कर पाएगा, वह शायद कतिला की तरह ही ‘यार जादूगर’ तो हो ही जाएगा.

अपने पहले उपन्यास डार्क हॉर्स के लिए साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार प्राप्त कर चुके नीलोत्पल मृणाल झारखंड के दुमका जिले के नोनीहाट गांव से हैं. फिलहाल दिल्ली में रहते हैं. रांची विश्वविद्यालय से स्नातक नीलोत्पल एक शानदार लोकगायक भी हैं, गीत और कविता भी लिखते हैं और विभिन्न मंचों पर व्याख्यान भी देते हैं.

औघड़ के बाद अब अपने तीसरे उपन्यास ‘यार जादूगर’ से अपनी साहित्यिक यात्रा के जरिए नीलोत्पल मृणाल ने हिंदी पठनीयता को समृद्ध तो किया ही है, साथ ही पुरानी मठाधीशी परंपराओं को नई चुनौतियां भी दी हैं. अपनी रचनाशीलता में एक ऐसी आंचलिक भाषा का सृजन किया है, जो सीधे माटी से जुड़ी हुई है. इस भाषा में जो चुटीलापन है, वह राजनीतिक और सामाजिक व्यंग्य को एक नया ही कलेवर देता है.

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